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तथा (भा० ५।१८।१२) -

(१०६) " यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्य किञ्चना, सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः ।

हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा, मनोरथेनासति धावतो वहिः ॥ २७२ ) अकिञ्चना निष्कामा, गुणैर्ज्ञानवैराग्यादिभिः सह सर्व्वे शिव-ब्रह्मादयो देवाः सम्यगास ते " प्रह्लादः श्रीनृसिंहम् ॥

“प्राप्यापि दुर्लभतरं मानुष्यं विबुधेप्सितम् ।

यैराश्रितो न गोविन्दस्तैरात्मा वञ्चितश्चिरम् ॥२६६ ॥ अशीतिञ्चतुरश्चैव लक्षांस्तान् जीवज तिषु भ्रमद्भिः पुरुषः प्राप्य मानुष्यं जन्म पर्य्ययात् ॥ २७० ॥ तदप्यफलतां जातं तेषामात्माभिमानिनाम् । वराकाणामनाश्रित्य गोविन्दचरणद्वयम् ॥ " २७१ ॥

देववृन्द के अभिलषित दुर्लभतर मनुष्य जन्म प्राप्तकर गोविन्द के चरणारविन्द का आश्रय ग्रहण न करने पर अनादि काल तक आत्म वञ्चक होना पड़ता है। चतुरशीति लक्ष जीव योनि में भ्रमण करते करते पर्याय क्रम से मानव जीवन प्राप्त कर आत्माभिमानी क्षुद्रचेता मानव, श्रीगोविन्द के चरण कह आश्रय न करके मानव जन्म को विफल बना देता है ॥

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उक्त प्रकार भा० ५।१८।१२ में उक्त हैं-

श्रीब्रह्मा देववृन्द को कहे थे ॥ १०८ ॥

(१०६) “यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्चना, सवेंर्गुणैस्तत्र समासते सुराः

हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा, मनोरथेनासति धावतो वहिः ॥ " १७२ ॥

मानसमलापगम फलमाह । यस्येति । अकिञ्चना - निष्कामा । मनः शुद्धौ हरेर्भक्तिर्भवति, ततश्च सत् प्रसादे सति सर्वे देवाः सर्वे गुणैश्च धर्म ज्ञानादिभिः सह तत्र सम्यगासते–नित्यं वसति । गृहाद्यासक्तस्य तु हरि भक्तयसम्भवात् कुतोमहतां गुणा ज्ञानवैराग्या दयो भवन्ति ? असति विषयसुखे मनोरथेन वहिर्भावतः ॥

अन्वय व्यतिरेक मुख से श्रीभगवद् भक्ति का अभिधेयत्व भाः ५।१८।१२ में प्रतिपादित है । “हे प्रभो मनः शुद्धि होने से श्रीहरि के प्रति भक्ति होती है, अनन्तर श्रीभगवान् की प्रसन्नता से समस्त देव वृन्द धर्म ज्ञानादि समस्त गुणों के सहित उक्त भक्त में निवास करते हैं । जो व्यक्ति, गृहादि में आसक्त हैं, उन के पक्ष में श्रीभगवान् में भक्ति का उदय होना असम्भव है । जिस में भगवद् भक्ति होना ही असम्भव है, उस में कैसे महापुरुष गण के गुण, ज्ञान एवं वैराग्य प्रभृति हो सकते हैं । कारण, भगवद् बहिर्मुख भक्ति होन व्यक्ति-विषय-भोग हेतु निरन्तन भगवद् वहिर्मुख होकर असत् पथ में धावित होते रहते हैं ।

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