११४

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तदेवमवान्तरतात्पर्येण भक्तेरेवाभिधेयत्वं षड् विधैरपि लिङ्गेरवगम्यते ।

ध्यायेच्चिरं भगवतश्चरणारविन्दम् ॥"

टीका- किञ्च यस्य शौचेन क्षालनेन न सृतायाः सरित् प्रबराया गङ्गाया उदकेन तीर्थेन संसार तारकेण मूद्धिन अधिकृतेन धृतेन शिवोऽपि शिवोऽभूत् अत्यधिकं सुखं प्रापेत्यर्थः । ध्यातुर्मनसि यः शमल शैलः पापपर्वतः तस्मिन् निसृष्टं क्षिप्तं वज्रमिव यत् । यद्वा शमलशैले निसृष्ट स्वलाञ्छनरूपं वज्रयेन तत् ।

शिव, जिनके चरण प्रक्षालन से निःसृत परम पवित्र सरित् प्रवर गङ्गा जल को मस्तक में धारण करके शिव नाम से अभिहित हुये हैं, अर्थात् स्वयं सुखी होकर अपर को सुखी करने की क्षमता को प्राप्त किये हैं, उन भगवान् के चरण युगल का ध्यान निरन्तर करना चाहिये, कारण, उक्त चरण युगल ही पाप पर्वत को विचूर्ण करने के निमित्त वज्ररूप हैं। इस से प्रतिपन्न होता है कि विशुद्ध स्वरूप होकर भी श्रीभगवद् भक्ति करते हैं । अतएव भक्ति का महानित्यत्व निबन्धन अभिधेयत्व–अर्थात् अवश्य कर्त्तव्यत्व प्रदर्शित हुआ । अग्रिम ग्रन्थ भा० १०८७ २० में भी उक्त है-

“स्वकृत पुरेष्वमीष्ववहिरन्तर संवरणं

तव पुरुषं वदन्त्यखिल शक्ति धृतोऽशकृतम् । 10

इति नृगति विविच्य कवयो निगमावपनं

भवत उपासतेऽङ् घ्रिमभवं भुवि विश्वसिताः ॥”

टीका-अपि च कुतो नियमाशङ्का स्यात्, भगवतो देहाद्युपाधि कृतदोष प्रसङ्ग इति यतोऽविद्याकाम कर्मभिः संसरतो जीवस्यापि भगवद् भाव लक्षणय बोधयन्त्यस्तं दोषं निषेधयन्ति । स यश्चायं पुरुषे यश्चासावादित्ये स एकस्तत्वमसीत्याद्याः श्रुतया । ननु कृत्वर्थस्यात्मनः स्तुतिरियम् ईश्वरत्वेन क्रियते न तु तस्येश्वरत्वं बोध्यते । नैतद् युज्यते । यतस्तत्र यस्य देवे पराभक्ति र्यथादेवे तथा गुरौ । तस्येतं कथिताह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मन इत्य द्याः श्रुतयः कृतावतारस्य भगवत श्चरण भजनमुपायं वदन्तीत्याह स्वकृत पूरेष्विति । स्वकर्मोपार्जितेषु पुरेषु देहेष्वमीषु नरादिषु भोक्तृत्वेन वर्त्तमानं पुरुषम्, अखिल शक्तिधृतः सर्वशक्तचा- श्रमस्य पूर्णस्य तवांशकृतं वदन्ति । अंग ज्ञवांशः कृत इव कृतः । त्वद्रूपं वदन्तीत्यर्थः । ननु कार्य्यं कारण संवृतस्य कुत एवम्भूतत्वं तत्राह-अवहिरन्तर संवरण मिति । वहिः कार्थ्यम् अन्तरं कारणम् वस्तुतस्तदावरण शून्यम्, तयोरसत्त्वादित्यर्थः । इत्येवं नृर्गात नु र्जीवस्य गति तत्त्वं विविच्य विशोध्य कवयो ऽन्यथेदं न प्राप्यत इति जानन्तो निगमावणनं निगमोक्तकर्मणामावपनम् । आ समन्तात् उपान्तेऽस्मिन्नित्यावपनं क्षेत्रं सर्वार्पण विषयमित्यर्थः । यत्रापितानि कर्माणि मुक्तिफलं फलन्ति, तं भगवतोऽङ्घ्रिम्, अभवं भवनिवर्त्तकं, विश्वसिताः, कृतविश्वासा

उपासते - अचर्च त वन्दनादिभिः सेवन्ते । भुवीति- मर्त्यलोके इदमेवोचितमितिदर्शयति ॥

त्वदंशस्य ममेशन त्वन्मायाकृतबन्धनम् ।

त्वद‌ङ्घ्रिसेवामादिश्य परानन्द निवर्त्तय ।

इस श्लोक में जीव मात्र की जो स्वभाव सिद्धा भगवत् सेवा है, उस का प्रदर्शन आगे होगा ।

श्री कपिलदेव कहे थे ।

[[२०८]]

भीभक्तिसन्दर्भः तत्रोपक्रमोपसंहारयोरेकत्वेन यथा ( भा० १।१।१) “जन्माद्यस्य यतः” इत्यादावुपक्रम-पद्य “सत्यं परं धीमहि” इति । अत्र श्रीगीतासु (१२।१) “एवं सन्तयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते " इत्यादौ श्रीभगवत्येव ध्यानस्याकष्टार्थत्वेन तद्धयानिनो युक्ततमत्वेन चोक्तत्वात् ( गी० ७।७) “मत्तः परतरं नान्यत् किचित्, इत्यादौ, ( गी० १४।२७) “ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठा हम्” इत्यादौ परत्वस्य श्रीभगवद्रूप एव पर्य्यवसानात्, तस्यैव सर्व्वज्ञत्व सर्व्वशक्तित्वाभ्यां जगज्जन्मादि- हेतुत्वात्तत्र श्रीभगवत्येव ध्यानमभिधीयते । तथैव हि तत् पद्य (१०४ अनु०) परमात्मसन्दर्भ

२०० ११४

उक्त रोति से श्रीमद् भागवत् का अभिधेयत्व भक्ति ही है, इस का बोध, अवान्तर तात् पर्थ्य से एवं उपक्रम उपसंहार, अभ्यास, अपूर्व फल, अर्थ बाद, उपपत्ति रूप षड़ बिध लिङ्ग के द्वारा होता है । उस के मध्य में उपक्रमोपसंहार का एकत्व हेतु श्रीमद् भागवत के उपक्रम एवं उपसंहार में एक ही अभिधेयत्व वर्णित है, अर्थात् एक ही भगवान् का ध्यान करने की सामर्थ्य लाभ हेतु प्रार्थना जिस प्रकार उपक्रम श्लोक में है, उस प्रकार उपसंहार श्लोक में भी है । “जन्माद्यस्य यतः” इत्यादि उपक्रम श्लोक में “सत्यं परं धीमहि” के द्वारा भगवान् का ध्यान करने की योग्यता प्रार्थना की गई है। ध्यान के सम्बन्ध में श्रीभगवद् गीता १२।१ में उक्त है - " एवं सततयुक्ता ये भक्तस्त्वां पर्युपासते " हे भगवन् । इस प्रकार सतत अभियुक्त चित्त से जो सब भक्त तुम्हारी उपासना करते हैं. और जो लोक तुम्हारे अव्यक्त निर्विशेष ब्रह्म स्वरूप की उपासना करते हैं, इन सबों के मध्य में योगवित्तन कौन हैं ? अर्थात् उभयविध योगी के मध्य में श्रेष्ठ कौन हैं ? इत्यादि श्लोक में कथित है कि—जो लोक श्रीभगवान् का ध्यान करते हैं, उनको क्लेश प्राप्त करना नहीं पड़ता है। इस प्रकार कथन से श्रीभगवद्ध्य न का सुख साध्यत्व प्रदर्शित हुआ है । भगवद् गीता ७७ में उक्त है, “मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनञ्जय एवं १४।२७ में उक्त है- ब्रह्मणोहि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ॥” एवं “सततयुक्ताः” प्रश्न के उत्तर में श्रीभगवान् कहे थे, हे अर्जुन ! जो भक्त मुझ में आविष्टमनाः एवं नित्याभि युक्त होकर परम श्रद्धान्वित हृदय से मेरी उपासना करते हैं, मैं उनको युक्ततम मानता हूँ । इस प्रकार भगवदुक्ति से सुव्यक्त हुआ है कि भगवत् स्वरूप ध्यान कारी व्यक्ति ही युक्ततम हैं, अतः “सत्यं परं धीमहि" पद व्याख्या में भगवद्ध्यान की योगता प्रार्थना की गई है। इस प्रकार समझना चाहिये ।

“ब्रह्मणोहि प्रतिष्ठाहं” श्लोक में कहा गया है-मैं अमृत अव्यय ब्रह्म की प्रतिष्ठा हूँ, अर्थात् परमानन्द धनीभूत श्रीविग्रह हूँ । आश्रय हूँ । निविशेष ब्रह्मानन्दरस हो, अघटन घटन पटीयसी चिन्मयी योगमाया शक्ति की वैचित्र्य से भगवद्र ूप में अभिव्यक्त होता है। इस उक्ति में “पर तत्त्व" का अर्थात् पारमार्थिक श्रेष्ठतत्वका पर्यवसान श्रीभगवद्र प में है, तज्जन्य सविग्रह श्रीभगवान् ही अन्य निरपेक्ष परतत्त्व है, व्यक्त हुआ है । सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तियुक्त होने के कारण श्रीभगवान् हो जगत् के जन्म स्थिति नाश के हेतु हैं, तज्जन्य “सत्यं परं धीमहि” वाक्यस्थ पर शब्द से श्रीभगवान् ही अभिहित हुए हैं। एवं उक्त भगवद्- ध्यान की प्रार्थना की गइ है । इस उपक्रम वाक्य में भी भक्ति का ध्यानाङ्ग रूप अभिधेयत्व वर्णित हुआ है । परमात्म सन्दर्भ में “जन्माद्यस्य” श्लोक की विस्तृत व्याख्या है, जिस में उक्त श्लोक का तात्पर्य श्रीभगवान् में ही पर्य्यवसित हुआ है ।

भा० १२ १३ १४ में उक्त है-

FOR DE

“कस्मैयेन विभासितोऽयमतुलोज्ञानप्रदीपः पुरा, तद्रूपेण च नारदाय मुनये कृष्णाय तद्रू पिणा

[[२०६]]

विवृतमस्ति । (भा० १२।१३।११) “कस्मै येन विभासितोऽयमतुलो ज्ञानप्रदीपः पुरा” इत्यादा- वुपसंहार पद्य ेऽपि “सत्यं परं धीमहि” इति । अतएव स्पष्टमेवास्य श्रीभगवत्त्वम्, श्रीभागवत- वक्तृत्वात् पूर्व्वञ्च (भा० १।१।१) “तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये” इत्युक्तम् अभ्यासेनोदाहरणं, पूर्व्वं दर्शितमदर्शितं चानेकविधमेव, अपूर्व्वतया फलेन च दर्शितं श्रीव्यास. समाधी (भा० १।७।६

योगीन्द्राय तदात्मनाथभगवद्राताय कारुण्यत

स्तच्छ ुद्धं विमलं विशोकममृतं सत्यं परं धीमहि ॥ "

क्रमसन्दर्भ - " वस्वद्वितीयं तन्निष्ठम्” इति सामान्यत स्तात्पर्यं दर्शयित्वा भा० १।१।२ “जन्माद्यस्य " इत्याद्युपक्रम पोषकं श्रीभगवत्येव तस्य पर्यवसानं दर्शयन्नुपसंहरति-कस्मा इति । कस्मै ब्रह्मणे, महावैकुष्ठं दर्शयता श्रीभगवता येन विभाषितः प्रकाशितः, नतु तदा विरचितोऽयं श्रीमद्भागवत रूपः । पुरा- पूर्व परार्द्धादौ, तदात्मनेत्यत्स्योत्तरेणान्वयः । तत्र तदात्मना श्रीशुकरूपेणेति गम्यम् । ‘तद्र पेण च’ इत्यादिभिस्त्रिभिः पदै र्न केवलं चतुःश्लोक्येव ते न प्रकाशिता, अपितु, तत तत्राविष्टेन अखण्डमेवेदं पुराणमिति द्योतितम् । श्रीसङ्कर्षण सम्प्रदाय प्रवृत्तिस्तु, श्रीकृष्ण द्वैपायन कर्त्तृक प्रकाशनान्तर्गतमेवेति पृथङ्नोक्ता । तत् परं सत्यं भगवदाख्यं तत्त्वं धीमहि, ‘यत्तत् पदमनुत्तमम्’ इति सहस्रनामस्तोत्रे तच्छब्दस्य तन्नामत्वेन गणितत्वात् । परं शब्देन च श्रीभगवानेवोच्यते । आद्योवतारः पुरुष परस्य” इति द्वितीय त् । ब्रह्मादीनां बुद्धि वृत्ति प्रेरकत्वेनाभिधानाद् गायत्र्यर्थोपलक्षितेन धीमहीति गायत्त्री पदेनोपसंहारः ॥

के

इत्यादि उपसंहार श्लोक में भी ‘जन्माद्य’ इत्यादि उपक्रम श्लोक के समान ‘सत्यं परं धीमहि अविकृत एक ही पद का उल्लेख हुआ है । अतएव ‘सत्यं परं धीमहि’ वाक्यस्थ ‘पर’ शब्द का वाच्य श्रीभगवान् हैं । कारण, श्रीभगवान् ही श्रीमद् भागवत ग्रन्थ वक्ता हैं। संक्षेप में उन्होंने ही श्रीभद् भागवत मुख्य प्रतिपाद्य परम गुह्य भगवज् ज्ञान, भगवदनुभव, भगवत् प्रेम एवं भगवत् प्रेम प्राप्ति का अव्यभिचारी उपाय साधन भक्ति इन चार तत्वों का उपदेश श्रीब्रह्मा को किया था । उपक्रम श्लोक में जिस प्रकार “तेने ब्रह्महृदा य आदिकवये” अर्थात् जिन्होंने ब्रह्मा के हृदय में सृष्टि के प्राक् काल में वेदार्थ तात्पर्य का प्रकाश किया था, इस प्रकार उल्लेख है, उस प्रकार उपसंहार वाक्य में भी “कस्मैयेन विभाषितोऽयमतुलो ज्ञान प्रदीपः पुरा” अर्थात् जिन्होंने ब्रह्मा के समीप में साध्य साधनादि तत्त्व ज्ञान का प्रदीप स्वरूप श्रीभागवताख्य शास्त्र उपदेश किया, उन सत्यरूप ‘पर’ अर्थात् भगवान् का ध्यान करने की योग्यता प्रार्थना करता हूँ। इस प्रकार उपक्रम एवं उपसंहार वाक्य के द्वारा श्रीमद् भागवत का तात्पर्य श्रीभगवान् के ध्यान में पर्य्यवसित हुआ है ।

शास्त्र तात्पर्य्य निर्णय हेतु षड् विध लक्षण विहित हैं । अर्थात् शास्त्र में प्रसङ्ग क्रम से विविध विषय वर्णित होते हैं, किन्तु शास्त्र का मुख्य प्रतिपाद्य विषय क्या है, इस को अवगत होने के निमित्त उपक्रम उपसंहार, अभ्यास (पुनः पुनः उल्लेख) अपूर्व, फल, अर्थवाद, उपपत्ति (युक्ति) ये छै लक्षणों को अवलम्बन करना पड़ता है। श्रीमद् भागवत के उपक्रम एवं उपसंहार वाक्य में जिस प्रकार श्रीभगवद् ध्यान की प्रार्थना की गई है, उस प्रकार अभ्यास- अर्थात् एक ही विषय का पुनः पुनः उल्लेख के द्वारा भगवद् भक्ति का अवश्य कर्त्तव्यतारूप अभिधेयत्व प्रदर्शित हुआ है। इस का प्रदर्शन पूर्व ग्रन्थ में हुआ है । एवं प्रस्तुत सन्दर्भ में अनुल्लिखित रूप में भी श्रीमद् भागवत में अनेक प्रकार उल्लेख हैं । अपूर्व एवं फल का प्रदर्शन श्रीव्यास समाधिस्थ भा० ११७/६

में है—

भी

“अनर्थोपशमं साक्षाद् भक्ति योगमधोक्षजे ।

[[२१०]]

“अनर्थोपशमं साक्षात्” इत्यादि, प्रशंसालक्षणेनार्थवादेन चाभ्यास बहुविधमेव तत्र तत्रास्ति, उपपत्तया च (भा० ११।२।३७ ) “भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्तात्” इत्याद्यनेकमिति । अत्र गतिसामान्ये च ( भा० ११५।२२) - “इदं हि पुंसस्तपसः श्रुतस्य वा” इत्यादि तथाह (भा०३।५।१२)

लोकस्याजानतो विद्व इचक्र सात्वतसंहिताम् ।"

टीका - अनर्थमुपशमयति-योऽधोक्षजे साक्षाद् भक्ति योगः, तञ्चापश्यत् । एतत् सर्वं स्वयं दृष्ट वा एवमजानतो लोकस्यार्थे सात्वतसंहितां श्रीभगवताख्यां चक े । तदनेन श्लोकत्रयेण श्रीभागवतार्थः संक्षेपेण दर्शितः । एतदुक्त’ भवति - विद्याशतया माया नियन्ता नित्याविभूति परमानन्द स्वरूपः सर्वज्ञः सर्वशक्तिरीश्वरः, तन्मायया सम्मोहित स्तिरोभूत स्वरूपस्तद्विपरीत धर्मा जीवः, तस्यचेश्वरस्य भक्त या लब्धज्ञानेन मोक्ष इति । तदुक्तं विष्णुस्वामिना ह्लादिन्या संविदाश्लिष्टः सच्चिदानन्द ईश्वरः स्वाविद्या संवृतोजीवः संक्लेश निकराकरः । तथा-स ईशो यद्वशे माया स जीवो यस्तयादितः । स्वाविभूतिपरानन्दः स्वाविर्भूतसुखदुःख भूः स्वाद्गुत्थ विपर्थ्यास भवभेदजभीशुचः । यन्मायया जुषन्नास्ते तमिमं नृहरि नुमः । इत्यादि ।

REP

साक्षात् भक्ति योग के द्वारा ही अनर्थ की निवृत्ति होती है । अधोक्षज श्रीभगवान् में उस प्रकार साक्षात् भक्ति योग का दर्शन भी श्रीव्यास देव किये थे । इस से भक्ति योग के द्वारा निखिल अनर्थ निवृत्ति रूप अपूर्व, एवं फल का प्रदर्शन हुआ । श्रीमद् भागवत में प्रशंसा लक्षण अर्थ वाद के द्वारा भी अभ्यास के समान भक्तियोग की प्रशंसा विविध रूप से उल्लिखित है । उपपत्ति अर्थात् युक्ति के द्वारा भी प्रदर्शित हुआ है कि - भगवद् भक्ति के विना, अपर किसी भी उपाय से जीव का मायापसारण एवं स्वरूप ज्ञान नहीं हो सकता है । भा० ११।२।३७ में उसका वर्णन है ।

PE

“भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्या दीशा पेतस्य विपर्य्ययोऽस्मृतिः । तन्माययातो बुध आ भजेत् तं

भक्त कयेशं गुरुदेवतात्मा ।”

FISTPE

T

टीका - ननु किमेवं परमेश्वर भजनेन । अज्ञान कल्पित भयस्य ज्ञानैक निवर्त्यत्वादित्याशङ्कयाह- च यमिति । यतो भयं तन्माययाभवेत् अतो बुधो बुद्धिमानं स्तमेव आभजेत् । ननु भयं देहाद्यनिभिवेशतो भवति सच देहाहङ्कारतः सच स्वरूपास्मरणात् । किमत्र तस्य माया करोति- अत आह ईशादपेतस्येति । ईश विमुखस्य तन्मायया अमृतिर्भगवतः स्वरूपास्फूति स्ततो विपय्ययो देहोऽस्मीति ततो द्वितीयाभि निवेशाद् भयं भवति । एवं हि प्रसिद्धं लौकिकीष्वपि मायासु । उक्तञ्च भगवता, देवी ह्यषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते इति एकया अव्यभिचारिण्या भक्तया भजेत् । किञ्च गुरुदेवतात्मा - गुरुदेव देवता ईश्वर आत्मा प्रेष्ठश्च यस्य तथा दृष्टिः सन्नित्यर्थः ।

श्रीमद् भागवत के (१।१५।२२) में गति सामान्य के द्वारा भी अर्थात् निखिल साधनों का फल रूप में भी भगवद् भक्ति की ही अवश्य कर्त्तव्यता प्रदर्शित हुई है।

“इदं हि पुंस स्तपसः श्रुतस्य वा स्विष्टस्य सूक्तस्य च बुद्धदत्तयोः ।

अविच्युतोऽर्थः कविभिनिरूपितो यदुत्तमः श्लोक गुण नु वर्णनम् ॥

टीका- “अनेनैव तप आदि सर्वं तव सफलं स्यादित्याह इदमिति । श्रुतादयो भावे निष्ठा । इदमेव हि तपः श्रवणादेरविच्युतो नित्यः अर्थ फलम् । किं तत् ? उत्तमश्लोकस्य गुणानु वर्णनमिति यत् ॥”

(११४) “मुनिविवक्षुर्भगवद्गुणानां सखापि ते भारतमाह कृष्णः” इत्यादि । स्पष्टम् ॥ श्रीविदुरः ॥

[[२११]]