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अतएव तत्तन्मार्गसिद्धानां मुनीनामप्यनादरः (भा० ३॥१०) - (११०) “अयापृतार्त्तकरणा निशि निःशयाना, नानामनोरथधिया क्षणभग्न निद्राः ।
दैवाहतार्थ - रचना मुनयोऽपि देव, युष्मत्प्रसङ्गः विमुखा इह संसरन्ति ॥ " २७३। अति व्यापृतेत्यादि, युष्मद्भजनविमुखाः संसारिणो भवन्ति, किं बहुना ? तत्तन्मार्गसिद्धा मुनयोऽपि युष्मत् प्रसङ्गविमुखाश्चेत् इह जगति तद्वदेव संसरन्ति, अथवा मुनयोऽपि
मूल श्लोकस्थित अकिञ्चन शब्द का अर्थ- निष्काम है । गुण एवं वैराग्य के सहित शिव, ब्रह्मा प्रभृति देवगण उक्त भक्त में नित्यवास करते रहते हैं ।
प्रह्लाद श्रीनृसिंहदेव को कहें थे ॥ १०६ ॥
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अतएव ज्ञानादि मार्ग में सिद्ध मुनिवृन्द भी यदि भक्ति विमुख होते हैं तो उन सब मुनिवृन्द के प्रति अनादर प्रकाश कर भा० ३।६।१० में ब्रह्मा श्रीगर्भोदशायी भगवान् को कहे थे ।
(११०) “अह्नापृतार्त्तकरणा निशि निःशयाना,
नानामनोरथधिया क्षणभग्ननिद्राः ।
देवाहतार्थ - रचना मुनयोऽपि देव,
युष्मत् प्रसङ्गविमुखा इह संसरन्ति ॥ " २७३॥
टीका - ननु भवत्येवमविवेकिनां, विवेकिनस्तु मुक्ता एवेति कि तेषां भक्तया कृत्यम्, अत आह । अह्नि आपूतानि - व्याप्ततानि च तान्यार्त्तानि विलष्टानि करणानीन्द्रियाणि येषाम् । रात्रौ विषय सुख लवोऽपि नास्ति, यतो निःशयानाः, स्वप्नदर्शनेन च क्षणे क्षणे भग्ननिद्राः । दैवेनाहताः, सर्वतः प्रतिहताः, अर्थानां रचना अर्थार्थोद्यमा येषाम् ॥ ११० ॥
हे प्रभो ! भक्ति होन अविवेकी जन वृन्द का संसार दुःख तो निवृत्त होता ही नहीं विवेकी जन गण भी यदि तुम्हारे प्रति भक्ति नहीं करते हैं तो, उस दोष से उन सब में संसार दुःख उपस्थित होता रहता है । तुम्हारी एवं तुम्हारे भक्त वृन्द की चरित कथा में विमुख जो ऋषि गण हैं, वे सब दिवस में विभिन्न कार्य करते रहते हैं । एवं उपवासादि के द्वारा इन्द्रिय वृन्द को क्लिष्ट करते रहते हैं। रात्रि में निद्रित होने पर भी विभिन्न सङ्कल्पात्मक चित्त विक्षेप से क्षण क्षण में निद्रा भङ्ग हो जाती है। अतएव दिवस अथवा रजनी के मध्य में किसी प्रकार ऐन्द्रियक सुख लाभ नहीं होता है। दुरदृष्ट के कारण, अर्थ प्राप्त हेतु विभिन्न उद्योग भी विफल होते हैं। अर्थात् दिवस में विभिन्न कार्यों में व्यस्त रहते हैं, उपवासादि के द्वारा इन्द्रिय वृन्दको क्लिष्ट करते हैं । हे भगवन् । उक्त ऋषि गण यदि आपके एवं आपके भक्त वृन्दके भजन विमुख होते हैं तो वे सब संसार दशा को प्राप्त करते हैं। अधिक कहना ही क्या है ? उस उस साधन मार्ग में सिद्ध मुनि वृन्द भी यदि भगवत् प्रसङ्ग विमुख होते हैं। तो, वे सब, साधारण जन के समान संसार को प्राप्त करते हैं ।
अथवा, मुनि वृन्द यदि भगवत् प्रसङ्गः विमुख होते हैं तो, उनको संसार होता है । उक्त मुनिवृन्द किस प्रकार अवस्था को प्राप्त करते हैं-उसका वर्णन करते हैं-दिवस में विविध कार्य करते रहते हैं । एवं उपासनादि के द्वारा इन्द्रिय वर्ग को क्लिष्ट करते हैं । अतएब वे सब विषय सुख एवं पारमार्थिक आनन्द से वञ्चित रहते हैं । भा० १०।२।३२ में लिखित है-
“येऽन्ये ऽरविन्दाक्ष विमुक्त मानिनः स्त्वय्यस्तभावादविशुद्धबुद्धयः ।
[[१६४]] तद्विमुखाश्चेर्त्तार्ह संसरन्त्येव । कथम्भूताः सन्तः संसरन्ति ? तवाह-अयापृतेत्यादि, (भा० १०१२।३२) “आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदम्” इत्यादेः । अत उक्तं श्रीधर्मेण ( भा० ६ । ३ । १६ । २२
“धर्म्मन्तु साक्षाद्भगवत् प्रणीतं, न वै विदुॠषयो नापि देवाः ।
न सिद्धमुख्या असुरा मनुष्याः, कुतो तु विद्याधर- चारणादयः ॥ २७४॥
स्वयम्भूर्नारदः शम्भुः कुमारः कपिलो मनुः ।
I
प्रह्लादो जनको भीष्मो बलिवैयासकिर्वयम् ॥ २७५॥ द्वादशैते विजानीमो धम्मं भागवतं भटाः ।
गुह्यं विशुद्ध दुर्बोधं यं ज्ञात्वामृतमश्नुते ॥ १७६॥
एतावानेव लोकेऽस्मिन् पुंसां धर्मः परः स्मृतः ॥ " २७७॥ इत्यादि ।
आरुह्य कृच्छ्रेन परं पदं ततः पतन्त्यधोऽनादृत युष्मदयः ॥ "
।
टीका - ननु विवेकिनां किं मद् भजनेन ? मुक्ता एव हि ते, तत्राहुः । येऽन्ये इति । विमुक्त मानिनो विमुक्ता वयमिति मन्यमानाः । त्वयि अस्तो निरस्तो अतएवासन् जो भावस्तस्मात् भक्तो रभावादित्यर्थः । न विशुद्धा बुद्धिर्येषां ते तथा । यद्वा त्वयि अस्तभाः इतिच्छेदः । अस्त मतयो वादेष्वेव विशुद्ध बुद्धयः । कृच्छ्रेण बहुजन्म तपसा परं पदं मोक्ष सन्निहितं सत् कुलतपः श्रुतादि । पतन्ति विघ्नैरभिभूयन्ते न वृतौ युष्मदङ्घ्री यैस्ते ।
अ
हे कमल लोचन ! जो लोक भक्ति हीन होकर निज को स्थूल सूक्ष्म देह से विमुक्त हैं, इस प्रकार अभिमान करते हैं, आप के चरणारविन्द में उनकी भक्ति न होने के कारण चित्त शुद्धि नहीं होती है, अर्थात् ऐहिक पारत्रिक सुख योग में वितृष्णा नहीं होती है । उक्त भक्ति हीन साधकगण अतीव क्लेश पूर्वक तपस्या एवं शास्त्रादि विचार सम्पन्न ब्राह्मणादि कुल में जन्म ग्रहण करके भी आपके एवं आप के भक्त वृन्द के चरणों का अनादर करते हैं, तज्जन्य अपराधग्रस्त होकर अधः पतित हं ते हैं, अर्थात् जन्म मरण रूप संसार सरणि में गमनागमन करते रहते हैं।
अतएव भा० ६।३।१६ - २२ में धर्म राजने निज भृत्यवर्ग के प्रति कहा-
“धर्मन्तु साक्षाद् भगवत् प्रणीतं, न वै विदुॠषयो नापि देवाः ।
न सिद्धमुख्या असुरा मनुष्याः कुतो नु विद्याधर चारणादयः ॥ " २७४॥
टीका- ननु विष्णु भक्ताश्चेत् कथमधर्म पक्षपातं कृतवन्त स्तत्राह - धर्म मिति । ऋषयो भृग्वादयः ।
हे भक्त वृन्द ! साक्षात् भगवान् केक कथित धर्म को ऋषि गण किन्तु नहीं जानते हैं, सिद्ध मुख्य गण भी नहीं जानते हैं, अतएव असुर गण, मनुष्यगण, विद्याधर गण, चारण गण जो नहीं जानते हैं, उस का विवरण क्या कहें ? केवल स्वयम्भु, नारद, शम्भु कुमार, (चतुःसन) कपिल, मनु, प्रह्लाद, जनक, भीष्म, बली वैपासकी (शुक) और मैं (यमराज) यह द्वादश व्यक्ति धर्म को जानते हैं ।
स्वयम्भूर्नारदः शम्भुः कुमारः कपिलो मनुः ।
प्रह्लादो जनको भीष्मो बलिर्वैयासकिर्वयम् ॥ २७५॥
द्वादशैते विजानीमो धर्मं भागवतं भटाः
गुह्यं विशुद्धं दुर्बोधं यं ज्ञ त्वामृतमश्नुते ॥२७६ ॥
एतावानेव लोकेऽस्मिन् पुंसां धर्मः परः स्मृतः ॥ २७७॥ इत्यादि
[[१६५]]
एते धर्मप्रवर्तका विजानीम एव, न तु स्व-स्मृत्यादिषु प्रायेणोपदिशाम इत्यर्थः यतो गुह्यमप्रकाश्यं दुब्र्बोधमन्यैस्तथा ग्रहीतुमशक्यञ्च । गुह्यत्वे हेतुः-यं ज्ञात्वेति । अमृतं परमं फलम्, (भ० र० सि० १।१।३८ ) -
“ब्रह्मानन्दो भवेदेष चेत् परार्द्ध गुणीकृतः । नैति भक्तिसुखाम्भोधेः परमाणुतुलामपि ॥ २७८ ॥
इत्यादौ सूचितं परमत्वम्, (भा० १०।३३।३९) “विक्रीड़ितं व्रजबधूभिरिदञ्च विष्णोः " इत्यादौ " भक्ति पराम्” इत्यादिनोक्तम् । “कृष्णाधरामृतास्वादसिद्धिरत्र” इत्यादौ किञ्चिद्-
कारण यह भागवत धर्म अति गुह्य, विशुद्ध (अप्राकृत) एवं दुर्बोध्य है । जिस भागवत धर्म को जान कर जन्म मृत्यु प्रवाह से मुक्त हो सकता है । अथवा भगवत् पार्षत् देह लाभ कर सकता है ।
इस जगत् में मानव मात्र के निमित्त भागवत धर्म ही परम धर्म रूप में वर्णित हुआ है । धर्मशास्त्र के प्रवर्तक हम सब द्वादश जन उक्त धर्म को जानते तो हैं, किन्तु निजकृत स्मृति में उसका उल्लेख नहीं करते हैं। श्लोकोक्त ‘विजानीमः’ किया का इस प्रकार अर्थ जानना होगा । कारण, यह भागवत धर्म अति गोपनीय, अर्थात् अप्रकाश्य, एवं दुर्बोध्य है, अपर व्यक्ति, यथायथ रूप में ग्रहण करने में असमर्थ हैं । अति गोपनीय क्यों है ? कहते हैं- जिस को जानकर मुक्त होता है, अर्थात् जन्ममृत्यु रूप संसार धर्म को अतिक्रम कर सकता है । अमृत शब्द का अर्थ है - परम फल । भक्ति रसामृत सिन्धु १।१।३८ में उक्त है-
“ब्रह्मानन्दो भवेदेष चेत् परार्द्धगुणीकृतः ।
नैति भक्ति सुखाम्भोधेः परमाणु तुलामपि ॥२७८॥
टीका - परार्द्धति - परार्द्ध कालं व्याप्य क्रियमाणेन समाधिना सिद्धं ब्रह्मसुखमपीत्यर्थः । भक्तिरूप
सुख समुद्रस्य यः परमाणुस्तस्यापि तुलनां नैति-न प्राप्नोति ॥
परार्द्ध काल पर्य्यन्त निरवच्छिन्न समाधि द्वारा सिद्ध ब्रह्म सुख प्राप्ति भी भक्ति रूप सुख समुद्र
एक परमाणु के तुल्य नहीं हो सकती है ॥२७८॥
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इस से भक्ति का सान्द्रानन्द सुखमयत्व सूचित हुआ है । अतएव निखिल पुरुषार्थ से भक्ति ही परम श्रेष्ठ पुरुषार्थ है । भा० १०।३३।३६ में उक्त है-
“विक्रीड़ितं व्रजबधू भिरिदञ्च विष्णोः
श्रद्धान्वितोऽनु श्रृणुयादथ वर्णयेद् यः । क
भक्ति परां भगवति प्रतिलभ्य कामं
हृद्रोग माश्वपहिनोत्यचिरेण धीरः ॥ "
[[6]]
टीका - भगवतः काम विजय रूप रास क्रीड़ा श्रवणादेः कामविजयमेव फलमाह–विक्रीड़ितमिति ।
अचिरेण धीरः सन् हृद्रोगं काममाशु अपहिनोतिपरित्यजतीति । PIS
भगवान् श्रीकृष्ण की कामविजय लीला श्रवण से धीर व्यक्ति के हृदय से कामविदूरित हो जाता है, पश्चात् पराभक्ति की प्राप्ति होती है । यहाँ पर ‘परां’ शब्द से भक्ति का ही श्रेष्ठत्व प्रतिपादित हुआ है ।
श्रीकृष्ण भक्ति से ही कृष्णाधरामृतास्वादसिद्धि होती है । यहाँ पर श्रीकृष्णाधरामृत का आस्वादन
विशेष रूप से होता है । अतएव भा० ६।३।२५ में उक्त है-
“प्रायेण वेद तदिदं न महाजनोऽयं देव्या विमोहित मतिर्वत माययालम् ।
त्रय्यां जड़ीकृतमतिर्मधुपुष्पितायां वैतानिके महति कर्मणि युज्यमानः ॥”
क
[[१९६]] विशदितमश्नुते । अतएव वक्ष्यते (भा० ६।३।२५)- “प्रायेण वेद तदिदं न मराजनोऽयम्” इत्यादि ।
। महाजनो द्वादशभ्यस्तदनुगृहीत - सम्प्रदायिभ्यश्चान्यो महागुणयुक्तोऽपीत्यर्थः । तस्मात् साधूक्तम् — “अह्नयापृतार्त्त-’ इत्यादि । ब्रह्मा श्रीगर्भोदकशायिनम् ॥