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अशेष विचार के द्वारा श्रीभगवद् भक्ति का अभिधेयत्व अर्थात् अवश्य कर्त्तव्यत्व निर्द्धारित हुआ है। तन्मध्य में अनेक शास्त्रों में कर्म ज्ञानादि मिश्र रूप में जो भागवत धर्म का उपदेश दृष्ट होता है, वह कर्म ज्ञानादि साधन मार्ग में निष्ठा प्राप्त साधक वृन्द को भक्ति सम्बन्ध के द्वारा कृतार्थ करने के निमित्त । एवं किसी किसी साधक वृन्द को भगवद् भजन जनित आनन्द आस्वादन द्वारा विशुद्ध भक्ति में प्रवर्त्तन कराने के निमित्त ही उस प्रकार उपदेश हुआ है । यह समझना होगा । पुनश्च सर्व शास्त्र में भक्ति का अभिधेयत्व कहने के निमित्त पूर्व में यद्यपि भक्ति की महिमा कही गई है, तथापि क्रमरीति अवलम्बन से यहाँ उसकी व्याख्या की जा रही है । सर्व मानव के पक्ष में विशेषतः भक्त को भक्ति भिन्न अपर कुछ
भी करना नहीं चाहिये। इस अभिप्राय हेतु पुनर्वार भक्ति की महिमा का वर्णन करते हैं । उक्त महिमा वर्णन
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तदीय- महिमा पूर्व्वत्र व्याख्यातोऽपि क्रमेण व्याख्यायते । सर्व्वेरेव विशेषतो भक्तैरन्यत्तु न श्रीभक्तिसन्दर्भः कर्तव्यमित्य भिप्रायेण तत्र तस्याः परमधर्म्मत्वम् सर्व्वकामप्रदत्वं च ( भा० ६।३।२२) “ एतावानेव लोकेऽस्मिन्" इत्यादी, (भा० २ ३३१०) “अकामः सर्व्वकामो वा” इत्यादी (भा० ११।१५ ३५) सर्व्वासामपि सिद्धीनाम्" इत्यादौ च दर्शितमेव । स्कान्दे च सनत्कुमार-मार्कण्डेय संवाद- “विशिष्टः सर्व्वधर्माणां धर्मो विष्ण्वचनं नृणाम् । सर्व्वयज्ञ- तपो-होम-तीर्थस्नानैश्च यत् फलम् ॥ ३३० ॥ तत् फलं कोटिगुणितं विष्णु ं सम्पूज्य चाप्नुयात् । तस्मात् सर्व्वप्रयत्नेन नारायणमिहाचर्च्चयेत् ॥” ३३१॥ सत्र व ब्रह्म-नारद-संवादे च
“अश्वमेधसहस्राणां सहस्रं यः करोति वै । न तत् फलमवाप्नोति मद्भक्त र्यदवाप्यते ॥ ३३२ ॥
प्रसङ्ग में श्रीहरि भक्ति का परम धर्मत्व एवं सर्वाभीष्ट प्रदत्त का वर्णन भा० ६।३।२२ २।३।१०। एवं ११।१५।३५ में है ।
“एतावानेव लोकेऽस्मिन् पुंसां निःश्रेयसोदयः ।
तीव्र ेण भक्ति योगेन मनोमय्र्य्यापितं स्थिरम् ॥ अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः । तीव्र ेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् ॥ स्वर्गापवर्गयोः पुंसां रसायां भुवि सम्पदाम् ।
सर्वासामपि सिद्धीनां मूलं तच्चरणाच्चैनम् ॥” ३
से
मनुष्य मात्र की सर्वाङ्गीण उन्नति के निमित्त भक्ति योग ही एक मात्र धर्म है । जिस में निष्काम भाव से श्रीभगवान् में मनोनिवेश की पद्धति है ।
उदार बुद्धि सम्पन्न व्यक्ति, सकाम हो, अथवा निष्काम हो, तीव्र भक्ति योग के द्वारा - परम पुरुष श्रीकृष्ण की अर्चना करे । स्वर्ग, अपवर्ग, भूतलस्थ सम्पद् एवं समस्त सिद्धि लाभ हेतु, एकमात्र कारण – श्रीकृष्ण चरणाच्चन ही है। स्कन्द पुराण के सनत् कुमार मार्कण्डेय संवाद में वर्णित है-
“विशिष्टः सर्व धर्माणां धम्र्मो विष्ण्वचनं नृणाम् । सर्वयज्ञ तपो होम तीर्थ स्नानैश्च यत् फलम् ॥३३०॥ तत् फलं कोटि गुणितं विष्णुं सम्पूज्य चाप्नुयात् । तस्मात् सर्व प्रयत्नेन नारायणमिहाचर्च्चयेत् ॥ ३३१॥
श्रीसनत कुमार मार्कण्डय को कहे थे - हे मार्कण्डेय ! समस्त धर्म के मध्य में अर्थात् सर्वं कर्त्तव्यता के मध्य में श्रीविष्णु अर्चन ही मानव मात्र का विशिष्ट धर्म है । सर्व यज्ञ, तप, होम, एवं तीर्थ स्नान के द्वारा जो फललाभ होता है । श्रीविष्णु की सम्यक् पूजा करने से उस फल से कोटि गुण अधिक फल लाभ होता है । अतएव इस संसार में सर्व प्रथम श्रीनारायण की ही पूजा करे । स्कन्द पुराण के ब्रह्म नारद संवाद में भी वर्णित है-
एक क
“अश्वमेध सहस्राणां सहल यः करोति वै ।
न तत् फलमवाप्नोति मद्भक्तैर्यदवाप्यते ॥ ३३२ ॥
जो मानव, सहस्र सहस्र अश्वमेध यज्ञानुष्ठान करते हैं, उस से भी वे उस प्रकार फल लाभ नहीं कर सकते हैं, जिस प्रकार मेरे भक्त गण, फल लाभ करते हैं।
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अशुभघ्नत्वमपि (भा० ६।१।१७) “सध्रीचीनो ह्ययं लोके पन्थाः क्षेमोऽकुतोभयः” इत्यादौ दशितम् । टोका च - “अतो न ज्ञानमार्ग इवासहायता निमित्तं भयम्, नापि कर्म- मार्गवन्मत्सरादियुक्तेभ्यो भयमिति भावः” इत्येषा । तथा च स्कान्दे द्वारका-माहात्म्ये परमेश्वरवाक्यम्-
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मद्भक्ति वहां पुंसामिह लोके परेऽपि वा । नाशुभं विद्यते लोके कुलकोटिं नयेद्दिवम् ॥” ३३३॥ विष्णुपुराणे च-
“स्मृते सकलकलयाणभाजनं यत्र जायते । पुरुषं तमजं नित्यं व्रजामि शरणं हरिम् ॥ ३३४ ॥ इति ।
सर्व्वान्तराय निवारकत्वमाह (भा० १०।२।३३)
(१२१) “तथा न से माधव तावकाः क्वचिद् भ्रश्यन्ति मार्गात्त्वयि बद्धसौहृदाः ।
त्वयाभिगुप्ता विचरन्ति निर्भया, विनायकानीकप मूर्द्धसु प्रभो ॥” ३३५॥
भगवद् भक्ति के द्वारा निखिल अशुभ विनष्ट होते हैं, अर्थात् भक्ति ही एकमात्र अशुभघ्न है, उसका वर्णन भा० ६।१।१७ । में श्रीशुकने किया है ।
“सध्रीचीनो ह्ययं लोकेपन्याः क्षेमोऽकुतोभयः ।
सुशीलाः साधवो यत्र नारायण परायणः ॥”
हे राजन् ! यह भक्ति मार्ग हो समीचीन है । कारण, यह भक्ति मार्ग, मङ्गलप्रद एवं अकुतोभय है,
! किसी प्रकार विघ्न से भय की अशङ्का भी इस में नहीं है । कारण, जो लोक, इस भक्ति मार्ग में विचरण करते हैं, वे सब, कृपालु, निष्काम, एवं नारायण परायण होते हैं, जो लोक, इस भक्ति मार्ग को अवलम्बन करते हैं, उनको सहायता करने के निमित्त वे सब कृपालु भक्तवृन्द निरन्तर आनुकूल्य करते हैं। इस श्लोक की टीका में श्री धर स्वामि पादने कहा है, अतएव ज्ञान मार्ग के समान भक्ति मार्ग में असहायता निमित्त भय नहीं है । एवं कर्म मार्ग के समान पर श्रीकातरता युक्त मानव से भी भय की आशङ्का नहीं है। उस प्रकार वर्णन, स्कन्द पुराण के द्वारका माहात्म्य के परमेश्वर वाक्य में है
“मद्भक्त वहतां पुंसामिह लोके परेऽपि वा ।
नाशुभं विद्यते लोके कुलकोट नयेद्दिवम् ॥३३३॥
जो सब मानव, मदीय चरण युगल में भक्ति का अनुष्ठान करते हैं, उनको इह लोक वा परलोक में भ्रमङ्गल नहीं होता है। एवं वह कोटि कुल को वैकुण्ठ लाभ कराता है।
श्रीविष्णु पुराण में लिखित है-
“स्मृते सकल कल्याण भाजनं यत्र जायते ।
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पुरुषन्तमजं नित्यं व्रजामि शरणं हरिम् ॥ " ३३४ ॥
भक्ति का सर्वान्तराय निवारकत्व का वर्णन भा० १०।२।३३ में है-
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(१२१) “तथा न ते माधव तावकाः क्वचिद् भ्रश्यन्ति मार्गात्वयिबद्ध सौहृदाः ॥
स्वयाभिगुप्ता विचरन्ति निर्भया, विनायकानीकप - मूर्द्धसु प्रभो ॥ " ३३५॥
टोका - त्वदीयास्तु न कदाचिदपि पतन्तीत्याहुः । तथा नेति । विनायकाः विघ्नहेतवस्तेषामनीकानि
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पूर्वम् (भा० १०।२ ३२ ) येऽन्येऽरविन्दाक्ष” इत्यादिना मुक्तानामपि श्रीभगवदनादरेण परमार्थाश उक्तः भक्तानां स नास्तीत्याहुः, - तथेति । यथा पूर्व्वे आरूढ़ - परम पदत्वावस्थातो ऽपि भ्रश्यन्ति, तथा तावका मार्गात् साधनावस्थातोऽपि न भ्रश्यन्ति, किमुत मृग्यात्त्वत्त इत्यर्थः । श्रीवृत्र- गजेन्द्र भरतादीनां सज्जन्मतो भ्रंशेऽपि भक्तिवासनानुगति-दर्शनात् । (वासना भाष्ये च ) -
‘मुक्ता अपि प्रपद्यन्ते पुनः संसारवासनाम् । यद्यचिन्तः- महाशक्तौ भगवत्यपराधिनः ॥” ३३६॥
स्तोमास्तानि पान्ति ये तेषां मूर्द्धसु विचरन्ति विघ्नान् जयन्तीत्यर्थः ।
श्रीब्रह्मादि देवगण, श्रीदेवकी देवी के हृदय में आविर्भूत श्रीकृष्ण को लक्ष्य करके जो स्तव किये थे, उस में भी भक्ति का सर्वविध विघ्न निवारकत्व प्रदर्शित हुआ है। हे माधव ! ज्ञानिवृन्द, जिस प्रकार साधन मार्ग से भ्रष्ट होते हैं, जो लोक आप के हैं, वे सब उस प्रकार भक्ति मार्ग से भ्रष्ट नहीं होते हैं । कारण, उनके आप के प्रति बन्धु भाव अति सुदृढ़ है । अतएव वे सब आप के द्वारा रक्षित होकर निर्भय से विघ्न समूह के मध्य में जो सब विघ्न अति प्रबलतर हैं, उनके भी मस्तक में विचरण करते हैं । कारण, आप भक्त रक्षण कार्य में सर्वथा समर्थ हैं, इस अभिप्राय से हो आप सबने सम्बोधन किया- “हे प्रभो !” “तथा न ते माधव ! " श्लोक के पूर्व श्लोक में-
“येऽन्येऽरविन्दाक्ष विमुक्त मानिन-
स्त्वय्यस्तभावादविशुद्ध बुद्धयः । आरुह्य कृच्छ्र ेण परं पदं ततः पतन्त्यधोऽनादृत युष्मदङ्घ्रयः ॥”
टीका- ननु विवेकिनां किं मद्भजनेन मुक्ता एव हि तत्राहुः, येऽन्ये इति । विमुक्तमानिनो विमुक्ता वयमिति मन्यमान्याः । त्वयि अस्तो निरस्तोऽतएव असत् जो भावस्तस्तात् भक्तर भावादित्यर्थः । न विशुद्धा बुद्धिर्येषां ते तथा । यद्वा, त्वयि अस्तभाः- इतिच्छेदः । अस्तमतयो वादेष्वेव विशुद्ध बुद्धयः । कृच्छ्रेण बहु जन्म तपसा परं पदं मोक्षसन्निहितं सत् कुलतपः श्रुतादि । पतन्ति विघ्नैरभिभूयन्ते । न आदृतौ युष्मदङ्घ्री यैस्ते ॥
P
उक्त श्लोक के द्वारा प्रतिपादित हुआ है कि- जीवन्मुक्त महापुरुषवृन्द भी परमार्थ वस्तु लाभ से परिभ्रष्ट होते हैं, यदि भक्त एवं भगवच्चरणों में अनादर रूप अपराध उन सब का होता है । किन्तु भक्त कभी भी परमार्थ वस्तु लाभ से वञ्चित नहीं होते हैं । इस का वर्णन ही “तथा न ते माधव ! तावकाः क्वचिद्” श्लोक में है । जिस प्रकार परम पदारूढ़ अवस्था से ज्ञानिगण भ्रष्ट होते हैं, उस प्रकार त्वदीय व्यक्ति गण, साधन अवस्था से भी भ्रष्ट नहीं होते हैं। सिद्ध अवस्था से तो कभी भ्रष्ट होने की सम्भावना ही नहीं है। इस में संशय हो सकता है कि - श्रीवृत्र, गजेन्द्र, भरत प्रभृति सज्जन्म से अर्थात् सर्व प्रकार से भगवद् भजनोपयोगि मनुष्य देह से क्यों भ्रष्ट हुए हैं ? उत्तर में कहते हैं-
वे सब सज्जन्म से भ्रष्ट होने पर भी भगवद् भजन की वासना, असुर देह में हस्ति ह में एवं मृग देह में भी दृष्ट होती है । अतएव भक्ति वासना की हानि न होने के कारण उन सब का पतन भी पतन शब्द वाच्य नहीं है ।
मुक्त ज्ञानिमहापुरुषवृन्द भगवच्चरणों में अपराधी होन से उनको जो संसारी होना पड़ता है ।
FIR
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इति तेषां तु पुनः संसार-वासनानुगतेः । यद्वा, येन निःसन्देहत्वादि-रूपेण प्रकारेण “येऽन्ये ऽरविन्दाक्ष” इत्यादिरूपेतत्पद्य-पूर्वपद्योक्ता वहिर्मुखा भ्रश्यन्ति तेनैव निःसन्देहत्वादि रूपेण प्रकारेण तावका न भ्रश्यन्ति तद्भ्रंश-तद्ा शाभावयोरुभयोरपि निःसन्देहत्वादिरूप - प्रकारेणैव सम इत्यर्थः । यतस्त्वयि बद्धसौहृदाः, सौहृदमत्र श्रद्धा मार्गादिति साधकत्व- प्रतीतेरेव, त्वद्बद्धसौहृदत्वादेव त्वयेत्यादि, तथोक्तम् (भा० ११।४।१० ) - “त्वां सेवतां सुरकृताः”
उस विषय में वासना भाग्यधृत वचन यह है ।
“मुक्ता अपि प्रपद्यन्ते पुनः संसार वासनाम् ।
यद्यचिन्त्य महाशक्तौ भगवत्यपराधिनः ॥ " ३३६॥
जीवन्मुक्त महापुरुष वृन्द भी यदि अचिन्त्य महाशक्ति सम्पन्न भगवच्चरणों में अपराधी होते हैं, तो पुनर्वार कर्मराशिके द्वारा संसार बन्धन को प्राप्त करते हैं । अर्थात् पुनर्वार उन सब जीवन्मुक्त गण में संसार वासना की अनुवृत्ति होती है ।
अथवा जो लोक आप के प्रति वहिर्मुख होते हैं, अर्थात् अपको अनादर करते हैं, वे सुनिश्चित रूप से जीवन्मुक्त होने पर भी संसारी हो जाते हैं । किन्तु त्वदीय जनगण की उस प्रकार सुनिश्चित रूप से स्खलित होने की सम्भावना नहीं है । ज्ञानिगण के पक्ष में संसार में पतित होना निःसन्देह है, एवं उक्त भक्त वृन्द के पक्ष में पतित न होना भी निःसन्देह है । अतएव ज्ञानी एवं भक्त में निःसन्देहांश में समता है, अर्थात् भगवदवज्ञाकारी ज्ञानिगण में संसार वासना का उद्गम होगा हो । भक्त वृन्दका अपतन का कारण यह है कि आप के प्रति उनसब के सुहृद् भाव बद्धमूल है । यहाँ सुहृद् भाव शब्द से- श्रद्धामार्ग को ही जानना होगा। अर्थात् आप के प्रति भक्त वृन्द का सुदृढ़ विश्वास है । दृढ़ विश्वास में अवस्थित होने के कारण, इन सब को साधक जानना होगा । आप के प्रति उन सब के सुहृद् भाव विद्यमान होने के कारण ही आप उन सब की रक्षा सर्वतो भावेन करते हैं । भक्तगण प्रभु कर्तृक रक्षित होकर विघ्नगण के मस्तक में पदार्पण करके गमन करते हैं- उसका विवरण भा० ११।४।१० में है-
“त्वां सेवतां सुरकृता बहवोऽन्तरायाः स्वौको विलङ्घय परमं व्रजतां पदं ते । नान्यस्य वर्हिषि बलीन् ददतः स्वभागान्
धत्ते पदं त्वमविता यदि विघ्नमूनि ।”
मदन, मारुत, एवं देवबधू वृन्द, वदरिकाश्रम में श्रीनरनारायण का स्तव करके कहे थे हे प्रभो ! जो लोक—देवगण को यज्ञीय हविप्रदान करते हैं, उन के प्रति देव गण विघ्नाचरण नहीं करते हैं । किन्तु जो लोक, देवतान्तर का भजन न करके आप का भजन करते हैं, उनके प्रति देवगण विघ्नोत्पादन करते हैं। कारण, देवगण, मन में करते हैं कि- अधीन व्यक्ति गण, श्रीहरि भजन करके उत्तम गति को प्राप्त कर लेंगे । अतएव विघ्नोत्पादन करना आवश्यक है । किन्तु त्वदीय भक्तगण, आप के द्वारा रक्षित होकर विघ्न के मस्तकोपरि पद धारण करके आप के चरण कमल के समीप में उपनीत होते हैं । भगवद् भक्तगण, कभी भी विषयों के द्वारा अभिभूत नहीं होते हैं, उसका दृष्टान्त, भा० १११२।३४ में
“यानास्थाय नरो राजन् न प्रमाद्येत कर्हिचित् ।
धावत् निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह । "
श्री कवियोगीन्द्र निमिमहाराज को कहे थे- हे राजन् ! भागवत–धर्म में विश्वास करने पर नरमात्र
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इत्यादौ, (भा० ११२२३५) “धावन्निमीत्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेत्” इत्यादौ च ॥ ब्रह्मादयः श्रीभगवन्तम् ॥