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तथा (भा० १०।४८।२६) -

(१०७) “कः पण्डितस्त्वदपरं शरणं समीया, भकप्रियाहतगिरः सुहृदः कृतज्ञत् ।

सर्व्वान् ददाति सुहृदो भजतोऽमि कामा, नात्मानमप्युपचयापचयौ न यस्य ॥” १६७ सुहृदो हितकारिस्वभावात्तत्रापि कृतज्ञ दुपकाराभासेऽपि बहुमन्वानाद् यो भजतो भजमानाय सर्व्वान् कामानभीष्टान् अभि सर्व्वतोभावेन ददाति । तत्रापि सुहृदः सुहृदे सप्रीतये त्वात्मानमपि ददाति । न च सर्व्वतोभावेन दाने तादृशेभ्यो बहुभ्यो दाने वा समावेशाभावः स्यादित्याह - उपचयेति ॥ अक्नरः श्रीभगवन्तम् ॥

भगवान् कपिल देव द्वारा प्रदत्त उपदेश का तात्पर्य उस प्रकार ही जानना होगा । स्वतन्त्र ईश्वर बुद्धिसे देवतान्तर की उपासना को किन्तु धिक्कार दिया गया है। अतएव “अविस्मितं तं परिपूर्ण कामम्” श्लोक की व्याख्या अति मनोरम ही हुई है ।

देवगण - श्रीमदादि पुरुष को कहे थे ॥ १०६॥

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उक्त प्रकरण के अनुरूप वर्णन भा० १०।४८।२६ में है-

(१०७ ) " कः पण्डितस्त्वद परं शरणं समीयात् भक्तप्रियादृतगिरः सुहृदः कृतज्ञात् ।

सर्वान् ददाति सुहृदो भजतोऽभिकामानात्मानमप्युपचयापचयौ न यस्य ॥ २६७ ॥

टीका - स्व मनोरथः परिपूरित इति तुष्यन्नाह कः पण्डित इति । ऋत गिरः- सत्यवाचः । त्वत्तोऽपरं शरणं कः समीयात् - गच्छेत् । यतो भवान् भजतः सर्वानभितः कामांश्च ददाति आत्मानमपो त ।

श्रीअक्रर, निज गृह में अभीष्ट देव श्रीकृष्ण को प्राप्त कर यथोचित पूजादि सम्पन्न करके कृताञ्जलि होकर कहे थे, हे प्रभो ! कौन पण्डित व्यक्ति, भक्तप्रिय, सत्यवाक् सुहृत् एवं कृतज्ञ स्वरूप तुम को छोड़ कर देवतान्तर का आश्रय ग्रहण करेगा ! कारण, तुम निज भजन कारो सुहृज्जन को अभिलषित भोग प्रदान करके तृप्त न होकर आत्मदान करते हो, अथच अनन्त भक्त को आत्मदान करने से भी तुम्हारे में अपचय अथवा उपचय नहीं होता है ।

श्लोकोक्त ‘सुहृत्’ शब्द का अर्थ-हितकारी स्वभाव है। तन्मध्य में भी कृतज्ञ, उपकार के आभाष से भी बहु मनन कारी हो, जो भजन कारी जन गण को सर्वाभीष्ट विषय का दान सर्वतो भावेन करते हैं, उस में भी आत्म तृप्ति के निमित्त आत्मदान भी करते ।

उक्त श्लोक में “सुहृदः” षष्ठी विभक्ति “सुहृदे” चतुर्थी विभक्ति के स्थान में हुई है, यह आर्ष प्रयोग है । सर्वतो भावेन योग्य वस्तु प्रदान में एवं आत्मदान करने में सम्यग् आवेश का अभाव नहीं होता है। इस अभिप्राय से ही कहते हैं- उपचय एवं अपचय नहीं है । अर्थात् अनेक भक्त, एक ही श्रीभगवान् का भजन करते रहते हैं, भगवान् एकसमय में ही भक्त गण के निकट उदित होकर प्रत्येक भक्त को ही सर्व प्रकार भोग एवं आत्मदान करते हैं। इस से संशय हो सकता है कि भगवान् एक हैं, भक्त अनेक हैं, भगवान् कैसे प्रति भक्त में आवेश की रक्षाकर सकते हैं ? उत्तर में कहते हैं- भगवान् अद्वय अव्यय अखण्ड तत्त्व हैं । अतः समस्त समाधान करने में भी समर्थ हैं, एवं सर्वस्व दान करने पर भी उनकी क्षति