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अन्ते च (भा० १।५।४०)–
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(११७) " त्वमप्यदभ्रश्रुत विश्रुतं विभोः, समाप्यते येन विदां बुभुत्सितम् ।
श्रीभागवतं वर्णय । नतु भक्ति रस विधातेन केवलं तत्त्वमित्यर्थः 1
हे वत्स ! तुम जगत् को श्रीमद् भागवत के मम्मार्थ का जो उपदेश करोगे, उस में अखिलाधार सर्वात्मा भगवान् श्रीहरि में जिस से मानव मात्र में भक्तच दय हो, इस प्रकार सङ्कल्प, अर्थात् उस के अनुरूप नियमों को अङ्गीकार करके उपदेश करो। भक्ति भविष्यति-शब्द का अर्थ, भक्ति अवश्य हो, इति इस प्रकार रीति को सङ्कल्प्य – अवलम्बन करके ही वर्णन करो ।
श्रीब्रह्मा नारद को कहे थे ॥ ११५ ॥
२०५ ११६
श्रीब्रह्मा, श्रीनारद को जिस प्रकार सङ्कल्प कराये थे । श्रीनारद ने भी श्रीवेदव्यास के हृदय में उस प्रकार श्रीमद् भागवत आविर्भाव कराने के निमित्त उपदेश किये थे । उस का वर्णन १।५।१३ में है-
(११६) “अथो महाभाग भवानमोघदृक्, शुचिश्रवाः सत्यरतो धृतव्रतः ।
उरुक्रमस्याखिल बन्धमुक्तये, समाधिनानुस्मर तद्विचेष्टितम् ॥ ३२७॥
टीक - तदेव भक्ति शून्यानि ज्ञान-वाक् चातुर्य्यं कर्मकौशलानि व्यर्थान्येव, यतः, अतो हरेश्वरित- मेवानुवर्णयेत्याह अथो-इति । अथो अतः कारणात्,
अथो अतः कारणात्, अमोघा यथार्था दृक् धीर्यस्य । शुचि शुद्धं श्रवो यशो यस्य, सत्ये रतः । धृतानि व्रतानि येन । स भवान् एवं महा गुणस्तावत्, अथ उरुक्रमस्य विविधं चेष्टितं लीलां समाधिना चित्तैकाग्रय ेण अखिलस्य बन्धस्य मुक्तये त्वमनुस्मर–स्मृत्वा वर्णयेत्यर्थः । एतच्च वाक्यान्तरमिति मध्यम पुरुष प्रयोगोनानुपपन्नः ।
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देवर्षि नारद ने कृष्ण द्वैपायन को कहा- मुनिवर ! भक्ति शून्य ज्ञान, वाक् चातुर्य्य, कर्म कौशल प्रभृति सब ही विफल हैं, मैंने सयुक्ति उसका वर्णन आप के समक्ष में किया है । अतएव श्रीहरि चरित्र का वर्णन निरन्तर करो । कारण, आप–अमोघदृष्टि, पवित्रयशाः सत्यभिरत, एवं घृत व्रत यह सब महागुण सम्पन्न हैं । अतएव उरुक्रम श्रीभगवान् की विविध लीला का स्मरण एकाग्र चित्त से करके अखिल जीवों के माया बन्धन मुक्त हेतु वर्णन करो ॥ ३२७॥
श्लोकस्थ ‘अथ’ शब्द का अर्थ - अतः अतएव है । अर्थात् भा० ११५।१२ में वर्णित
“नैष्कर्म्यमप्यच्युत भाव वज्जितम् "
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कारण, उल्लेखित होने के कारण श्रीहरि कथा वर्णन ही मानव मात्र का अवश्य कर्त्तव्य है । इस श्लोक में श्रीहरि की विविध लीला का निरन्तर स्मरण करने की कथा उपदिष्ट होने के कारण - अखण्डा भक्ति लक्षित हुई है ॥ ११६॥
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श्रीनारद कृत उपदेश के अन्त में (भा० ११५।४०) में वर्णित है-
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प्रख्याहि दुःखैर्मु हुद्दितात्मनां संक्लेश निव्र्वाणमुशन्ति नान्यथा ॥ ३२८ ॥
विदां विदुषाम् ॥ श्रीनारदः श्रीव्यासम् ॥
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