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प्रेमकृत–कर्माशयनिर्धु ननानन्तरमपि भक्तिः श्रूयते (भा० ११ १४/२५ ) -

(११२) “यथाग्निना हेम मलं जहाति, ध्म तं पुनः स्वं भजते च रूपम् । 1557 आत्मा च कर्मानुशयं विधूय, मद्भक्तियोगेन भजत्यथो माम् ॥” २६२ ।

वे सब ज्ञानाग्नि दग्ध कर्मा होने पर भी ब्रह्म राक्षस होते हैं । अतएव भा० ३।६१४ में उक्त है-

" तद्वा इदं भुवन मङ्गल मङ्गलाय

ध्याने स्म नो दरशितं त उपासकानाम् ।

तस्मै नमो भगवतेऽनुविधेम तुभ्यं

योऽनादृतो नरकभाग्भिरसत् प्रसङ्गः ॥”

(FPP)

टीका - नन्वेवमपि सोपाधिकमेतदर्वाचीनमेवेत्याशङ्कयाह - तद्वै तेदेवेदम् । हे भुवन मङ्गल ! यतस्ते त्वया नोऽस्माकमुपासकानां मङ्गलाय ध्याने दर्शितम् । नहि अव्यक्त वर्माभिनिवेशित चित्तानामस्माकं त्वया सोपाधिक दर्शनं दातुं युक्त मिति भावः । अतस्तुभ्यं नमोऽनुविधेम अनुवृत्ता करवाम । तहि किमिति के चिन्मां नाद्रियन्ते ? तत्राह योऽनादृत इति । असत् प्रसङ्गे निरीश्वर कुतर्क निष्ठुः ॥

तुम, असत् प्रसङ्ग कारो नरक गामी वृन्द के द्वारा अनादृत होते रहते हो, इस सेप्रतिपन्न हुआ है कि- जो लोक - श्रीभगवान् को अनादर करते हैं, वे सब नारकी हैं । अतएव भा० ११।१६।५ में उक्त है-

‘तस्माज्ज्ञानेन सहितं ज्ञात्वा स्वात्मानमुद्धव ।

ज्ञानविज्ञानसम्पन्नो भज मां भक्तिभावितः ॥ " २६१॥

टीका - उपसंहरति । ज्ञानेनसहितं तत्पर्य्यन्तं यथा भवति तथा ज्ञात्वा तत् सम्पन्नः सन् मामेव भज अन्यत् सर्वं त्यजेत्यर्थः ॥

हे उद्धव ! अपर किसी प्रकार पवित्र अनुष्ठान से चित्त विशुद्ध नहीं हो सकता है, जीव का कृष्ण दासत्व अभिमान होने से एवं अनुभव होने से भक्ति साधन में जिस प्रकार आदर एवं आवेश होता है, उस प्रकार किसी भी पवित्र साधनके द्वारा भक्ति में आवंश तथा उसके प्रति आदर उपस्थित नहीं होता है । अतएव भक्ति अविरुद्ध ज्ञान का वैशिष्टय है, अतः शास्त्रार्थ विचार के द्वारा जीव का यथार्थ स्वरूप, भगवद् दासत्व पर्य्यन्त अनुभव करके जोव स्वरूप ज्ञान, एवं अनुभव सम्पन्न होकर भक्ति भाव से मेरा भजन करो, एवं अन्य समुदय आवेश को परित्याग करो ।

इस प्रकार ज्ञानी साधक के गया है । अतएव समस्त श्रेणी के निर्णय

हुआ ।

पक्ष में भी श्रीहरि में भक्ति करना अवश्य कर्त्तव्य है, उस को दर्शाया साधकों के पक्ष में श्रीहरिभक्ति अतिशयरूपेण आचरणीय है- यह ही

देवतावृन्द - श्रीभगवान् को कहे थे ॥ १११ ॥