२०७ ११८
श्रीव्यासोऽपि तन्महापुराणप्रचारणारम्भे भक्तिमेव परमश्रेयः प्रदत्वेन समाधावनु- भूतवानिति प्रथमसन्दर्भे दर्शितं ( भा० ११७ ४) " भक्तियोगेन मनसि" इत्यादि प्रकरणे । तथैव, (भा० ११।१६।३०) “को लाभः” इति प्रश्नानन्तरं स्वयं श्रीभगवतेव सम्मतम् (भा० ११।१६।४०)
(११८) “भगो मे” इत्यादौ, “लाभो मद्भक्तिरुत्तमः" इति ।
स्पष्टम् ॥ श्रीभगवान् ॥
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२०८ ११६
अतएव स्वगतं विचारयति स्म (भा० ११४१३१) -
(११६) “किंवा भागवता धर्मा न प्रायेण निरूपिताः ।
प्रियाः परमहंसानां त एव ह्यच्युतप्रिया ॥ ३२८ ॥
( ११७) त्वमप्यदभ्रश्रुत विश्रुतं विभोः समाप्यते येन विदां बुभुत्सितम् ।
प्रख्याहि दुःख हुद्दितात्मनां संक्लेशनिर्माण मुशन्ति नान्यथा ॥ ३२८॥
टीका - अतस्त्वमध्येवं कुवित्याह त्वमिति । अदभ्रम्-अनत्यं श्रुतं यस्य हे अदभ्रश्रुत, विभोविश्रुतं यशः प्रख्या हि–कथय । येन विश्रुतेन, बुद्धेन, विदां विदुषां बुभुस्तिं बोद्धुमिच्छा समाप्यते तत् । यतो दुःखैः पीड़िताना संक्लेशशान्तिं प्रकारान्तरेण न मन्यते ।
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हे अप्रतिहत विवेक। तुम भी श्रीभगवान् के विमल यशः का वर्णन करो, जिस भगवद् स्वरूप का अनुभव करने से विज्ञ जनों की बलवती तत्त्व जिज्ञासा समाप्ति हो जाती है । अर्थात् जव तक श्रीभगवत् कथा रस का आस्वादन नहीं होता है, तब तक रसमय श्रीभगवान् का विमल आस्वादन किया नहीं जा सकता है । श्रीभगवत् कथा कीर्तन से भूरि भूरि दुःख से प्रपीड़ित मानवों की क्लेश शान्ति होती है, अपर किसी भी उपाय से शान्ति लाभ को सम्भावना नहीं है । श्लोकस्थ विदां शब्द से ‘विदुषाम्’ अर्थ जानना होगा । श्रीनारद श्रीव्यास को कहे थे ।११७ ॥
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श्रीव्यास ने भी श्रीमद् भागवत महापुराण प्रचार के आरम्भ में प्रेम भक्ति समाधि के द्वारा परम मङ्गल प्रद रूप में भक्ति का ही अनुभव किये थे । तत्त्व सन्दर्भ में “भक्ति योगेन मनसि सम्यक् प्रणिहितेऽमले” प्रभृति श्लोकों के द्वारा उसको दर्शाया गया है । उस प्रकार ही भा० ११।१६।३० में “को लाभः” इस प्रश्न के उत्तर में श्रीभगवान् ने भा० ११।१६।४० में
(११८) “भगो मे ऐश्वरो भावो लाभो तद्भक्ति रुत्तमः”
द्वारा कहा है । अर्थात् हे उद्धव ! मेरे ऐश्वय्यादि षाड़ गुप्य हो परम भाग्य है । एवं मदीय चरणों में भक्ति लाभ ही उत्तम लाभ है। इस प्रकार निज सम्मत भक्ति को ही परम लाभ शब्द से उल्लेख किये
प्रकरण प्रवक्ता श्रीभगवान् हैं - ॥११८ ॥
हैं ।