१८३ १०६
श्रीमद् भागवत ( ६ हा २२ ) के श्रीदेवगण कृत भगवत् स्तुति प्रसङ्ग में भी स्वतन्त्र भाव से देवतान्तराश्रय के प्रति अनादर प्रकाश करके श्रीभगवद् भक्ति की अवश्य कर्त्तव्यता का उल्लेख हुआ है ।
(१०६) “अविस्मृतं तं परिपूर्णकामं स्वेनैव लाभेन समं प्रशान्तम् ।
[[१६०]]
अविस्मितं ततोऽन्यस्यापूर्ववस्तुनोऽसद्भावाद्विस्मयरहितम्, यद्वा सदा सस्मितमतः स्वेनैव स्वीयेनैव स्वस्यैव कर्म्मभूतस्य क्रियाभूतेन लाभेन परिपूर्णकामम्, नान्यस्येत्यर्थः । अतः सर्व्वत्र समम्, ततः प्रशान्तं चित्तदोष रहितम्, बालिश ईशस्याप्रियः सोऽतितितत्ति अतितत्तुं मिच्छतीत्यर्थः । यथोक्तम् (भा० ११२।२७) — “रजस्तमः प्रकृतयः” इत्यादि, स्कान्दे श्रीब्रह्मनारद संवादे च-
“वासुदेवं परित्यज्य योऽन्यदेवमुपासते । स्वमातरं परित्यज्य श्वपचीं वन्दते हि सः ॥ २०६ ॥
तत्रैवान्यत्र च - -
[[1]]
विनोपसर्पत्यपरं हि बालिशः श्वला गुलेनातितित्ति सिन्धुम् ॥ २०८
टीका- तत एवेत्यव धारणे हेतु माहुः । अविस्मितं - निरहङ्कारं कुतूहल शून्यं वा । कृतः ? प्रशान्तं- रागादि शून्यम् । तच्चकुतः ? स्वेनेव लाभेन परिपूर्ण कामम् । तच्च कुतः ? समम्, उपाधिपरिच्छेद शून्यम् । एवम्भूतं परमेश्वरं विना अपरं यः शरणार्थमुपसर्पति स हि बलिशोऽज्ञः । यतोऽसो शुनो लाङ्गुलेन पुच्छेना समुद्र मतितितत्त-अति तरितु मच्छतीत्यर्थः । यथा तेन समुद्र तरणं नभवति तथा अनीश्वराश्रयेण व्यसनार्णव तरणं न भवतीति भावः ॥ २२॥
हे प्रभो ! निरहङ्कार रागादि शून्य, निज स्वरूपः नन्दानुभव से परिपूर्ण वाम, उपाधिगत परिच्छेद शून्य परमेश्वर, - आप हैं, आप को छोड़कर जो मानव अन्य देवता का आश्रय ग्रहण करता है, वह निश्चय ही अज्ञ है । कारण, देवतान्तर आश्रयकारी व्यक्ति, कुक्कुर की पूच्छ धारण कर अति विस्तीर्ण समुद्र उत्तीर्ण होने के इच्छ ुक है । जिस प्रकार कुत्ते की पूँछ पकड़ कर अति विस्तीर्ण सागर उत्तीर्ण होना असम्भव है, उस प्रकार परमेश्वर को आश्रय न करके देवतान्तर के आश्रय से दुःख समुद्र उत्तीर्ण होना सम्भव नहीं है। श्लोकोक्त (अविस्मित” पद का अर्थ है, श्रीभगवद् भिन्न अपूर्व वस्तु न होने के कारण जो विस्मय रहित हैं, अतएव निज स्वरूपानन्द से ही जो पूर्ण काम है। यहाँ ‘स्वेनैव” पद का अथ है- स्वीय अर्थात् स्वयं, को प्राप्त कर जो पूर्ण काम हैं । ‘स्वेन’ पद, श्लोकीक्त कर्म है, एवं ‘लाभ’ क्रिया पद है। यहाँ का तात्पर्य्य यह है कि - निज स्वरूप भिल अपर किसो की अपेक्षा जिनको नहीं है । इस अभिप्राय से ही भा० ११२।२७ में कहा गया है
“रजस्तम प्रकृतयः समर्श लाभजन्ति वै । पितृभूत प्रजेशादीन् श्रियंश्वर्य्यं प्रजेप्सवः ॥
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टीका - रजस्तमसी प्रकृतिः स्वभावो येषां ते, अतएव पितृभूतादिभिः समं शीलं येषां ते । श्रियासह ऐश्वर्य्यञ्च प्रजाश्चेप्सन्तीति तथा ते ।
अर्थात् जो लोक, ऐश्वर्य के सहित पुत्रादि की कामना करते हैं, वे सब रजस्तमः स्वभाव सम्पन्न होने के कारण पितृ भूत प्रभृति के समस्वाभावापन्न होते हैं, अतः स्व जातीय की उपासना वे सब करते हैं । जो, मुक्ति कामना करते हैं, वे श्रीभगवान् व्यतीत देवतान्तर की उपासना नहीं करते हैं । कारण श्री भगवान्
की उपासना व्यतीत मोक्ष लाभ नहीं होता है ।
स्कन्द पुराण के श्रीब्रह्म नारद संवाद में उक्त है-
“वासुदेवं परित्यज्य योऽन्यदेवमुपासते । स्वमातरं परित्यज्य श्वपचीं वन्दते हि सः ॥ १०६ ॥
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[[१६१]]
“वासुदेवं परित्यज्य योऽन्य देवमुपासते । त्यक्त्वामृतं स मूढात्मा भुङ्क्ते हालाहलं विषम् ॥ २१० ॥ महाभारते -
“यस्तु विष्णु’ परित्यज्य मोहादन्यमुपासते । स हेम राशिमुत्सृज्य पांशुराशि जिघृक्षति ॥ २११॥
अतएवोक्तं श्रीसत्यव्रतेन (भा० ८२२४।४६)
“न यत् प्रसादायुतभागलेश, मन्ये च देवा गुरवो जनाः स्वयम् ।
कत्तु समेताः प्रभवन्ति पुंस, स्तमीश्वरं वै शरणं प्रपद्य े ॥ २१२ ॥
श्रीब्रह्मशिवावपि वैष्णवत्वेनैव भजेत, (भा० २।६।५) “स आदिदेवो जगतां परौ गुरुः”, (भा० १२।१३।१६) “वैष्णवानां यथा शम्भुः” इत्याद्यङ्गीकारात् । अतएव द्वादशे श्रीशिवं प्रति श्रीमार्कण्डेय- -वचनम् (भा० १२।१०।३४) -
अर्थात् वासुदेव को परित्याग करके अन्य देवता की उपासना जो लोक करते रहते हैं, वे सब निज जननी को परित्याग पूर्वक श्वपची की वन्दना करते हैं । स्कन्द पुराण के अन्यत्र भी लिखित है-
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“वासुदेवं परित्यज्य योऽन्यदेवं उपासते ।
त्वक्त्वामृतं स मूढात्मा भुङ्क्ते हालाहलं विषम् ॥२१० ॥
जो लोक, - वासुदेव को परित्याग करके अन्य देवता की उपासना करते हैं, वे मूढ़ होते हैं, एवं अमृत को त्याग कर हल हल विष भोजन करते हैं। महाभारत में भी वर्णित है-
“यस्तु विष्णु’ परित्यज्य मोहादन्यमुपासते ।
स हेमराशिमुत्सृज्य पांशुराशि जिघृक्षति ॥ " २११ ॥
जो व्यक्ति, श्रीविष्णु को परित्याग पूर्वक मोहवशतः अन्य देवता की उपासना करता है, वह स्वर्ण राशि को छोड़कर पांशुराशि में अभिलाष करता है । अतएव सत्यव्रत महाराज भी श्रीमत्स्य देवकी स्तुति करते हुये कहे हैं - भा० ८।२४४६
“न यत् प्रसादायुतभागलेश-मन्ये च देवा गुरवो जनाः स्वयम् ।
मिल
कत्तु समेताः प्रभवन्ति पुंस स्तमीश्वरं वै शरणं प्रपद्य ॥ २१२ ॥ टीका - परमेश्वरत्वं परमगुरुत्वञ्च प्रपञ्चयन्नाह नेति । यत्प्रसादस्य अयुतभागः तस्य लेशमपि अन्ये देवादयः सर्वे समेता अपि स्वयं तस्मिन् निरपेक्षाः सन्तः कत्तु न प्रभवन्ति ॥
अन्य देवतावृन्द, गुरुवर्ग, एवं महात्मावृन्द स्वतन्त्र रूप से मानवों के प्रति आप के अनुग्रह के अयुत भाग के लेश मात्र अनुग्रह भी करने में सक्षम नहीं हैं, उन परमेश्वर स्वरूप की शरण ग्रहण मैं करता हूँ । श्रीब्रह्मा एवं श्रीशिव को भी वैष्णव बुद्धि से उपासना करनी चाहिये, स्वतन्त्र ईश्वर बुद्धि से उनकी उपासना न करे । इस विषय में श्रीशुक देवने महाराज परीक्षित् को भा० २६५ में जो उपदेश प्रदान किया है - वह इस प्रकार है-
“स आदि देवो जगतां परो गुरुः स्वधिष्ण्यमास्थाय सिसृक्षयैक्षत ।
।
तां नाध्यगच्छद् दृशमत्र सम्मताम् प्रपञ्च निर्माण विधि यया भवेत् ॥”
टीका - भगवद् भजनादेव तत्र ज्ञानमित्येतत् प्रपञ्चयिष्यन् ब्रह्मणोऽपि तत्त्वज्ञानं तत् प्रसादादेवेति दर्शयितुमितिहासमाह स इत्यादिना । परीगुरु भक्तिरहस्योपदेष्टा, स्वधिष्ण्यं - पद्मम्, आस्थाय - अधिष्ठाय,
[[१६२]]
“वरमेकं वृणेऽथापि पूर्णात् कामाभिवर्षणात् ।
चर
भगवत्यच्युतां भक्त तत्परेषु तथा त्वयि ॥ " २१३॥
गु
श्रीभक्तिसन्दर्भ
तथा त्वय्यपि तत्पर इत्यर्थः । अतएवाष्टमे प्रजापतिकृत- शिवस्तुतौ (भा० ८७।३३)– “येत्वात्मराम गुरुभिर्हदि चिन्तिताङ्घ्रि, द्वन्द्वम्” इति चतुर्थे श्रीमदष्टभुजं प्रति प्रचेतोभिरपि तस्याधिष्ठान अन्वेषणाय पूर्व जले निमग्नः पश्चात् परावृत्य स्वधिष्ण्ये स्थित्वेत्यर्थ । ऐक्षत, तत्व थं स्रष्टव्य- मित्यालोचितवान् । तादृशं - प्रज्ञाम् । अत्र सृष्टिविषये सम्मतामव्यभिचारिणीम् । विधिः प्रकारः । "
શું
श्रीभगवद् भक्ति के उपदेष्टा आदि देव श्रीब्रह्मा, निज उद्भवस्थान श्रीविष्णु के अवस्थित होकर अधिष्ठान अन्वेषण के निमित्त जल में निमग्न हुये थे । किन्तु बहु प्रचेष्टा से न होने से अन्वेषण कार्य से निवृत्त हुये थे । एवं निज अधिष्ठान पद्म में अवस्थित होकर कैसे विश्वसृष्टि कार्य करेंगे, इस विषय में मन में चिन्ता किये थे किन्तु जिस प्रज्ञा से प्रपञ्च निर्माण हो सकता है, उस विषय में अनुकूल प्रज्ञा प्राप्त करने में असमर्थ हुये थे ।
[[1]]
नाभि कमल में
भी अवधि प्राप्त
श्लोक में ‘परो गुरुः’ पद का अर्थ भक्ति रहस्योपदेष्टा है । अतएव ब्रह्मा को वैष्णव श्रेष्ठ बुद्धि से आराधना करनी चाहिये । श्लोक के द्वारा यही प्रतिपन्न हुआ है । - श्रीशिव की आराधना वैष्णव बुद्धि से करना ही उचित है इस विषय में भा० १२।१३०१६ में लिखित है-
“निम्नगानां यथा गङ्गा, देवानामच्युतोयथा ।
वैष्णवाणां यथा शम्भुः पुराणानामिदं तथा ॥”
क्रमसन्दर्भ - अतएवाह - निम्नगानामिति ।
अतएव श्रीमद् भागवत के १२।१० ३४ इलोक में श्रीशिव के प्रति मार्कण्डेय ऋषि को उक्ति में प्रकाशित है -
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“वरमेकं वृणेऽथापि पूर्णात् कामाभिवर्षणात् ।
भगवत्यच्युतां भक्त तत्परेषु तथा त्वयि ॥ " २१३॥
तथा त्वयोति त्वयि च तत्पर इत्यर्थः । (भा० १२।८।४०) क्रमसन्दर्भ-
“क वर्णये तव विभो यदुदीरोतोऽसुः संस्प दते तमनु वाङ्मन इन्द्रियाणि । स्पन्दन्ति वै तनुभृतामज- शर्वयोश्व " इत्यनेनैव श्रीनारायण षिप्रत्युक्तत्वात् ।
हे प्रभो ! यद्यपि मेरा कुछ भी प्रार्थनीय नहीं है । तथापि सर्वाभीष्ट वर्षण कारी पूर्णकाम तुम्हारे समीप में मैं एक वर प्रार्थना करता हूँ । श्रीभगवान् में एवं श्रीभगवद् भक्तगण में तथा तुम्हारे प्रति मेरी अचला भक्ति हो, श्लोकस्थ ‘तथा त्वय्यपि’ पद का अर्थ है - वह भगवत् परायण जो तुम हो - इस प्रकार अर्थ समझना होगा । कारण, यदि श्रीशिव के प्रति भगवत् प्रियदृष्टि से भक्ति प्रार्थना नहीं करते तो श्री भगवान् में अच्युता भक्ति प्रार्थना से ही श्रीशिव के प्रति भी भक्ति प्रार्थना सम्पन्न होती । पृथक् भाव से तुम्हारे प्रति जैसे मेरी भक्ति हो, इस प्रकार उल्लेख का प्रयोजन नहीं होता ।
अतएव अष्टम स्कन्ध के प्रजापतिकृत शिवस्तुति (भा० ८७ ३३) में उक्त है-
“येत्वात्मारामगुरुभि हृ’ दिचिन्तिताधि-
द्वन्द्व ं चरन्तमुमया तपसाभितप्तम् ।
(भा० ४।३०।३८) - “वयन्तु साक्षाद्भगवन् भवस्य, प्रियस्य सख्युः क्षणसङ्गमेन” इति ।
वैष्णवस्य सतः समदर्शिनस्तु न भक्ति लाभः, प्रत्यवायश्च यथा वैष्णवतःत्रे-
कत्थन्त उग्रपरुषं निरतं शमशाने
ते नूनमूर्तिमविदंस्तव हातलज्जाः ॥ "
[[१६३]]
टीका - एवं नित्यं परानुग्रहव्यग्र त्वां ये निन्दन्ति ते ऽति मूर्खाइत्याहुः । ये च त्वाम् उमया सह चरन्तं तस्यां नितरां रतं कामिनं कत्थन्ते प्रलपन्ति, तथा श्मशाने चरन्तम्, उग्रं क्रूरं परुषञ्च हिंस्र कत्थन्ते, कथम्भूतम् । आत्मारामाश्च ते गुरवो विश्वहितोपदेष्टारश्च ते हृदि चिन्तितमङ्घ्रि द्वन्द्वं यस्य तथा भूतमषि तपसाभितप्तमपि ते नूनं तव ऊतिमविदन्निति काकुः । त्वल्लीलां नैव विदुरित्यर्थः । अतोहातलज्जाः, त्वक्त- लज्जाः कथमात्मारामैः सेवितचरणयुगलस्य कामित्वसम्भवः । कथं वा तपसाभितप्तस्य शान्तस्योप्रत्वं परुषत्वं वा सम्भवतीति अविचार्य्येवं प्रलापादित्यर्थः ।
[[6]]
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हे प्रभो ! आप, भगवद् भक्ति के द्वारा अपर को अनुग्रह करने के निमित्त नित्य व्याकुल हैं, किन्तु आप की निन्दा जो लोक करते हैं, वे सब अति मूर्ख हैं। आप, उमा में अत्यन्त आसक्त हैं, कामुक हैं, श्मशान में विचरण करते हैं तज्जन्य आप सदाचार विर्वाजित हैं, एवं अतिशय क्र रचेष्टा परायण आप हैं इस प्रकार कह कर जो लोक आप की निन्दा करते हैं, वे लोक, आप की लीला को कुछ भी नहीं समझ पाते हैं । कारण, आत्मारामगण कर्त्तृक जिनके चरण युगल सेवित होते हैं- उनका कामित्व होना असम्भव है । तपस्या के द्वारा अभितप्त शान्तमूत्ति आप हैं, आप का उग्रत्व होना भी सम्भव नहीं है । निर्लज्ज मुर्खगण ही आप के लीलारहस्य को न समझ कर उस प्रकार कदर्थना करते रहते हैं । इस श्लोक भक्ति के उपदेश द्वारा जगत् कल्याणकारित्व गुण मण्डित श्रीशङ्कर का महाभागवतत्व ही हुआ है । भा० ४।३०।३८ में प्रचेतागण ने भी श्रीमदष्टभुज श्रीहरि के स्तुति प्रकरण में श्रीशङ्कर को भगवत् प्रिय ही कहा है ।
में
भगवद् प्रदर्शित हुआ है।
“वयन्तु साक्षाद् भगवान् भवस्य प्रियस्य सख्युः क्षण सङ्गमेन । सुदुश्चिकित्सस्य भवस्य भृत्यो भिषक्तमं त्वाद्य गतिं गताः स्मः ॥
सेक
टीका - सत्सङ्गानलमस्माभिरेवानुभूतमित्याहुः - वयन्त्विति । तव यः प्रियः सखा तस्य भवस्य । अत्यन्तमचिकित्सस्य भवस्य जन्मनो मृत्योश्च भिषक्तमम् – सद्वैद्यं त्वां गतिं प्राप्ताः ।
।
अर्थात् प्रचेतागण, श्रीभगवान् को कहे थे, हे प्रभो ! सत्सङ्ग के फल का अनुभव हम सब ने किया है । कारण, आप के प्रियतम एवं सखा श्रीशङ्कर हैं, उनके क्षण भर सङ्ग प्रभाव से ही दुश्चिकित्स्य- अर्थात् चिकित्सा के द्वारा सुदुःसाध्य जो जन्म मृत्यु व्याधि है, उसके श्रेष्ठ चिकित्सक- सद्वैद्य - एवं परम गति आप की शरण ग्रहण हमने किया है। यदि आप के प्रियतम श्रीशङ्कर के सङ्गलाभ नहीं होता तो, आप के चरणों में शरणागत होने का सौभाग्य हम सब को नहीं होता । श्रीमद् भागवत के इस श्लोक में श्रीमहादेव को श्रीहरि के सखा एवं प्रियतम कहा गया है । श्रीवैष्णव होकर भी श्रीहरि एवं श्रीहरि में समदर्शी होने पर किन्तु श्रीहरि चरणों में भक्ति लाभ नहीं होता है। तात् पर्थ्य यह है कि श्रीवैष्णव के पक्ष में श्रीशङ्कर में एवं श्रीहरि में प्रियता दृष्टि रखनी चाहिये । स्वतन्त्र ईश्वर बुद्धि से उपासना करने पर ‘शैव’ होना पड़ेगा । श्रीशङ्कर में ईश्वरत्व एवं भक्त भाव की सत्ता है । तन्मध्य में जो लोक स्वतन्त्र ईश्वर रूप में श्रीशिव की उपासना करते हैं, वे सब शैव होते हैं । और जो लोक - श्रीशिव की उपासना भगवद् भक्त रूप में करते हैं, वे सब वैष्णव होते हैं । स्वतन्त्र ईश्वर बुद्धि से श्रीशङ्कर की उपासना करने से श्रीहरि भक्तिलाभ ही नहीं होता है, यही नहीं, किन्तु प्रत्यवाय भी होता है। इस विषय में वैष्णव तन्त्र में
[[१६४]]
" न लभेयुः पुनर्भीक्त हरेरैकान्तिकीं जड़ाः । एकाग्रमनसश्चापि विष्णु सामान्यदर्शिनः ॥ २१४ ॥ यस्तु नारायणं देवं ब्रह्मरुद्रा दिदैवतै । समत्वेनैव वीक्षेत स पाषण्डी भवेद्ध वम् ॥ २१५ ॥ इति । अतएवाभेद- दृष्टिवचनं समभक्त ज्ञान्यादिपरमेव, यथा श्रीमार्कण्डेयोपाख्याने द्वादश एव श्रीशिव - वाक्यम् (भा० १२ । १०।२० – २२)
कम
“ब्राह्मणाः साधवः शान्ता निःसङ्गा भूतवत्सलाः । एकान्तभक्ता अस्मासु निर्वैराः समदर्शिनः ॥ २१६॥ सलोका लोकपालास्तान् वन्दन्त्यच्चन्तुपासते ।
अहश्च भगवान् ब्रह्मा स्वयञ्च हरिरीश्वरः ॥२१७॥
न ते मय्यच्युतेऽजे च भिदामण्वपि चक्षते ।
नात्मनश्च परस्यापि तद्द्युष्मान वयमीमहि ॥ " २१८ ॥ इति ।
ि
कि
तत्ततोऽपि तानतिक्रम्य युष्मान् मार्कण्डेयादीन् शुद्धवैष्णवान् वयमीमहि भजेमेत्यर्थः ।
लिखित है-
“न लभेयुः पुनर्भीक्त हरेरैकान्तिकों जड़ाः : एकाग्रमनसश्चापि विष्णु-सामान्यदर्शिनः । । २१४॥
यस्तु नारायणं देवं ब्रह्मरुद्रादिदेवतैः ।
समत्वेनैव वीक्षत स पाषण्डी भवेद्ध्र ुवम् ॥ " २१५ ॥
[[5]]
श्रीहरि में एकाग्रमनाः होकर भी यदि श्रीविष्णु के सहित श्रीशिव ब्रह्मा प्रभृति की भावना श्रीहरि के अभिन्न रूप में करता है तो, वह जड़बुद्धि मानव- श्रीहरि में ऐकान्तिकी भक्ति लाभ कर नहीं सकता । इस से निर्णय यह हुआ कि - शिव ब्रह्मादि देवगण को यदि श्रीहरि के अभिन्न रूप से देखकर यदि उनकी उपासना करते हैं, तो श्रीहरि चरणों में भक्ति लाभ नहीं होगा, कारण, अपराध होगा । श्रीहरि हर में अभेद दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति को जो विघ्नलाभ होता है, उसका वर्णन वैष्णव तन्त्र में है - जो व्यक्ति, परमेश्वर श्रीनारायण को ब्रह्म रुद्रादि देव गण के सहित सम बुद्धि से देखता है, वह निश्चय ही पाषण्डी होगा । अतएव शास्त्र में जहाँ जहाँ श्रीहरि हर में अभेद बुद्धि पर वर्णन है, उक्त वर्णन अर्थात् शान्त भक्त ज्ञानी पर ही है, ऐसा जानना होगा । जिस प्रकार श्रीमद् भागवत के मार्कण्डेय समूह को सम भक्त उपाख्यान में वर्णित है - भा० १२।१०।२०- ६२
‘ब्राह्मणाः साधवः शान्ता निःसङ्गा भूतवत्सलाः ।
एकान्तभक्ता अस्मासु निर्देशः समदर्शिनः ॥२१६॥
सलोका लोकपालास्तान् वदन्त्यच्चन्तुपासते । ज
अहञ्च भगवान् ब्रह्मा स्वयञ्च हरिरीश्वरः ॥२१७॥
न ते मय्यच्युतेऽजे च भिदामण्वपि चक्षते ।
नात्मनश्च परस्यापि तद्युष्मान् वयमीमहि ॥ " २१८ ॥
टीका - वरदानादिना भवत् सेवैवास्माभिः क्रियते नत्वनुग्रहो जगद्वन्द्यत्वाद् भवतामिति ब्राह्मणान् स्तौति ब्राह्मणा इत्यादिना । ये साधवः सदाचाराः ’ शान्ता मत्सरादि रहिताः । निःसङ्गा निष्कामाः ॥२०॥
न केवलं त एव किन्तु अहञ्चेत्यादि ॥२॥ पूज्यतमत्वे हेत्वन्तरमाह नेति । अण्वपि - अणुमात्रमपि,
यदुक्तं श्रीशिवेनैव प्रचेतसः प्रति (भा० ४।२४।३०)
STF)
“अथ भागवता यूयं (प्रपाः स्थ भगवान् यथा ।
[[१६५]]
TPP PF
न मद्भागवतानाञ्च प्रेयानन्योऽस्ति कर्हिचित् ॥ २१६ ॥
अन्यत्र च (भा० ८।७।४० ) – " प्रीते हरौ भगवति प्रीयेऽहंरुचराचरः” इति च । तस्य मार्कण्डेयस्य शुद्ध-वैष्णवत्वञ्चोत्तमेतत् पूर्वम् (भा० १२/१०/६)
“नैवेच्छत्याशिषः क्वापि ब्रह्मर्षिर्मोक्षमप्युत ।
भक्ति परां भगवति लब्धवान् पुरुषेऽव्यये ॥ २२० ॥
न चक्षते न पश्यन्ति । तत् तस्मात् एवम्भूतान् युष्मान् ईमही भजेम ॥२२॥
में
श्रीशिव - कहते हैं- हे मार्कण्डेय ! जो सब ब्राह्मण, सदाचार सम्पन्न, मात्सर्य्यादि रहित, सर्वभूत वात्सल्ययुक्त, (ब्रह्मा विष्णु शिव के प्रति । हमारे प्रति एकान्त भक्तिमान् हैं, अथच निवैर एवं समदर्शी भी हैं । एतादृश गुण सम्पन्न ब्राह्मण वृन्द की बन्दना, लोकपाल वृन्द के सहित चतुर्दश भुवनवासी समस्त लोक करते हैं । अर्चना एवं उपासना भी कर रहे हैं। केवल यही नहीं किन्तु मैं, शिव, ब्रह्मा, यहाँतक कि स्वयं भगवान् ईश्वर भी पूर्वोक्त लक्षण युक्त ब्राह्मण की वन्दना करते हैं
कारण, वे सब मुझ शिव में, ब्रह्मा में, अच्युत में किञ्चिन्मात्र भेद दृष्टि नहीं रखते हैं, एवं आप के सहित जगद् वासी प्राणि वृन्द के प्रति किसी प्रकार भेद दृष्टि नहीं रखते हैं । आप सब उस प्रकार हैं । आप सब का स्तव हम सब करते हैं । यहाँपर “नात्मनश्च परस्यापि तद् युष्मान् वयमीमहि’’ इस श्लोकस्थ ‘तत्’ पद का अर्थ करते हैं - तत् ततोऽपि तानतिक्रम्य मार्कण्डेयादीन् शुद्ध वैष्णवान् वयमीमहि भजेम इत्यर्थः । श्रीशिव ने भी भा० ४।२४।३० में कहा है—-
“अथ भागवता यूयं प्रियाः स्थ भगवान् यथा ।
F
g
न मद्भागवतानाञ्च प्रेयानन्योऽस्ति कर्हिचित् ॥ २१६ ॥ टीका—-अथ भागवतत्वात् यूयं में प्रियास्थः । भवद्भिरपि मयि प्रीतिः कार्य्यस्याशयेनाह । मदन्यो भागवतानाञ्च प्रेयान् नास्ति ।”
भी
भगवान् मेरा प्रिय है, भगवद् भक्त वृन्द आप सब भी उस प्रकार मेरे प्रिय हैं । भगवद् भक्त वृन्द मुझ को छोड़कर अपर किसी को प्रियत्वेन नहीं जानते । भगवद् भक्त भिन्न मेरा भी अपर कोई प्रिय नहीं हैं। इससे भी प्रतिपादित हुआ कि श्रीशङ्कर में श्रीभगवत् प्रियत्व ही है ।
अन्यत्र भा० ८७ १० में दृष्ट है—
“प्रीते हरौ भगवति प्रीयेऽहं स चराचरः ।
तस्मादिदं परं भुजे प्रजानां स्वस्तिरस्तु मे ॥’
टीका- “कृपयतः कृपां कुर्वतः पुंसः । मे मत्तः, स्वस्तिः, सत्ता, सुखेन जीवितमस्त्वित्यर्थः ॥”
श्रीभगवान् श्रीहरि प्रसन्न होने से स्थावर जङ्गम के सहित मैं ‘शिव’ प्रसन्न होता हूँ । श्रीमार्कण्डेय के शुद्ध वैष्णवत्व के सम्बन्ध में भा० १२।१०।६ में श्रीशिव की कण्ठोक्ति यह है-
“नैवेच्छत्याशिषः क्त्रापि ब्रह्मर्षिर्मोक्षमप्युत ।
भक्त परां भगवति लब्धवान् पुरुषेऽव्यये ॥ २२०॥”
[[१६६]]
इति मार्कण्डेयमुद्दिश्य श्रीशिवेन । तथा श्रीशिवस्य तच्चेतस्याविर्भावात् समाधि-विरामेण च तदेव व्यञ्जितम्, यथा (भा० १२ १०।१३) “किमिदं कुत एवेति समाधेविरतो मुनिः” इति । किञ्च, (भा० १२।१०।२०)–“ब्राह्मणाः साधवः” इत्यादावभेद दृष्टिवचनेऽपि (भा० १२/१०/२१) “स्वयञ्च हरिरीश्वरः” इत्यनेन तस्यैव प्राधान्यमुक्तम् । तस्यैव स्वयमीश्वरत्वञ्चोक्तम् ( भा० ११२।२४)—” पार्थिवाद्दारुणः” इत्यादिना । ब्रह्मपुराणे श्रीशिव वाक्यमपि तथैव-
टीका- आशिषोऽभ्युदय लक्षणाः । उत निश्चितम् । अत्र हेतुः - भक्तिमिति ।
श्रीशङ्कर उमाको कहे थे - हे प्रिये ! यह ब्रह्मर्षि मार्कण्डेय कहीं पर किसी के निकट धर्म, अर्थ, काम की प्रार्थना तो करते ही नहीं, यहाँतक कि-मोक्ष की प्रार्थना भी नहीं करते हैं । कारण, यह मार्कण्डेय ऋषि, अव्यय पुरुष श्रीभगवान् में पराभक्ति को प्राप्त किये हैं । यहाँपर अनुसन्धेय यह है कि- जिस समय, श्रीशिव मार्कण्डेय हृदय में आविभूति हुये थे - उस समय ही मार्कण्डेय की समाधि टूटगई थी, यदि श्रीहर एवं श्रीहरि, सर्वथा अभेद होते तो मार्कण्डेय की समाधिभङ्ग क्यों होती ? इससे श्रीहरि हर का पार्थक्य सुस्पष्ट हुआ । उक्त समाधिभङ्ग विषय में भा० १२।१०।१३ में कथित है ।
" किमिदं कुत एवेति समाधेवरतो मुनिः” ।
।
।
।
टीका - “न केवलं वहिरेव आत्मन्यपि प्राप्तः । शिवं विचक्ष्य विस्मितः । कथं प्राप्तम् ? सहसा अकस्मादेव हृदि भातम् । कथम्भूतम् ? तड़िद्वत् पिशङ्गा जटा धारयतीति तथा तम् । त्रीण्यक्षीणि यस्य तम् । शूलादिभिः सह अक्षमालादीन् बिभ्राणमित्यन्वयः । अक्षमालादीनां द्वन्द्वं वयम् । विस्मय पूर्वकं वहिर्दर्शनमाह किमिदमिति ॥ "
अर्थात् मुनि मार्कण्डेय - निज हृदय में आविभूति श्रीशिवमूत्ति दर्शन करके चिन्ता किये थे- हृदय में मैं क्या देख रहा हूँ ? यह मूर्ति कहाँ से आई, इस प्रकार चित्त चाञ्चल्य वशतः मार्कण्डेय समाधि से विरत हुये थे । और भी भा० १२।१०।२० में श्रीशिव ने कहा है-
“ब्राह्मणाः साधवः शान्ता निःसङ्गा भूतवत्सलः । एकान्तभक्ता अस्मासु निर्देशः समदर्शिनः ॥”
टीका - वरदानादिना भवत् सेवैवास्माभिः क्रियते नत्वनुग्रहो जगद् वन्दद्यत्वाद् भवतामिति ब्राह्मणान् स्तौति । ब्राह्मणाइत्यादिना । ये साधवः सदाचाराः । शान्ताः - मत्सरादि रहिता निःसङ्गः– निष्कामाः ॥
" सलोकालोक पालास्तान् वन्दन्त्युच्चन्त्युपासते ।
अहंञ्च भगवान् ब्रह्मा स्वयञ्च हरिरीश्वरः ॥”
टीका- न केवलं त एव किन्तु अहञ्चेत्यादि ॥ २१ ॥
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इस श्लोक में हरि हर में जो अभेद उपदेश हुआ है, इस में भी हरि शब्द के पहले स्वयं पद का उल्लेख हुआ है । इस से भी श्रीहरि का प्राधान्य वर्णित हुआ है । श्रीहरि का स्वयं ईश्वरत्व का प्रतिपादन भा० १।२।२४ सुस्पष्ट रूप से हुआ है ।
है।
“पार्थिवाद् दारुणो धूमस्तस्मादग्निस्त्रयीमयः ।
तस्पास्तु रजस्तस्मात् सत्वं यद् ब्रह्मवर्शनम् ॥”
P
टीक - " उपाधि वैशिष्टयेन फल वैशिष्टय सदृष्टान्तमाह– पार्थिवात् स्वतः प्रवृत्ति प्रकाश रहितात्
[[१६७]]
“यो हि मां द्रष्टुमिच्छेन ब्रह्माणं वा पितामहम् । द्रष्टव्यस्तेन भगवान् वासुदेवः प्रतापवान् ॥ २२१ ॥ इति । तद्विज्ञानेन सर्वविज्ञानादिति भावः । अत एवमप्युक्तं सार्वभौमः श्री चिन्तामणि दीक्षितैः-
“वनमालिनि यादृशाशयो, मम तादृङ न कपालमालिनि
अमिते मुदिरे यथा शिखी, मुद्रमभ्येनि तथा न पाण्डुरे ॥ २२२ ॥ देव्यस्तटिन्यस्त्रिदशास्तड़ागा, विश्व ेश्वरोऽयं सरितामधीशः ।
तृष्णारः कोऽपि न कृष्ण मेघं विहाय चिन्तामणिचातकस्य ॥” २२३॥
,
तदेवं वैष्णवत्वेनैव शिवभजनं युक्तम् । केचित्तु वेष्णवास्तत् पूजनमावश्यकत्वेनोपस्थितं
दारुणः काष्ठात् सकाशात्, धूमः प्रवृत्ति स्वभावः, त्रयीमयः वेदोक्त कर्मप्रचुरः, ईषत् कर्म प्रत्यासत्तेः । तस्मादपि अग्निस्त्रयीमयः साक्षात् कर्म स धनत्वात् । एवं तमसः सकाशात् रजो ब्रह्म दर्शनं ब्रह्म प्रकाशकम् तु शब्देन लयात्मकात् तमसः सकाशाद्रजसः सोपाधिक ज्ञान हेतुत्वेन कथञ्चिद् ब्रह्म दर्शन प्रत्यासत्तिमात्र मुक्त नतु सर्वथा तत् प्रकाशकत्वं विक्षेपकत्वात् । यत् सत्वं तत् साक्षात् ब्रह्म दर्शनम् । अतस्तत्तद् गुणोपाधीनां हर ब्रह्मादीनामपि यथोत्तरं वैशिष्टयमिति भावः ।”
जिस प्रकार स्वाभाविक प्रवृत्ति प्रकाश रहित काष्ठ से प्रवृत्तिस्वभाव घुम श्रेष्ठ है, उस प्रकार लयात्मक तमोगुण से सोपाधिक ज्ञान हेतुक विक्षेपात्मक रजोगुण श्रेष्ठ है, उस से साक्षात् ब्रह्म दर्शन हेतु प्रकाश बहुल सत्त्व गुण श्रेष्ठ है । अतएव श्रीशिव, श्रीब्रह्मा, श्रीविष्णु के मध्य में श्रीविष्णु ही श्रेष्ठ हैं । इत्यादि वचनों के द्वारा श्रीविष्णु का ही स्वयमीश्वरत्व प्रतिपादित है । ब्रह्म पुराण में श्रीशिव वाक्य भी उस प्रकार ही है ।
“यो हि मां द्रष्टुमिच्छेत ब्रह्माणं वा पितामहम् ।
द्रष्टव्यस्तेन भगवान् वासुदेवः प्रतापवान् ॥ " २२१॥
जो व्यक्ति मुझ (शिव) को देखना चाहता है, अथवा पितामह ब्रह्मा का साक्षात्कार करना चाहता है, उसके पक्ष में प्रतापवान् वासुदेव ही द्रष्टव्य है । कारण, भगवान् वासुदेव का साक्षात् कार होने से श्रीशिव एवं ब्रह्मा का साक्षात् कार स्वतः ही निष्पन्न होता है ॥ २२१ ॥
श्रीवासुदेव को जानने से सब का परिज्ञान होता है अतएव सार्वभौम श्रीचिन्तामणि दीक्षित ने भी कहा है-
.
“वनमालिनि यादृशाशयो, मम तादृङ् न कपालमालिनि । असिते मुदिरे यथा शिखी, मुद्दमभ्येति तथा न पाण्डुरे ॥२२॥ देव्यस्तटिन्यस्त्रिदशास्तड़ागा, विश्वेश्वरोऽयं सरितामधीशः ।
तृष्णाहरः कोऽपि न कृष्णमेघं विहाय चिन्तामणिचातकस्य ॥” २२३ ॥
वनमालि श्रीकृष्ण में जिस प्रकार चित्त विभोर होता है-उस प्रकार कपालमाली को देखने से नहीं होता है । मयूर, निविड़ नील मेघमाला को देखकर जिस प्रकार आनन्दित होता है । उस प्रकार शुभ्र मेघ को देखकर आनन्दित नहीं होता है ॥२२२॥
देवीगण नदी स्वरूपा हैं, देववृन्द-तड़ाग सदृश हैं विश्वेश्वर तो सरित् पति ही हैं, किन्तु चिन्तामणि चातक के पक्ष में कृष्णमेघ व्यतीत अपर कोई भी तृष्णाहरणकारी नहीं है ॥ २२३॥
यह सब प्रमाणों के द्वारा निर्णय होता है कि वैष्णव श्रेष्ठ रूप में ही श्रीशिव का भजन करना कर्त्तव्य है । स्वतन्त्र ईश्वर रूप से नहीं । यदि किसी
[[१६८]]
श्रीभक्ति सन्दर्भः चेतहि तस्मिन्नधिष्ठाने श्रीभगवन्तमेव पूजयन्ति यथा श्रीविष्णुधर्मोत्तरान्तिमोऽयमितिहासः, – विश्वक्सेन-नामा कश्चिद्विप्र एकान्ति-भागवतः पृथिवीं विचरन्नासीत्, स कदाचिदेक एक वनान्ते उपविष्टः । तत्राय ग्रामाध्यक्षसुतः कश्चिदागतर तमुवाच - कोऽसीति । ततः कृतस्वाख्यानं पुनस्तमुवाच – मम शिरः पीड़ाद्य जातेति निजेष्ट देवं शिवं पूजयितुं न शक्नोमीत्यतो मम प्रतिनिधित्वेन त्वमेव तं पूजयेति । एतदनन्तरञ्च तत्रत्यं सार्द्धं पद्यम्-
“ए। दुक्तः प्रत्युवाच वयमेकान्तिनः श्रुताः ॥ २२४ ॥
兩岸質
चतुरात्मा हरिः पूज्यः प्रादुर्भावगतोऽथवा । पूजयामश्च नैवान्य तस्मात्त्वं गच्छ माचिरम् ॥ " २२५॥ ततस्तस्मिंस्तदनङ्गीकृतवति स खड़ गमुन्नमितवान् शिरश्छेत्तुम् । ततश्चासौ विप्रः स्तब्धस्तेन मुत्युमनभीप्सन् विचार्य्योक्तवान्,- ‘भद्र ं तत्रं व गच्छामः’ इति । गत्वा चेदं मनसि चिन्तितम्,-
वैष्णव जन को अवश्य कर्तव्य रूप में श्रीशिव पूजन आवश्यक होता है तो, उक्त शिव लिङ्गाधिष्ठान में भगवान् श्रीहरि की पूजन करनी चाहिये। इस प्रकार सदाचार का विवरण श्रीविष्णु धर्मोत्तर ग्रन्थ के शेषभाग में इस प्रकार है- विष्वक्सेन नामक एक ब्राह्मण एकान्त वैष्णव थे, उनकी निष्ठा श्रीहरि में थी, किसी समय आप पृथिवी भ्रमण में निर्गत होकर एक वन में अवस्थान कर रहे थे। उस समय एक ग्रामाध्यक्ष के पुत्र आकर उन से कहा- तुम कौन हो ? उत्तर में भक्त ब्राह्मण ने कहा- मैं वैष्णव ब्राह्मण हूँ । उक्त ग्रामाध्यक्ष पुत्र ने पुनर्वार उन से कहा- आज मेरी शिरः पीड़ा हो रही है, मैं इष्टदेव शिव की पूजा करने में असमर्थ हूँ । अतः तुम मेरा प्रतिनिधि होकर शिव पूजा सम्पन्न करो। इस प्रकार कथोपकथन के पश्चात् विष्णु धर्मोत्तर के स र्द्ध श्लोक इस प्रकार है-
“एतदुक्तः प्रत्युवाच वयमेकान्तिनः श्रुताः ॥ २२४
॥
चतुरात्मा हरिः पूज्यः प्रादुर्भावगतोऽथवा ।
पूजयामश्च नैवान्यं तस्मात्त्वं गच्छ माचिरम् ॥ " २२५ ॥
अर्थात् ग्रामाध्यक्ष पुत्र के प्रार्थना वाक्य को सुनकर उक्त भक्त ब्रह्मण कहे थे - हे युवक ! हम श्री भगवान् के एकान्ती भक्त रूप में सर्वत्र ख्यान हैं, एकमात्र तुरीय स्वरूप श्रीहरि ही यदि वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध रूप में आविर्भूत होते हैं तो पूजा कर सकते हैं, अर्थात् श्रीविष्णु विग्रह की पूजा हम करते हैं । किन्तु अन्य देवता की पूजा नहीं करते हैं । अतएब तुम यहाँ से आशु चले जाओ । अनन्तर उक्त भक्त ब्राह्मण किसी प्रकार श्रीशिव पूजा करने में सम्मत न होने पर ग्रामाध्यक्ष पुत्र ने ब्राह्मण का मस्तक छेदन करने के निमित्त खड़ग उत्तोलन किया, यह देखकर स्तम्भित होकर ब्राह्मण सोचने लगे, इस युवक के हाथ से मृत्य वरण करना अभीप्सित नहीं है । इस सङ्कट में करना क्या है ? इस प्रकार अनेक विचार कर ब्राह्मण ने कहा- आच्छा, मैं जा रहा हूँ । अनन्तर शिवलिङ्ग के निकट उपस्थित होकर मन मन में इस प्रकार विचार करने लगे- यह शिव प्रलय हेतु तमोगुण वर्द्धक होने के कारण तमोभावापन हैं, और श्रीनृसिंहदेव भो तामस दैत्य वृन्द को विदीर्ण कारी होने के कारण तमोगुण भजन कारी हैं, तमोगुण नाश हेतु तमोराशि नाशक सूर्य के समान तामस दैत्य वृन्द के मध्य में उदित होते हैं।
यह ग्रामाध्यक्ष पुत्र दैत्य स्वभावा क्रान्त है, अतएव शिव उपासक दुष्ट वृन्द के दुष्ट भाव विनष्ट करने के निमित्त शिवाकार अधिष्ठान में श्रीनृसिंह देव की पूजा मैं करूंगा। इस प्रकार निश्चय करके “श्रीनृसिंहाय नमः " कहकर जब ब्राह्मणने पुष्पाञ्जति प्रदान करने के निमित्त उद्यत हुआ तो, ग्रामाध्यक्ष
[[१६६]]‘अयं रुद्रः प्रलयहेतुतया तमोवर्द्धनत्वात्तमोभावः, श्रीनृसिंहदेवश्च तामस दैत्यगण विदारकतया तमोभञ्जनकर्तृत्वात्तद्-भञ्जनार्थमेव तत्रोदयेत सूर्य इव तमोराशेः, अतो रुद्राकाराधिष्ठाने ऽपि तदुपासकानामेषां तमोभञ्जनकृते श्रीनृसिंहपूजा मेवास्मिन् करिष्यामि’ इति । अत ‘श्रीनृसिंहाय नमः इति गृहीतपुष्पाञ्जलौ तस्मिन् पुनः क्रोधाविष्टेन ग्रामाध्यक्षपुत्त्रेण खड्गः समुद्यमितः । ततश्चाकस्मात्तदेव लिङ्गं स्फोटयित्वा श्रीनृसिंहदेवः स्वयमाविर्भूय तं ग्रामाध्यक्ष- पुत्त्रं सपरिकरं जघान । दक्षिणस्यां दिश्यतिप्रसिद्धो ‘लिङ्गस्फोट’ नामा तत्र स्वयं स्थितवानिति ।
अतोऽनन्य भक्ताः श्रीशिवमषि वैष्णवत्वेनैव मानयन्ति केचित् कदाचित्तदधिष्ठानत्वेनैव वा अतएवोक्तमादिवाराहे—
[[1]]
जन्मान्तरसहस्रेषु समाराध्य वृषध्वजम् । वैष्णवत्वं लभेद्धीमान् सर्वपापक्षये सति ॥ २२६ ॥ इति अतएव श्रीनृसिंह- शिवभक्तयोरन्तरं वृहदेव, श्रीनृसिंहतापन्यां श्रुतौ (पू० ५/१० ) – " अनुपनील शतमेकमेकेनोपनीतेन तत्समम्, उपनीतशतमेकमेकेन गृहस्थेन तत्समम्, गृहस्थशतमेकमेकेन वानप्रस्थेन तत्समम्, वानप्रस्थशतमेकमेकेन यतिना तत्समम्, यतीनान्तु शतं पूर्णमेकेन रुद्रजापकेन
रुद्रजापकशतमेकमेकेनार्थव्र्वाङ्गीरस-शिखाध्यापकेन तत्समम्, अथर्वाङ्गीरसशिखाध्यापकशतमेकमेकेन मन्त्रर । जाध्यापकेन तत्समम्” इति । मन्त्रराजश्च तत्र श्रीनृसिंहमन्त्र एवेति
तत्समम्,
स्वतन्त्रत्वेन भजने तु भृङ्गशापो दुरत्ययः, यथा चतुर्थे (भा० ४ २ २७-२८)
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पुत्र पुनर्वार क्रोधाविष्ट होकर ब्राह्मण के मस्तक छेदन करने के निमित्त खड़ग को उठालिया । तत्क्षणात् अकस्मात् उस शिव लिङ्ग को भेद करके श्रीनृसिंह देव स्वयं प्रकट हो गये एवं ग्रामाध्यक्ष पुत्र को सपरिकर विनष्ट कर दिये । अद्यापि दक्षिण देश में अति प्रसिद्ध लिङ्ग स्फोट नामक श्रीनृसिंह देव विद्यमान् हैं । अतएव अनन्य विष्णु भक्त वृन्द श्रीशिव की पूजा वैष्णव श्रेष्ठ रूप से ही करते हैं । अथवा कतिपय ऐकान्तिक विष्णु भक्त श्रीविष्णु के अधिष्ठान रूप में ही श्रीशिव की पूजा करते हैं । एतज्जन्य आदि वराह पुराण में उक्त है-
“जन्मान्तरसहस्रेषु समाराध्य वृषध्वजम् । वैष्णवत्वं लभेद्धीमान् सर्वपापक्षये सति ॥ " २२६॥
अर्थात् बुद्धि मान् व्यक्ति सहस्र सहस्र जन्म वृषभध्वज महादेव की आराधना करके सर्व पापक्षय होने से वैष्णवत्व लाभ करते हैं । अतएव श्रीनृसिंह तापनी श्रुति में श्रीनृसिंह एवं शिव भक्त के मध्य बहुल पार्थक्य दृष्ट होते हैं । यथा अनुपनीत एकशत ब्राह्मण बालक उपनीत एक बालक के समान हैं, एक शत ब्राह्मण, एक गृहस्थ के समान हैं, एकशत गृहस्थ, एक वानप्रस्थ के समान हैं, एकशत वान प्रस्थ एक सन्नयासी के समान हैं, एकशत सन्यासी एक रुद्रजापक के समान हैं, एकशत रुद्रजापक - एक अथर्व वेदान्तर्गत आङ्गिरस शाखाध्यापक के समान हैं, एकशत अथर्वाङ्गीरस शाखाध्यापक एक मन्त्रराजाध्यापक के समान हैं, श्रीनृसिंह तापनी में लिखित “मन्त्रराज” शब्द से श्रीनृसिंह मन्त्र को जानना होगा । स्वतन्त्र
[[१७०]]
“भृगुः प्रत्य सृजच्छापं ब्रह्मदण्डं दुरत्ययम् ॥ २२७॥
भवव्रतधरा ये च ये च तान् समनुव्रताः ।
पाषण्डिनस्ते भवन्तु सच्छास्त्रपरिपन्थिनः ॥ २२८ ॥ इत्यादि ।
वेदविहितमेवात्र भवव्रतमनूद्यते, अन्यविहितत्वे पाषण्डित्वविधान योगः स्यात्, पूर्च्चत एव पाषण्डित्वसिद्धेः । अथ तत्परिपन्थकानां श्रीभागवतादीनां सच्छास्त्रत्वमायातम्, तत् पुरस्कृतानां सूतसंहितानामसच्छास्त्रत्वं स्पष्टमेव । तस्मात् स्वतन्त्रत्वेनैवोपासनायामयं दोषः, यतश्च तत्रैव तेन श्रीजनाई नस्यैव वेदमूलत्वमुक्तम् (भा० ४।२।३१)
“एष एव हि लोकानां शिवः पन्थाः सनातनः ।
यं पूर्व्वे चानुसंतस्थुर्यत् प्रमाणं जनार्द्दन, ॥ २२६ ॥ इति ।
एष वेदलक्षणो यत् प्रमाणं यत्र मूलमित्यर्थः । अतएवान्वयेनापि श्रीविष्णुभक्तिर्दृ ढीकृता, ईश्वर बुद्धि से श्रीशिव की उपासना करने से किन्तु दुर्निवार भृगुशाप उपस्थित होगा ।
भा० ४।२।२७-२८ में भृगुमुनि का अभिसम्पात वर्णित है ।
“भृगुः प्रत्य सृजच्छापं ब्रह्मदण्डं दुरत्ययम् ॥ २२७॥
भवव्रत धरा ये च ये च तान् समनुव्रताः ।
पाषण्डिनस्ते भवन्तु सच्छास्त्रपरिपन्थिनः ॥ २२८ ॥
।
टीका प्रत्यसृजत् प्रत्यदात् । शापरूपं ब्रह्म दण्डम् । सच्छास्त्रस्य परिपस्थिनः- प्रति कूलाः । भृगुमुनि, शिवानुचर, नन्दीश्वर का अभिशाप को सुनकर दुरतिक्रम ब्रह्मदण्डरूप प्रति अभिशाप प्रदान किये थे। जो लोक महा देव के व्रतधारी हैं, एवं जो महादेव भक्त के आनुगत्यस्वीकार करेंगे, वे सब ही सच्छास्त्र, वेद एवं वेदानुगत शास्त्र का प्रति कूल पाषण्डी हों। यहाँ “भवव्रत” शब्द से वेद विहित भवव्रत को जानना होगा । वेदविरुद्ध शास्त्र विहित भवव्रत धारी जन गण स्वतः ही पाषण्डी होते हैं । सुतरां उन सब के प्रति अभिशाप प्रदान करने का कोई औचित्य नहीं है । कारण, वेद विरुद्ध शास्त्रानु शीलन कारी जनगण पाषण्डी हैं । स्वतन्त्र ईश्वर बुद्धि से श्रीशिव की उपासना करने से ही भृगुमुणि कृत अभिसम्पात जनित दोष उपस्थित होगा, कारण, इस प्रसङ्ग में भृगुने श्रीजन द्द ेन का वेदमूलत्व स्थापन किया है । भा० ४।२।३१
“एष एव हि लोकानां शिवः पन्थाः सनातनः ।
यं पूवें चानुसंतस्थ यंत् प्रमाणं जनार्द्दनः ॥ २२६॥
अर्थात् वेद विहित उपाय ही मानव मात्र का सनातन मङ्गलमय पन्था है । पूर्वकाल में ऋषिवृन्द, निज निज अभीष्ट सिद्धि हेतु वेद को अवलम्बन किये थे । श्रीजनार्दन ही वेदों का मूल आश्रय हैं । अतएव अन्वय मुख से अर्थात् कर्त्तव्यता मुख से भी भा० १।२।२३ के द्वारा श्रीविष्णु भक्ति की दृढ़ता प्रतिपादन हुई ।
“सत्त्वं रजस्तम इति प्रकृतेर्गुणास्तं युक्तः परः पुरुष एक इहास्य धत्ते । स्थित्यादये हरिविरिञ्चि हरेति संज्ञाः श्रेयांसि तत्रखलु सत्त्वतनो नृणां स्युः ॥”
टीका - तदेवमुपपादयितुं ब्रह्मादीनान्त्रयाणामेकात्मकत्वेऽपि वासुदेवस्याधिकयमाह - सत्वमिति । इह यद्यपि एक एव परः पुमान्, अस्य विश्वस्य स्थित्यादये स्थितिसृष्टिलयार्थं हरिविरिश्चि हरेति संज्ञाः
[[१७१]]
(भा० १।२।२३) “सत्त्वं रजस्तमः” इत्यादिना । तथा श्रीहदिवंशे शिव- वाक्यमेव (भविष्य-पु०
दहा) -
“हरिरेव सदा ध्येयो भवद्भिः सत्त्वसंस्थितैः । विष्णुमन्त्रं सदा विप्राः पठध्वं ध्यात केशवम् ॥ २३०॥
तस्मात् श्रीशिवभक्तेरप्येवम्भूतत्वे स्थिते परासामपि देवतानां वैष्णवागमादौ श्रीभगवल्लोकसंग्रहपराणां तद्बहिरङ्गावरण-सेवकत्वेनाप्राकृतानामेव पूजाविधानम् । तल्लीलौपयिक-नरलीलापार्षदानां वा भगवत् प्रीणन-यज्ञादौ तु श्रीयुधिष्ठिर- राजसूय वदन्यासामपि तद्विभूतित्वेनैवेति ज्ञयम्, यथानुष्ठितं श्रीप्रह्लादेन (भा० ७।१०।३२) - “ततः संपूज्य शिरसा ववन्दे परमेष्ठिनम् ।
भवं प्रजापतीन् देवान् प्रह्लादो भगवत्कलाः ॥२३१॥
तदुक्तं श्रीयुधिष्ठिरेणैव (भा० १०।७२।३)
" क्रतुराजेन गोविन्द राजसूयेन पावनीः ।
केवलं भिन्ना धत्ते । हरिविरिश्वि हरा इति वक्तव्ये सन्धिरार्षः । तत्र तेषां मध्ये श्रेयांसि शुभफलानि, सत्त्वतनोर्वासुदेवादेव स्युः ॥
श्रीहरिवंश में श्रीशिव ही श्रीहरि भक्ति की दृढ़ता का प्रतिपादन किये हैं। भविष्यपुराण दही८)
“हरिरेव सदाध्येयो भवद्भिः सत्त्वसंस्थितैः ।
विष्णु मन्त्रं सदा विप्राः पठध्वं ध्यात केशवम् ॥ १३० ॥
हे विप्र वृन्द ! सात्त्विक स्वभाव सम्पन्न, आप सब के पक्ष में सत्त्व मूर्ति श्रीकृष्ण का ध्यान करना कर्तव्य है । अतएव सर्वदा विष्णु मन्त्र जप करें एवं केशव का ध्यान करें। अतएव श्रीशिव भक्ति के सम्बन्ध में जब उस प्रकार सिद्धान्त गृहीत होता है, तब वैष्णव तन्त्रादि में अन्यान्य देवता की पूजा करने का जो विधान है, वहाँ पर समझना होगा कि - श्रीभगवान् के ही वहिरङ्ग आवरण के सेवक होने के कारण वे सब ही अप्राकृत होते हैं । अथवा, श्रीभगवान् को लोक संग्रहपर नर लीला के उपयोगी पार्षद् वृन्द की पूजा विहित हुई है । तात्पर्य यह है कि - जिस समय, श्रीभगवान् नर जगत् में अवतीर्ण होकर मनुष्य लीला को प्रकट करते हैं, उस समय, साधारण मनुष्य के समान उन के प्रिय पार्षद वृन्द, विभिन्न देवताओं की आराधना करते हैं । एवं उक्त देवता वृन्द भी श्रीभगवान् की नर लीला के परिकर हैं । श्रीयुधिष्ठिर के राज्यसूय यज्ञ के समान श्रीभगवत् सन्तोषार्थ अनुष्ठित यज्ञादि में किन्तु अन्यान्य देव वृन्द की आराधना भगवद् विभूति बुद्धि से ही करनी चाहिये । यहाँपर भा० ७।१०।३२ में वर्णित श्रीप्रह्लाद महाशय आचरण दृष्टान्त रूप में उपस्थापित है -
“ततः संपूज्य शिरसा ववन्दे परमेष्ठिनम् ।
भवं प्रजापतीन् देवान् प्रह्लादो भगवत् कलाः ॥२३१॥
ऐकान्तिक श्रीहरिभक्त के पक्ष में उस प्रकार आचरण ही अभीप्सित है । अनन्तर श्रीप्रह्लाद महाशय- प्रजापति वृन्द एवं अन्यान्य देववृन्द की पूजा उत्तम रूप से सम्पन्न करके अवनत मस्तक के द्वारा वन्दना किये थे । यहाँपर मूल श्लोक में “भगवत् कलाः” विशेषण पद का उल्लेख स्पष्टतः ही हुआ है । श्रीभ० १०।३२।३ में श्रीयुधिष्टिर महाराज की उक्ति भी तदनुरूप ही है ।
“क्रतुराजेन गोविन्द राजसूयेन पावनीः ।
।
[[१७२]]
भीभक्तिसन्दर्भः
यक्ष्ये विभूतीर्भवतस्तत् सम्पादय नः प्रभो ॥ " २७२ ॥ इति । विभूतित्वेनैवेत्यमुक्तं पाद्म े कार्तिक माहात्म्ये च श्रीसत्यभामां प्रति श्रीभगवता-
“सौराश्च शैवा गाणेशा वैष्णवाः शक्तिपूजकाः । मामेव प्राप्नुवन्तीह वर्षापः सागरं यथा ॥ २३३ ॥ एकोऽहं पञ्चधा जातः क्रीड़या नामभिः किल । देवदत्तो यथा कश्चित् पुत्रादिजन - नामभिः ॥ २३४ ॥ वस्तुतस्तु सर्वापेक्षया श्रीवैष्णवा एव श्रेष्ठाः, तदुक्तं स्कान्दे ब्रह्मनारद-संवादे, तत्र वाग्यत्र प्रह्लादसंहितायामेकादशी- जागरणप्रसङ्गे च-
“न सौरो न च शैचो वा न ब्राह्मो न च शाक्तिकः ।
न चान्यदेवता - भक्तो भवेद्भागवतोपमः ॥ २३५ ॥ ॥ इति ।
तादृश-सौरादीनां तत्प्रतिश्च न केवलं तद्धेतुकैव, किन्तु भगवत् प्रीत्यर्थकृत तज्जात शुद्धभक्ति द्वारा वा श्रीविष्णुक्षेत्र मरणादिप्रभावेण वा, यथा तत्रैव वर्णितयोर्देवशर्म-चन्द्र-
यक्ष्ये विभुतीर्भवतस्तत् सम्पादय नः प्रभो ॥“२३२ ॥
टीका - विभूतीः- अंशान् ।
अर्थात् हे गोविन्द ! निखिल यज्ञ श्रेष्ठ राजसूय यज्ञ के द्वारा तुम्हारी पवित्र कारिणी विभुति समूह को आराधना करूँगा । इस का समाधान तुम करो, तुम, सब समाधान करने में समर्थ हो, अतः मेरा अभिलाष पूर्ण करो 1 इस श्लोक में श्रीयुधिष्ठिर महाराज देवतान्तर की अर्चना भगवान् को विभूति रूप में करने का अभिलाष प्रकाश किये थे ।
पद्म पुराण के कार्तिक माहात्म्य में श्रीसत्यभामा को भगवान् श्रीकृष्ण कहे थे - हे देवि ! वर्षाकाल के वर्षित जल समूह जिस प्रकार समुद्र प्रविष्ट होते हैं, उस प्रकार जो लोक, शिव, गणेश, विष्णु, एवं शक्ति सूर्य की उपासना करते हैं, वे सब भी मुझ को प्राप्त करते हैं। जिस प्रकार एक देवदत्त, पिता, भ्राता पुत्र प्रभृति विभिन्न नामों से अभिहित होता है, उस प्रकार ऐक ही मैं श्रीकृष्ण, - क्रीड़ा एवं नाम भेद से पञ्चधा प्रकटित होता हूँ ।
“सौराश्च शैवा गाणेशा वैष्णवाः शक्तिपूजकाः ।
मामेव प्राप्नुवन्तीह वर्षापः सागरं यथा ॥ २३३ ॥ एकोऽहं पञ्चधा जातः क्रीड़या नामभिः किल
देवदत्तो यथा कश्चित् पुत्रादिजन नामभिः ॥ २३४ ॥ ॥
वस्तुतः सकल उपासकों के मध्य में श्रीवैष्णव ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार उक्ति, स्कन्द पुराण के ब्रह्म नारद संवाद में एवं उक्त स्कन्द पुराण के अन्यत्र एकादशी जागरण प्रसङ्ग में एवं प्रह्लाद संहिता में श्रीवैष्णव का श्रेष्ठत्व वर्णित है-
“न सौरो न च शैवो वा न ब्राह्मो न च शाक्तिकः ।
न चान्यदेवता-भक्तो भवेद्भागवतोपमः ॥ २३५॥
श्रीभगवद् भक्त के तुल्य सूर्य उपासक नहीं होते हैं, शिव उपासक, ब्रह्मा का उपासक, अथवा शक्ति उपासक तुल्य नहीं होते हैं, अधिक कहना क्या है ? अपरदेव गण के भक्त भी वैष्णव के सदृश नहीं होते हैं । पद्म पुराण के कार्तिक माहात्म्य में श्रीसत्यभामा के निकट श्रीकृष्ण जो कहे थे — कि सर्व देवोपासक की ही भगवत् प्राप्ति होती है-उसका तात्पर्य यह है कि-सूर्य्यादि विभिन्न देव गण की उपासना ही श्रीभगवत् प्राप्ति के हेतु नहीं है, किन्तु सूर्य्यादि देव गण की उपासना यदि भगवत् प्रीति के उद्देश्य से होती
शर्मनाम्नोः सूर्य्यमा राधयतोः तदुक्तं तत्र व श्रीभगवता—
I
[[१७३]]
“तत्क्षेत्रस्य प्रभावेण धर्मशीलतया पुनः । वैकुण्ठभवनं नीतो मत्परौ मत्समीपगैः ॥२३६॥ यावज्जीवन्तु यत्ताभ्यां सूर्य्यपूजादिकं कृतम् । तेनाहं वर्मणा ताभ्यां सुप्रीतो ह्यभवं किल । २३७॥ तत्क्षेत्र मायापुरी, तौ च कृष्णावतारे सत्राजिदन राख्यौ जाताविति च तत्र प्रसिद्धिः । एवं पुण्डरीकस्यापि पितृसेवया तत्प्राप्तिश्च योजनीया ।
स्वतन्त्रोपासनायां तत् प्राप्तिः श्रीगीतोपनिषत्स्वेव निषिद्धा ( गी० ६१२३-२५) -
“येऽप्यन्यदेवता-भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्व्वकम् ॥ २३८॥ अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च । न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥ २३८ ॥ यान्ति देवव्रता देवान् पितृन यान्ति पितृव्रताः ।
है तो, उक्त उपासना समूह से विशुद्ध शक्ति का आविर्भाव होता है, उस से अथवा श्रीविष्णु क्षेत्र में मृत्यु होने के कारण ही श्रीभगवत् प्राप्ति होती है । यह छोड़कर स्वतन्त्र सूर्य्यादि देववृन्द की उपासना से श्री भगवत् प्राप्ति नहीं हो सकती है । उस प्रकरण में श्रीकृष्ण ने सूर्य्य आराधक देवशर्मा - चन्द्रशम्र्मा के चरित्र वर्णन प्रसङ्ग में श्रीसत्यभामा को कहे थे -
“तत्क्षेत्वस्य प्रभावेण धर्म्मशीलतया पुनः । बैकुण्ठभश्नं नीतौ मत्परौ मत्समीपगैः ॥ २३६॥ यावज्जीवन्तु यत्ताभ्यां सूर्य्यपूजादिकं कृतम् ।
तेनाहं कर्मणा ताभ्यां सुप्रीतो ह्यभवं किल ॥“२३७७
हे देवि ! उस विष्णु क्षेत्र के प्रभाव से ही धार्मिक प्रवर देवशर्म्मा एवं चन्द्रशर्मा नामक सूर्य भक्त द्वय मेरी भक्ति प्राप्त कर मेरे पार्षद गण कर्त्तृक पुनर्वार वैकुण्ठ धाम में आनीत हुये थे । उक्त महात्माद्वय के द्वारा यावज्जीवन जो सूर्य्यपूजादि हुये थे उस से में उनदोनों के प्रति परम सन्तुष्ट हुआ था। यह प्रसङ्ग पद्म पुराण में ही वर्णित है । यहाँ क्षेत्रवास शब्द से मायापुरी में निवास को जानना होगा । श्रीकृष्णावतार के समय उक्त देवशर्मा - चन्द्रशर्मा हो क्रमशः सत्राजित् एवं अक्रूर अभिहित थे । यह प्रसिद्धि है । इस प्रकार पुण्डरीक नामक भक्त के द्वारा पितृ सेवा अनुष्ठित होने पर उस से भगवत् प्राप्ति का विवरण भी उल्लेख है, उस में भी इस प्रकार सिद्धान्त ग्रहण ही करना पड़ेगा । अर्थात् भगवदन्तर्य्यामित्व दृष्टि से पितृ सेवा करने से श्रीभगवत् सन्तोष होता है, एवं भगवत् सन्तोष से भगवद् भक्ति लाभ होता है, अनन्तर विशुद्ध भक्ति से श्रीभगवदाराधना करने पर श्रीभगवत् प्राप्ति होती है । स्वतन्त्र भावसे देवतान्तर उपासना के द्वारा श्रीभगवत् प्राप्ति नहीं होती है, उसका वर्णन भगवद् गीता । २३-२५ में है-
“येऽप्यन्यदेवता-भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥ २३८॥ अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
न
तु
मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥२३६॥ यान्ति देवव्रता देवान् पितृन् यान्ति पितृव्रताः ।
क
[[१७४]]
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥ २४० ॥ तस्मात्तदीयत्वेनोपासनायां क्वचिद्गुणोऽपि भवति । अवज्ञादौ तु दोषः (भा० ११।३।२६) “श्रद्धां भागवते शास्त्रेऽनिन्दामन्यत्र चापि हि” इतिवत्, यथा पाद्म े-
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥ २४० ॥
टीका- ननु च ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये इत्यनेन त्वया स्वस्यैवोपासना त्रिविधोक्ता । तत्र बहुशो विश्वतो- मुखमिति तृतीयाया उपासनाया ज्ञापनार्थमहं क्रतुरहं यज्ञ इत्यादिना स्वस्य विश्व रूपत्वं दर्शितम् । अतः कर्म योगेन कर्म्माङ्ग भूतेन्द्र दि याजकस्तथा प्राधान्येनैव देवतान्तर भक्ता अपि त्वद्भक्ता एवं कथं तहि ते न मुच्यन्ते । यदुक्त
ं “त्वया, गतागतं कामकामा लभन्ते ॥ इति । अन्तवत्तु फलं तेषामिति च तत्राह येऽपीति सत्यं मामेव यजन्तीति । किन्तु अविधि पूर्वकं मत् प्रापकं विधिविनैव यजन्तुतः पुनरावर्त्तन्ते ॥
अर्थात् हे अर्जुन ! जो लोक, अन्य देवताके भक्त होकर श्रद्धायुक्तान्तः करण से उन उन देवता की उपासना करते हैं, वे सब भी मेरी उपासना करते हैं । कारण, उक्त देववर्ग- मेरी विभूति हैं, अथवा अन्तर्य्यामी रूप में उन उन देवता में मैं विद्यमान हूँ । किन्तु जिस रीति से उपासना करने से मोक्षलाभ होता है, उस रीति से वे लोक उपासना नहीं करते हैं । अर्थात् स्वतन्त्र रूप से देवतान्तर की उपासना करने पर धर्म, अर्थ, काम - यह त्रिवर्ग लाभ होता है । किन्तु श्रीविष्णु की उपासना व्यतीत मोक्षलाभ नहीं हो सकता है । उस अभिप्राय से ही कहा गया है कि - “अविधि पूर्वकं यजन्ति” श्रीधर स्वामि पाद ने भी कहा है - “मोक्ष प्रापकं विधि विना” अर्थात् जिस उपाय से उपासना करने पर मुक्ति होती है, उस विधि को उल्लङ्घन पूर्वक अर्चन करते हैं।
[[1]]
टोका - अविधि पूर्वकस्वमेवाह - अहमिति । देवतान्तर रूपेणाहमेव भोक्ता प्रभुः स्वामी फलदाता चाहमिति । मान्तु तत्वेन न जानन्ति । यथा सूर्य्य स्याहमुपासकः, सूर्थ्य एव मयि प्रसीदतु। सूर्थ्य एव मदभीष्टं फलं ददातु । सूर्य्य एव परमेश्वर इति तेषां बुद्धि र्नतु परमेश्वरो नारायण एव, सूर्य्यः स एव तादृश श्रद्धोत्पादकः स एव मह्यं सूर्योपासना फलप्रद इति बुद्धिरतत्त्वतो मदभिज्ञानाभावात्ते च्यवन्ते । भगवान्नारायण एवेति सूर्य्यादि रूपेण आराध्यते इति भावनया विश्वतोमुखं मामुपासीनास्तु मुच्यन्त एव । तस्मान्मद्विभूतिषु सूर्य्यादिषु पूजा मद्विभूति ज्ञानं पूर्विकैव कर्त्तव्याः नत्वन्यथेति द्योतितम् ॥२४॥
[[61]]
मेरो उपासना न करने से मुक्ति नहीं होती है, उसका कारण, यह है कि- मैं ही समस्त यज्ञ भोक्ता हूँ । एवं कर्म फल दाता, कर्म प्रवर्त्तक नियामक प्रभु हूँ । यथायथ रूप से मुझ को न जानने के कारण, उन उन देवतागण के उपासक गण परमार्थ पथ भ्रष्ट होते हैं।
टीका - ननु च तत्तद् देवता पूजापद्धतौ यो यो विधिरुक्तस्तेनैव विधिना सा सा देवता पूज्यत एव । यथा विष्णु पूजा पद्धतौ य एव विधि स्तेनैव वैष्णवा विष्णु पूज्यन्त्यतः देवतान्तर भक्तानां को दोषः ? इति चेत् सत्यं, तहि तां देवतां तद् भक्ताः प्राप्नुवन्त्येवं । इत्ययं न्याय एव इत्याह यान्तीति तेन तत्तद् देवतानामपि नश्वरत्वात् तत्तद् देवताभक्ताः कथमनश्वरा भवन्तु । अहन्तु अनश्वरो नित्यो मद्भक्ता अप्यनश्वरा नित्या एवेति द्योतितम् । भवानेकः शिष्यते शेष संज्ञ इति । “एकोनारायणः एवासीन्न ब्रह्मा न च शङ्करः” इति । “परार्द्धान्ति सोऽबुध्यत गोपरूपो मे पुरस्तादाविबभूव” इति । न च्यवन्ते च मद्भक्ता महत्यां प्रलयादपीत्यादि श्रुतिभ्यः ॥२५॥
जो लोक जो जो देवता की उपासना करते हैं, वे लोक उन उन देव लोक में गमन करते हैं, भूत वृन्द की उपासना से प्रेत लोक को जाते हैं । एवं मेरी उपासना करने से मुझ को प्राप्त करते हैं। भगवद्
श्रीभक्ति सन्दर्भः
“हरिरेव सदाराध्यः सर्व्वदेवेश्वरेश्वरः । इतरे ब्रह्मरुद्राद्या नावज्ञेयाः कदाचन ॥ २४९॥ गौतमीये च-
[[१७५]]
“गोपालं पूजयेद्यस्तु निन्दयेदन्यदेवनाम् । अस्तु तावत् परो धर्म्मः पूर्व्वधम्मऽपि नश्यति ॥ २४२ ॥ इति अतएव (भा० ६।८।१७) ‘हयशीर्षा मां पथि देवहेलनात्” इति श्रीनारायणवर्म्मणि तदागः प्रायश्चित्तम् । विष्णुधर्मे चायमितिहासः - पूर्वं श्रीमदम्बरीषो बहुदिनं भगवदाराधनं तपोऽनुष्ठितवान् । तदन्ते च भगवानेवेन्द्ररूपेणैरावतीकृतं गरुड़मारुह्य तं वरेण च्छन्दयामास स चेन्द्ररूपं दृष्ट्वा तं नमस्कारादिभिरादृत्यापि तस्माद्वरं नेष्टवान्, उक्तवांश्च ममाराध्याकारो प्राप्ति गीतोक्त प्रमाण समूह से ज्ञात होता है कि - स्वतन्त्रेश्वर बुद्धि से देवतान्तर उपासना के द्वारा भगवत्
भी नहीं होती है । अतएव भगवत् प्रियत्व रूप से देवतान्तर की उपासना करने पर स्थल विशेष में गुण होता है । किन्तु देवतान्तरको अवज्ञा करने से दोष होगा । इस विषय में श्रीमद् भागवत के ११।३।२६ में कथित है-
“श्रद्धां भागवते शास्त्रेऽनिन्दामन्यत्र चापिहि ॥ "
टीका - भागवते - भगवत् प्रतिपादके । अन्यत्र शास्त्रादौ या अनिन्दद्या ताम् । मनसः प्राणायामः । वाचो मौनेन, कर्मणोऽनोहया दण्डम् । सत्यं यथार्थ भाषणम् । शमदमौ अन्तः करणवाह्यन्द्रिय निग्रहौ ।
भगवत् प्रतिपादक शस्त्र में श्रद्धा करे, किन्तु अन्य शास्त्र की निन्द्या न करे । इस प्रकार प्रबुद्ध योगीन्द्र के उपदेश के समान श्रीविष्णु में विशेष आदर करे, किन्तु देवतान्तर की निन्दा न करे । पद्म पुराण में उक्त है-
‘हरिरेव सदाराध्यः सर्व देवेश्वरेश्वरः ।
इतरे ब्रह्मरुद्राद्या नावज्ञेयाः कदाचन” ॥२४१ ॥
सर्व देवगण के ईश्वर, ब्रह्मा शिव के भी आराध्य श्रीहरि की आराधना सबको करनी चाहिये । किन्तु कभी भी ब्रह्म रुद्र प्रभृति देववृन्द की अवज्ञा न करे ।
गौतमीयतन्त्र में भी उक्त है-
“गोपालं पूजयेद् यस्तु निन्दयेदन्यदेवताम् ।
अस्तु तावत् परोधर्मः पूर्वधम्र्मोऽपि नश्यति ॥ २४२॥
अर्थात् जो व्यक्ति, गोपाल देवकी पूजा करता है, किन्तु अन्य देवता की अवज्ञा करता है । उस का परधर्म की कथा तो दूर हो, पूर्वाचरित धर्म भी विनष्ट होता है ।
अतएव श्रीमद्भागवत के ६।८।१७ में उक्त है-” हयशीर्षा मां पथि देव हेलनात् । नारायण वर्म कथन के समय कथित है-भगवान् हयग्रीव-पथ में देवतान्तर के अवहेलन दोष से मेरी रक्षा करें। इस प्रकार देवतान्तर की निन्दा होने पर प्रायश्चित्त का भी उल्लेख है। विष्णु धर्म में यह इतिहास है– पूर्व काल में महाराज अम्बरीष सुदीर्घ दिन श्रीभगवदाराधन रूप तपस्यानुष्ठान किये थे तदनन्तर भगवान् इन्द्रमूर्ति धारण कर ऐरावतरूपी गरुड़ में आरोहण करके अम्बरीष के निकट उपस्थित होकर कहे थे— “मेरे निकट वर मागो”। महराज ने अनुज्ञा को सुना, एवं इन्द्र मूर्ति को देखकर उनको नमस्कार प्रभृति द्वारा यथेष्ट सम्मान किया, किन्तु उन इन्द्र मूर्ति के निकट वर प्रार्थना नहीं की, उन्होंने कहा भी था, जो मेरा आराध्य देव हैं, उन भगवान् श्रीकृष्ण ही मुझ को वर प्रदान करेंगे । अपर कोई मुझ को वरप्रदाता नहीं हो सकते हैं । अर्थात् मैं अपर किसी से वर ग्रहण नहीं करूँगा । अम्बरीष के वाक्य को सुन कर इन्द्र
[[१७६]]
श्रीभक्तिसन्दर्भ यः, स एव मम वरदाता भवेन्नान्य इति । अथ तद्देयं वरमहमेव दारयामीति पुनरुक्त. – वत्यपीन्द्रे नेष्टवन्तं तं प्रति स वज्रं समुद्यतवाद, तथापि तं वरं नाङ्गीकृतवति तस्मिन् सुप्रसन्नो भूत्वा तद्रूपमन्तर्द्धाप्य स्वरूपमाविर्भावयन्ननुजग्र हे त ।
तत्र च शिवावज्ञादौ महानेव दोषः, यथा चतुर्थ एव नन्दीश्वर- शापः ( भा० ४१२१२४) - “संसरन्त्विह ये चामुमनु शर्व्वावमानिनम्” इति इदमेव यत् किश्चिदेव - श्रीशिवस्य
रूपी कृष्णने कहा, तुम्हारे आराध्य देव श्रीकृष्ण, तुम्हें जो वर देंगे, मैं व्ही वर दूँगा, पुनर्वार इस प्रकार कहने पर भी जब अम्बरीष वर ग्रहणेच्छ नहीं हुए, तब इन्द्र रूपी श्रीकृष्ण कोपाभिनय करके अम्बरीष के मस्तक में वज्र निःक्षेप करने के निमित्त उद्यत हो गये । उस अवस्था में भी महाराज ने जब वर अङ्गीकार नहीं किया, तब इन्द्ररूपी श्रीकृष्ण तत् कृपेक्षण नामक भक्ति की गाढ़ निष्ठा को देखकर महाराज अम्बरीष के प्रति सुप्रसन्न हो गये, एवं स्वीकृत इन्द्ररूप को परित्याग कर निज स्वरूप को प्रकट कर यथेष्ट अनुग्रह किये थे ।
यद्यपि देवतान्तर की निन्दा ही दोष जनक है, तथापि श्रीशिव अवज्ञा प्रभृति अतीव दोषावह है । भा० ४।२।२४ में शिव प्रिय नन्दोश्वर कृत शिवापमान कारो के प्रति अभिशाप इस प्रकार है-
1"विद्याबुद्धिरविद्य यां कर्म मय्याम सावजः ।
P
संसरत्विह येचामुमनु शर्वावमानिनाम् ॥२४॥
ए
टीका-अयन्तु शापोऽस्यानुरूप एवेत्याह । विद्याबुद्धिः, इयमेव तत्त्वविद्य ेति बुद्धियंस्था अतोऽसौ अज ऐव । विप्रान् शपति । संसरन्त्विति साद्वंद्वाभ्याम् । सर्वमन्यत इति तथा । तममु ं दक्षं चे चानुवर्त्तन्ते ते संसरन्तु, जन्ममरणाद्यनुभवत्विति, एकः शापः । श्रुताया वेदरूपायाः । पुष्पिण्याः- पुष्पाणीवार्थवादाः, मनक्षोभकत्वात् । तानि सन्ति यस्याम् । अर्थवाद बहुलताया इत्यर्थः । मधुगन्धतुल्येन प्ररोचनेन मनः क्षोभकेण, उन्मथित आत्मा मनोयेषां ते सम्मुहान्त । कर्मस्वासक्ता भवन्त्विति द्वितीय शापः । सर्वभक्ष्यः, भक्ष्याभक्ष्य विचार शून्याः, वृत्त्यं देहादि पोषणाय धृतानि विद्यातपो व्रतानि यः, वित्तादिध्वेवार मोरतिष ते, याचकाः सन्तो विचरन्त्विति च शापचतुष्टयम् ।
क
जो व्यक्ति, यह शिवनिन्दाकारी दक्ष प्रजापति के अनुगत होंगे, वे सब ही जन्ममरणादि दुःख बहुल संसार दशा को प्राप्त करें। यह अभिसम्पात अतितुच्छ है । कारण, महाभागवत श्री शिव निन्दाजनित अपराध को दश अपराध के मध्य में मुख्य रूप से कहा गया है । श्रीमहादेव-महाभागवत हैं, इस का वर्णन भा० ४।११।३३ में है-
ि
“हेलनं गिरिश भ्रातुर्धनदस्य त्वया कृतम् ।
यज्जघ्निवान् पुण्यजनान् भ्रातृघ्नानित्यमर्षितः ॥ ३३॥
।
टीका - अन्य च त्वया कार्य्यमित्याह - हेलनमिति द्वाभ्याम् । यद् यतो जघ्निवान्- घातितवान् ॥ हे वत्स ! तुमने महादेव के भ्राता (सखा) कुबेर की प्रचुर तर अवज्ञा की, कारण, भ्रातृहत्याकारी बुद्धि से बहुल यक्षों को विनष्ट तुमने किया है । स्वायम्भुवमनुकथित इस रीति के अनुसार महादेव के सखा होने के कारण कुवेर के निकट अपराध भी वैष्णव अपराध के मध्य में परिगणित हुआ । अतः उक्त स्वभाव के समुचित सर्व विषयक विनय एवं पुनः पुनः भक्ति अभिलाष से अभिलाषी होकर श्रीघ्र वने भी कुवेर के निकट भगवद् भक्ति वर प्रार्थना की। यह है-चतुर्थ स्कन्धोक्त अख्यान का अभिप्राय ।
तात्पर्य यह है कि - महाभागवतोत्तम श्रीमहादेव के सहित कुवेर का बन्धुत्व निबन्धन, कुवेर को
[[१७७]]
महाभागवतत्वेन दोषस्य स्वयमेव सिद्धत्वात् । (भा० ४।११।३३) “हेलनं गिरिशभ्रातुर्धनदस्य त्वया कृतम्” इति स्वायम्भुवोक्त-रीत्या नूनं तत् सख्यमनुस्मृत्यैव कुवेरादपि श्रीघ्रवेण भगवद् भक्तिस्वभावकृत- सर्व्व विषयक- विनय पुनः पुनर्भक्तयभिलाषाभ्यां युक्तेन सता कृतं भगवद् भक्तिवरप्रार्थनमिति चतुर्थाभिप्रायः । अतएवोक्तम् (कौर्मे) -
“यो मां समर्च्चयेन्नित्यमेकान्तं भावमाश्रितः ।
विनिन्दन् देवमीशानं स याति नरकं ध्रुवम् ॥ २४३ ॥ इति ।
दृष्टञ्च तथा चित्रकेतुचरिते
श्रीकपिलदेवेन साधारणानामपि प्राणिनामवमानादिकं निन्दितम्, किमुत तद्विधानाम्, तथाहि (भा० ३।२।२१ ) -
“अहं सर्व्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थितः सदा ।
तमवज्ञाय मां मर्त्यः कुरुतेऽचर्चाविडम्बनम् ॥” २४४॥
P
भूतेषु वक्ष्यमाणरीत्या अप्राणभृज्जीवमारभ्य भगवदपितात्मजीवपर्य्यन्तेषु भूतात्मा तदन्तर्यामी, तं मामवज्ञाय, तेषामवज्ञया तदधिष्ठानकस्य ममेवावज्ञां कृत्वेत्यर्थः । ततस्तां कृत्वा योऽच्च मत्प्रतिमां कुरुते, स तद्विड़म्बनं तस्या अवज्ञामेव कुरुत इत्यर्थः । यतः, (भा० ३।२६।२२)
महाभागवत माना गया है, एवं कुवेर के निकट अपराध भी वैष्णव अपराध के मध्य में परिगणित हुआ है । तज्जन्य ही श्रीध्र ुव, कुवेर के निकट अत्यन्त विनीत भाव से पुनः पुनः भगवत् भक्ति प्रार्थना किये थे उक्त अभिप्राय से ही कूर्म पुराण में श्रीभगवदुक्ति है-
“यो मां समर्चयेन्नित्यमेकान्त भावमाश्रितः ।
विनिन्दन् देवमीशानं स याति नरकं ध्रुवम् ॥ २४३ ॥
जो व्यक्ति, एकान्त भाव से मेरा नित्य अर्चन करता है, अथच महादेव की निन्दा करता है, उस का नरक गमन सुनिश्चित है ॥
श्रीमद् भागवत के चित्रकेतु चरित्र में उस प्रकार आचरण दृष्ट होता है । श्रीकपिल देवने तो साधारण प्राणि मात्र को अवमानन करना, अत्यन्त निन्दित व्यवहार कहा है । यदि साधारण प्राणिमात्र की अवमानना इस प्रकार दोषावह होता है तो महाभागवतोत्तम श्रीशिवकी निन्दा करना अत्यन्त दोषावह ही होगा, इस में कहना ही क्या है ? भा० ३।२६।२१ में उक्त है-
“अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थितः सदा ।
[[57]]
तमवज्ञाय मां मर्त्यं कुरुतेऽचर्चाविडम्बनम् ॥ " २४४॥
टीका - “चित्तशुद्धिः सर्व भूतात्म दृष्टैयव भवतीति वक्तु केवल प्रतिमादिनिष्ठां निन्दन्नाह । अहमिति सप्तभिः । अच्चैव विडम्बनमनुकरणम् । अच्चायं पूजा विडम्बनमिति वा । अवज्ञोपेक्षाद्वेष निन्दाः क्रमेण चतुर्भािनविध्यन्ते ॥
मैं समस्त भूतों में अवस्थित हूँ। मेरी अचज्ञा करके जो मानव मेरी प्रतिमा की अर्चना करता है, वह मेरी अवज्ञा ही करता है ।
यहाँपर “भूतेषु’ शब्द से वक्ष्यमाण रोति के अनुसार अप्राणि जीव से आरम्भ कर श्रीभगवान्
E
[[१७८]]
“यो मां सर्व्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमीश्वरम् ।
हित्वा भजते मौढ्याद्भस्मन्येव जुहोति सः ॥ २४५॥
मोढ्यात शैली दारुमयी वा काचित् प्रतिमेयमिति मूढबुद्धित्वाद् यः सर्वेषु भूतेषु वर्त्तमानं परमात्मानमोश्वरं मां हित्वा तस्या मयैक्यमविभाव्य अचीं मदीयां प्रतिमां भजते, केवल- लोकरीति-दृष्ट्या तस्यै जलादिकमर्पयति । यथाग्निपुराणे दशरथ मारितपुत्रस्य तपरिवनो विलापे-
“शिलाबुद्धिः कृता किंवा प्रतिमायां हरेर्मया । किं मया पथि दृष्टस्य विष्णुभक्तस्य कर्हिचित् ॥ २४६॥ तन्मुद्राङ्कित देहस्य चेतसा नारदः कृतः । येन कर्म्मविपावेन पुत्रशोको ममेदृशः ॥ २४७ ॥ इति । यथा चोक्तं पाद्य
उन सब को जानना होगा । अर्थात् अप्राणि जीव से आरम्भ कर
में जो लोक आत्म समर्पण किये हैं, श्रीभगवान् के ऐकान्तिक भक्त के मध्य में किसी की अवज्ञा करने पर मेरी अवज्ञा होती है । कारण, उक्त जीव समूह
में मैं अन्तर्यामी रूप से अवस्थान करता हूँ । अतएव उक्त प्राणिवर्ग के प्रति अवज्ञा करने पर उस उस देह में विद्यमान मेरी अवज्ञा होती है, उस प्रकार अवज्ञा करके जो भी व्यक्ति मेरो प्रतिमा की अर्चना करते हैं, वे सब मेरी अवज्ञा करते रहते हैं । कारण भा० ३ २६ २२ में आपने कहा है-
[[8]]
(FF
“यो मां सर्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमीश्वरम् ।
हित्वाच भजते मौढयाद् भस्मन्येव जुहोति सः ॥ २४५॥
टीका-हित्वा उपेक्षा ।
जो मानव, सर्वभूत में अन्तर्य्यामी रूप में अवस्थित ईश्वर स्वरूप मुझ को परित्याग पूर्वक प्रतिमा में साक्षात् भगवद्बुद्धिका अभाव वशतः शिल-मयी, काष्ठमयी प्रतिमा बुद्धि पोषण करता है । वह मूर्ख है, उस मूर्खतादोष से उस के द्वारा अनुष्ठित अर्चना भस्माहुति में पय्र्यवसान होती है। अभिप्राय यह है कि- सर्व भूत में अन्तर्य्यामी रूप में विद्यमान परमेश्वर के सहित प्रतिमा की ऐक्य भावना न करके जो व्यक्ति मेरी प्रतिमा की पूजा करता है, वह व्यक्ति तत्त्वानभिज्ञ है, अतः केवल लोक रीति दृष्टि से उक्त प्रतिमादि में जलार्पण करता रहता है । अर्थात् प्रतिमा सेवक के हृदय में जो सर्वभूतान्तर्थ्यामी विद्यमान है, वह ही प्रतिमा रूप में मदीय गृह में अवस्थित हैं, इस प्रकार बुद्धि न होने के कारण प्राणि द्वारा होती है । जिस प्रकार अग्नि पुराण में वर्णित है- मृगभ्रान्ति से अन्धमुनि के पुत्र सिन्धु मुनि को वृन्द की अवज्ञा उस के श्रीदशरथ महाराजने मारा था, तब तपस्वी प्रवर अन्धमुनिने इस प्रकार कह कर विलाप किया था ॥
“शिलाबुद्धिः कृता किंवा प्रतिमायां हरेर्मया ।
कि मया पथि दृट्टस्य विष्णुभक्तस्य कर्हिचित् ॥ २४६ ॥
तन्मुद्राङ्कितदेहस्य चेतसा नादरः कृतः
येन कर्म्मविपाकेन पुत्रशोको ममेदृशः ॥ २४७॥ इति ।
अर्थात् मैंने कभी भी क्या श्रीहरि की प्रतिमा में शिला बुद्धि की है। किंवा पथ के मध्य में भगवद् भक्त समुचित हरिनामाक्षर शङ्ख चक्रादि चिह्नाङ्कित विष्णु भक्त को देखकर क्या मैंने कभी मनसे अनादर किया है ? जिस कर्म फल से मेरा यह पुत्रशोक उपस्थित हुआ । शास्त्र में और भी वर्णित है-श्रीभक्ति सन्दर्भः
“अच्छे विष्णौ शिलाधीगुरुषु नरमति वैष्णवे जातिबुद्धिः विष्णोर्वा वैष्णवानां कलिमलमथने पादतीर्थ *ऽम्बुबुद्धिः । शुद्ध तन्माम्नि मन्त्रे सकलकलुष हे शब्दसामान्यबुद्धि-
विष्णौ सर्वैश्वरेशे तदितरसमधीर्यस्य वै नारकी सः ॥ २४८ ॥
[[१७६]]
तस्य च मूढस्य मद्दृष्टयभावात् सर्व्वभूतावज्ञापि भवति । ततस्तद्दोषेण भस्मनि यथा जुहोति कश्चित् तथा तस्याश्रद्दधानस्य फलाभाव इत्यर्थः । ( गी० १७३१) “ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः” इत्यादुयक्तरीत्या लोकपरम्परा मात्रजात - यत् षिः श्चिद्धासद्भावे तु कनिष्ठ - भागवतत्वमेव, (भा० ११।२।४७) -
“अर्चायामेव हरये पूजां यः श्रद्धयेहते ।
न तद्भक्तेषु चान्येषु स भक्तः प्राकृतः स्मृतः ॥ २४६॥
“अच्च्ये विष्णौ शिलाधी गुरुषु नरमतिवैष्णवे जातिबुद्धि- विष्णोर्वा वैष्णवानां कलिमलमथने पादतीर्थेऽम्बुबुद्धिः । शुद्धे तन्नाम्नि मन्त्रे सकलकलुषहे शब्दसामान्य बुद्धि-
विष्णौ सर्व्वेश्वरेशे तदितरसमधीर्यस्य वं नारकी सः ॥ २४८॥
जो मानव श्रीविष्णु प्रतिमा में शिला बुद्धि करता है । श्रीभगवन् मन्त्रोपदेष्टा वा भजन शिक्षादाता श्रीगुरुवर्ग में साधारण मनुष्य बुद्धि करता है, वैष्णव में जाति बुद्धि करता है । विष्णु अथवा वैष्णव वृन्द के कलिमलमथनकारी चरणामृत में साधारण जलबुद्धि करता है, परम पवित्र सकलपाप हारी भगवन्नाम एवं मन्त्र में साधारण शब्द बुद्धि करता है, सर्वश्वर गण के द्वारा आराध्यपदारविन्द श्रीविष्णु में सामान्य देवता बुद्धि करता है, वह व्यक्ति, निश्चय ही नारकी है। एतादृश मूर्ख की भगवत् प्रतिमा में भगवद् दृष्टि न होने के कारण, सर्व भूत के प्रति अवज्ञा होती रहती है । अतएव सर्व भूतावज्ञादोष के कारण, भस्म में आहुति प्रदान करने पर जिस प्रकार निष्फल होता है, उस प्रकार शास्त्रीय श्रद्धाविहीन व्यक्ति के द्वारह अनुष्ठित भगवत् प्रतिमा पूजा से भी फललाभ नहीं होता है। भगवद् गीता के १७११ में उक्त है-
है-कि
“ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण ! सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥”
टीका - ननु आसुरसर्गमुक्त्वा तदुपसंहारे “यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्त्तते कामचारतः । न स सिद्धि- मवाप्नोति न सुखं न परां गति ॥” इति त्वयोक्त’ तत्राहमिदं जिज्ञासे इत्याह ये इति, ये शास्त्र विधि- मुत्सृज्य काम चारतो वर्त्तन्ते किन्तु काम भोग रहिताएव श्रद्धयान्विताः सन्तो यजन्ते, तपोयज्ञज्ञानयज्ञ जप यज्ञादिकं कुर्वन्ति । तेषां का निष्ठा का स्थितिः, किमालम्बनमित्यर्थः । तत् किं सत्त्वं, आहोस्वित् रजः, अथवा तमः, तत् ब्रूहीत्यर्थः ।
श
हे कृष्ण ! जो लोक, शास्त्र विधि परित्याग पूर्वक लौकिक श्रद्धायुक्त हृदय से उपासना करते हैं, उनकी वह निष्ठा, सात्त्विकी, राजसी अथवा तामसी है ? इत्यादि प्रमाण से लोक परम्परारीति से यदि प्रतिमा पूजन में किञ्चित् श्रद्धा होती है तो, वह कनिष्ठ भागवत लक्षण में पर्य्यवसित होता है । कारण, भा० ११।२।४७ में उक्त है
“अच्चयामेव हरये पूजां यः श्रद्धयेहते ।
न तदभक्त ेषु चान्येषु स भक्तः प्राकृतः स्मृतः ॥ २४६ ॥
[[१८०]]
[[307]]
इत्युक्तेः, यद्यपि यथा कथचिद्भजनस्यैवावश्यं फलावसानता स्त्येव, तथापि झटिति न भवतीत्येव । तथोक्तं वक्ष्यते च साफल्यम् (भा० ३।२६।२५) –अर्चादावर्चयेतावत्” इत्यादिना । अवज्ञामात्रस्य तादृशत्वे सुतरान्तु (भा० ३।२६।२३)
F
“द्विषतः परकाये मां मानिनो भिन्नदर्शिनः ।
भूतेषु बद्धवैरस्य न मनः शान्तिमृच्छति ॥ २५० ॥
भित्रदर्शिनः सर्व्वत्रान्तर्याम्येकत्वदृष्टिरहितस्य सर्व्वतोऽत्यन्तमेव विलक्षणः श्रीमान् व्रजसार्व्वभौमनन्दनस्तं न पश्यत्य भिन्नदर्शी, तस्येत्यर्थः । अतएव मानिनः, अतएव बद्धवैरश्य च । तथा च महाभारते -
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टीका-अर्चायां प्रतिमायां, पूजामीहते- करोति, न तद् भक्तषु अन्येषु च सुतरां करोति । प्राकृतः – प्रकृतप्रारम्भः । अधुनैव प्रारब्ध भक्तिः, शनैरुत्तमो भविष्यतीत्यर्थः ॥
जो मानव, श्रीहरि सन्तोषार्थ श्रद्धायुक्त हृदय से प्रतिमा में ही पूजा करता है, अथच भगवद् भक्त वृन्द के प्रति अथवा साधारण जीववृन्द के प्रति सम्मान आदर बुद्धि नहीं करता है, वह प्रकृत भक्त है, अर्थात् उस का भक्ति मार्ग में प्रवेश सम्प्रति ही हुआ है । अर्थात् लौकिकी श्रद्धायुक्त भगवत् प्रतिमा सेवक को कनिष्ठ भागवत मानना होगा । यहाँ ‘श्रद्धा’ शब्द से लौकिको श्रद्धा को जानना होगा । शास्त्र तात्पर्थ्य अवधारण जनित श्रद्धा होने पर भगवद् भक्त एवं प्राणिमात्र के प्रति आदर बुद्धि होती। इस प्रकार कनिष्ठ भागवत भी श्रीगुरुपादाश्रय पूर्वक भागवद् धर्माध्ययन करने पर समय पर उक्त भागवत में परिगणित हो सकता है ।
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यद्यपि यथा कथञ्चित् भजन से भी अवश्य फललाभ होता है, तथापि प्राणि मात्र के प्रति आदर बुद्धि न होने से सत्वर फल लाभ नहीं होता है । भा० ३।२६।३५ में उक्त है-
“अचर्चादावच्र्चयेत् तावदीश्वरं मां स्वकर्मकृत् । यावन्न वेद स हृदि सर्वभूतेष्ववस्थितम् ॥
剪
टोका - तर्हि किम् अचदावचनमनर्थकमेव ? नेत्याह–अर्चादाविति सर्वभूतेष्ववस्थितं मां स्वहृदि यावन्न वेदो स्वकर्मकृत् - स्वकर्माविरोधेन । यथावकाशम् । अनेन कर्मनिष्ठाया अपि स एवावधिरित्युक्तं भवति ।
is
जब तक निज हृदय में एवं सर्वभूतों में अन्तर्य्यामिरूप में अवस्थित परमेश्वर का अनुभव नहीं होता है, तब तक निज वर्णाश्रमोचित धर्माचरण के अविरोध से प्रतिमा में मेरो अर्चना करनी चाहिये । इससे प्रतिमा पूजा का साफल्य वणित हुआ है । जब अवज्ञा ही एतादृश दोषावह है, तब सर्वभूतों में द्वेषभाव कितना दोषा वह है, वह अवर्णनीय है ॥ भा० ३।२६ २३ में श्रीकपिल देवने कहा है-
“द्विषतः परकाये मां मानिनो भिन्न दर्शिनः ।
भूतेषु बद्ध वैरस्य न मनः शान्तिमृच्छति ॥ " २५०।
‘भिन्नदशिनः ’ - शब्द से सर्वत्र अन्तर्यामी अवस्थित होने पर जो एकत्व दृष्टि है, उस प्रकार एकत्व दृष्टि रहित को जानना होगा । एवं सव प्रकार से अत्यन्त ही विलक्षण श्रीव्रजसार्वभौमनन्दन श्रीकृष्ण हैं, उनको विशेष रूप से नहीं देखता है, अर्थात् अभिन्न रूप से ही देवता है । उसकी मानसिक शान्ति नहीं होती है । अर्थात् जो लोक, समस्त भूतों में अन्तर्यामी रूप में मैं विद्यमान हूँ । इस प्रकार एकत्व दृष्टि
'
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पितेव पुत्र करुणो नोद्व जयति यो जनम् । विशुद्धस्य हृषीकेशस्तस्य तूर्णं प्रसीदति ॥ २५१॥ इति
किञ्च, ( भा० ३।२६।२४) -
“अहमुच्चावचैद्रव्यैः क्रिययोत्पन्नयानघे ।
नैव तुष्येऽच्चतोऽच्चयां भूतग्रामावमानिनः ॥ २५२ ॥
अवमानिनो निन्दाकर्तुः, निन्दापि द्वेषसमा, किंवा (भा० ११।२३।३) -
“न तथा तप्यते विद्धः पुमान् वाणेहि सः
यथा तुदन्ति ममस्था ह्यसतां परुषेषवः ॥ " २५३ ॥
(urlo शाह)
इत्युक्तरीत्या ततोऽधिकेति, नायं व्युत्क्रम इत्यभिप्रेत्य न द्वेषात् पूर्व्वमसौ पठिता ।
सम्पन्न नहीं होता है, एवं धार्मिक अभिमानापन्न होकर अभिमानी होता है, उस से प्राणि मात्र के प्रति द्व ेष भाव भी पुष्ट होता है, उसकी मानसिक शान्ति कभी भी नहीं होता है। महाभारत में उक्त कथन के अनुरूप कथन है-
“पितेव पुत्र करुणो नोद्वेजयति जो जनम् ।
विशुद्धस्य हृषीकेश स्तस्य तूर्णं प्रसीदति” ॥ २५१॥
पुत्र के प्रति करुण पिता माता के तुल्य जो व्यक्ति किसी को उद्घोग प्रदान नहीं करता है, उस पवित्र हृदय भक्त के प्रति भगवान् हृषीकेश अति सःवर प्रसन्न होते हैं । इस से प्रतीत होता है कि - प्राणि मात्र को उद्वेग प्रदान कारी व्यक्ति के प्रति भगवान् सत्वर प्रसन्न नहीं होते हैं । भा० ३।२६।२४ में श्रीकपिल देवने कहा भी है-
“अहमुच्चावचंद्र व्यंः क्रिययोत्पन्नयानघे ।
नैव तुष्येऽच्चितोऽच्चयां भूतग्रामावमानिनः ॥ २५२ ॥ टीका-द्रव्यैरुत्पन्नया क्रियया । भूतग्रामावमानिनः - तन्निन्दकस्य ।
अयि पवित्र स्नेह मयि जननि ! प्रचुरतर गुण सम्पन्न अनेकानेक द्रव्य द्वारा अनुष्ठित क्रिया के द्वारा प्रतिमा में अचित होकर भी प्राणी मात्र की निन्दा कारी व्यक्ति के प्रति मैं कदापि प्रसन्न नहीं होता हूँ । इस निन्दा को द्वेष के समान हो जानना होगा । ‘अवमानिनः’ शब्द का अर्थ निन्दुक है । अथवा भा० ११।१३।३ उक्त है—
" न तथा तप्यते विद्धः पुमान् वाणैह मर्म्मगैः । यथा तुदन्ति ममस्था ह्यसतां परुषेषवः ॥” २५३॥
टीका-कुत इत्यत आह-नेति । यथा ममस्था मर्मस्वेव नित्यं स्थिताः । परुषोक्ति रूपा इषव- स्तुवन्ति व्यथयन्ति तथा इतरे वाणा न तुदन्ति । अतस्तैस्तथा न तप्यते - इत्यर्थः ॥
ि
भगवदुक्ति के अनुसार द्वेष से निन्दा में दुःखाधिक्य होता है । अतएव कपिलदेव के वाक्य में द्व ेष का वर्णन करने के बाद ही निन्दा का प्रसङ्ग हुआ है, उस से क्रमभङ्ग दोष नहीं हुआ है । कारण, द्व ेष से भी निन्दा अत्यन्त दुःखदायी है । यहाँ का अभिप्राय यह है कि- सर्वत्र ईश्वर बुद्धि न होने के कारण, भक्ति में अश्रद्धालु व्यक्ति के पक्ष में भूतमात्र के प्रति आदर शून्य होकर श्रीभगवत् प्रतिमा में पूजन करने से दोषोल्लेख हुआ है । अनन्तर भक्ति श्रद्धा का आविर्भाव के हेतु रूप सर्वत्र ईश्वर बुद्धि के कारण रूप में स्वधर्म युक्त होकर श्रीभगवत् प्रतिमा में अर्चन करने का उपदेश दिया गया है । सर्व भूत में अनादर आचरण होने पर भी “श्रीभगवत् प्रतिमा अच्चन की अव्यर्थता स्वीकृत हुई है । अर्थात् वर्णाश्रमोचित धर्म
[[१८२]]
श्रीभक्ति सन्दर्भः
तदेवमीश्वर - ज्ञानाभावाद्भक्तावश्रद्दधानस्य दोष उक्तः । अथ तच्छुद्धा हेतु तज्ज्ञानस्य स्वधर्म्म संयुक्त तदचनमेव कारणमुपदिशंस्तादृश। चर्च्चनस्याप्यव्यर्थतामङ्गीकरोति (भा० ३।२६।२५
“अदावर्च्चयेत्तावदीश्वरं मां स्वकर्मकृत् ।
यावन्न वेद स्वहृदि सर्व्वभूतेष्वव स्थितम् ॥ " २५४ ॥
तावदेव स्वकर्मकृत् सन्न चर्चादावर्च्चयेद्यावत् सर्व्वभूतेष्ववस्थितमीश्वरं मां न वेद, न जानाति अत्र स्वकर्म्म सहायत्वमजातश्रद्धस्य, शुद्धभक्तावनधिकारात् । तत् प्रतिपादयिष्यते (भा० १११२०।२७ ) – “जातश्रद्धो मत्कथासु” इत्यादिना । अतो भगवज् ज्ञानादूर्ध्वं जात- श्रद्धस्तु स्वकर्मकृत् सत् न अर्चयेत्, किन्तु शुद्धमर्चादिकमेव कुर्वीतेत्यायातम् । तच्च प्रति पालन पूर्वक श्रीभगवत् प्रतिमा की पूजा करते करते क्रमशः भक्ति में श्रद्धा होती है एवं सर्वत्र भगवत् सत्ता की उपलब्धि भी हो सकती है । इस अभिप्राय से ही भा० ३।२६।२५ में लिखित हुआ है-
" अचदावच्चयेत्तावदीश्वरं मां स्वकर्मकृत् ।
यावन्न वेद स्वहृदि सर्व्वभूतेष्ववस्थितम् ॥ " २५४ ॥
टीका - तहि कि अर्चादावचनमनर्थकमेव ? नेत्याह-अर्चादादिति । सर्वभूतेष्ववस्थितं मां स्वहृदि यावन्न वेद । स्वकर्मकृत् कर्माविरोधेन । यथावकाशम् । अनेन कर्म निष्ठाया अपि स एवावधिरित्युक्त
ं भवति ॥”
अजातश्रद्ध व्यक्ति के पक्ष में शुद्धा भक्ति में अधिकार न होने के कारण, वर्णाश्रमाचार मम्बलित होकर प्रतिमा में अर्चन की व्यवस्था दी गई है । तब तक ही वह व्यक्ति प्रतिमा में अर्चना करे- जब सर्वत्र ईश्वर अवस्थित हैं, इसका परिज्ञान नहीं होता है । भक्ति में अजातश्रद्धव्यक्ति का अधिकार शुद्धा भक्ति में नहीं है, अतः वर्णाश्रमाचार सम्बलित होकर प्रतिमा अर्चन का आदेश दिया गया है । अभिप्राय यह है कि- जो व्यक्ति श्रीकृष्ण कथा में जातश्रद्ध है, एवं समस्त काम्य कर्मानुष्ठान में दोष दृष्टि होने के कारण- उस के अनुष्ठान के प्रति अलंबुद्धि युक्त भी हुआ है । अथच निखिल विषय भोग को दुःखात्मक जानकर भी उसको परित्याग करने में अक्षम है। इस प्रकार अवस्था प्राप्त करने के पश्चात्
प्रीति युक्त मानस से
मेरा ‘श्रीकृष्ण का’ भजन करेगा। इस का प्रति पावन भा० ११।२० २१ में उक्त है- “जातश्रद्धो मत् कथासु निर्विण्णः सर्वकर्मसु ।
वह व्यक्ति
एक
वेद दुःखात्मकान् कामान् परित्यागेऽप्यनीश्वरः ॥”
टोका - भक्तयधिकारिणो भक्ति योगमाह जातधद्ध इति नवभिः । मत्कथासु जातश्रद्धः, अतएव अन्येषु कर्मसु निर्विण्णः, उद्विग्नो, नतु तत् फलेषु विरक्तः, तदाह-वेदेति । यद्यपि वेद, तथापि तत् परित्यागेऽनीश्वरोऽशक्तः ।
अतएव समस्त भूतों में श्रीभगवान् की सत्ता की उपलब्धि करने के पश्चात् श्रद्धावान् भक्त, स्वधर्माचार युक्त होकर प्रतिमा का अच्चन न करे, किन्तु वर्ण एवं आश्रम धर्मको परित्याग कर अर्चनादि भक्तचङ्ग का अनुष्ठान करे। इस का प्रतिपादन भा० १११२०/६ में हुआ है-
“तावत् कर्माणि कुर्वीत न निविद्य ेत यावता ।
मत्कथा श्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते ॥ "
क
टीका - सावध कर्म योगमाह तावदिति - नवभिः । कर्माणि नित्यनैमित्तिकानि । यावता यावत् ।
[[१८३]]
प्रतिपादयिष्यते (भा० ११/२०१६) – " तावत् कर्माणि कुर्व्वीत” इत्यादिना, न त्वच
परित्यजे दित्यर्थः,-
–”
“प्रतिष्ठिताच्च न त्याज्या यावज्जीवं समर्चयेत् । वरं प्राण परित्यागः शिरसो वापि वर्त्तनम् ॥” २५५। इति हयशीर्षपञ्चरात्रे - विरोधात् ।
अथ स्वधर्म्म पूर्वकमर्चनं कुर्वंश्च भूतदयां विना न सिध्यतीत्याह (भा० ३।२६।२६) -
“आत्मनश्च परस्यापि यः करोत्यन्तरोदरम् ।
॥“२५६॥
तस्य भिन्नदृशो मृत्युविदधे भयमुल्वणम् ॥ " २५६ ॥
अन्तरोदर मुदरभेदेन भेदं करोति, न तु मदधिष्ठानः वेनात्मसमं पश्यति, तत्श्च क्षुधितादिकमपि दृष्ट्वा स्वोदरादिकमेव केवलं विभर्तीत्यर्थः, तस्य भिन्नदृशो मृत्युरूपोऽहमुल्वणं भयं संसारम् । निगमयति ( भा० ३।२६।२७) -
“अथ मां सर्व्वभूतेषु भूतात्मानं कृतालयम् ।
अर्चयेद्दान-मानाभ्यां मंत्र्याभिन्नेन चक्षुषा ॥ २५७ ॥
F
यावत् पर्य्यन्त भक्त साधक में भगवत् कथादि में श्रद्धा का उदय नहीं होता है, एवं ज्ञानी में ऐहिक- पारलौकिक सुख भोग के प्रति वितृष्णा का उदय नहीं होता है, तावत् काल पर्य्यन्त भक्त एवं ज्ञानी- उभय व्यक्ति को ही वर्णाश्रमोचित कर्माचरण करना चाहिये । श्रीकृष्ण ने इसका प्रति पादन उक्त भा० ११/२०१६ में किया है । किन्तु किसी अवस्था में भी श्रीभगवद्विग्रह की अर्चना को परित्याग न करे । कारण - हयशीर्ष पञ्चरात्र के विधान के सहित विरोध उपस्थित होगा । हयशीर्ष पञ्चरात्र में उक्त है-
प्रतिष्ठिताच्च न त्याज्या यावज्जीवं समच्चयेत् ।
वरं प्राणपरित्यागः शिरसो वापि कर्त्तनम् ॥ " २५५॥
अर्थात् प्राण परित्याग अथवा मस्तक छेदन होने पर भी प्रतिष्ठित श्रीभगवन्मूत्ति पूजा को परित्याग न करे । जीवन जब तक है, तब तक श्रीविग्रह पूजा करे। इस वचन के सहित विरोध उपस्थित होने के कारण, प्रतिमा पूजा का त्याग कभी भी नहीं करना चाहिये । अनन्तर स्वधर्मानुष्ठान पूर्वक प्रतिमा पूजा करने पर भी यदि प्राणिमात्र के प्रति दया का उद्रेक नहीं होता है तो, उस पूजानुष्ठान से मनोरथ सिद्ध नहीं होता है भा० ३।२६।२६ में श्रीकपिल देव ने कहा है-
“आत्मनश्च परस्यापि यः करोत्यन्तरोदरम् ।
तस्य भिन्नदृशो मृत्युविदधे भयमुल्वणम् ॥ " २५६ ॥
टीका - अन्तरा - अन्तरं भेदम्, उत् अपि, अरम् - अल्पम्, अल्पमपि भेदं यः पश्यतीत्यर्थः । यद्वा, अन्तरा मध्ये, उदरं उदरं, शरीरम् । मृत्युरहम्, तस्य भयं विदधे करोमि ।
जो मानव, निज एवं अपर के उदर के भेद से भेद बुद्धि करता है, किन्तु सर्व भूत में मैं विद्यमान हूँ, इस प्रकार दृष्टि से आत्मसम नहीं देखता है, तज्जन्य अपर को क्षुधार्त्त अथवा पिपासार्त्त देखकर भी केवल निज उदर पूरण ही करता है, अर्थात् अपर को क्षुधार्त्त देखकर भी उसको भोजन देकर केवल निज उदर पूरण करता है, उस भिन्न दृष्टि मानव के प्रति मैं मृत्यु मूर्ति धारण कर जन्म मरण स्वभावाक्रान्त संसार प्रदान करता रहता हूँ । अनन्तर भा० ३।२६।२७ स्थित कपिल देव के वाक्य के द्वारा उपसंहार करते हैं—
[[१८४]]
अथ–अतो हेतोः, यथायुक्तं यथाशक्ति दानेन तदभावे मानेन च, ‘अभिन्नेन चक्षुषा’ इति दुर्व्ववत् । तथोक्तं सनकादीन् प्रति श्रीवैकुण्ठदेवेन ( भा० ३।१६ १०) “ये मे तनुद्विजवरान् दुहतीमंदीया, भूतान्यलब्धशरणानि च भेदबुद्धया” इत्यादि, यद्वा, भिन्नेन चक्षुषान्यत्र या दृष्टिस्ततोऽतिविलक्षणया दृष्ट्या सर्वोत्कृष्ट दृष्टेत्यर्थः । तत्र सर्वेषां साधारण्येनैवार्हणे प्राप्ते विशेषयति (भा० ३।२९।२८-३३) –
“जीवाः श्रेष्ठा ह्यजीवानां ततः प्राणभृतः शुभे । ततः सचित्ताः प्रवरास्ततश्चेन्द्रियवृत्तयः ॥ २५८ ॥
“अथ मां सर्वभूतेषु भूतात्मानं कृतालयम् ।
अच्चयेद्दानमानाभ्यां मंत्र्याभिः नेन चक्षुषा ॥ " २५७॥
टीका - अथ, अतः सर्वभूतेषु कृतालयम् — कृतावासम् । अत्र हेतुः, भूतानामात्मानम् - अन्यर्थ्यामिणम्, अभिन्नेन चक्षुषा, समदर्शनेन ॥
अतएव अन्तर्यामी दृष्टि से सर्वभूत में अवस्थित मुझ को यथा शक्ति दान देकर असमर्थ पक्ष में केवल सम्मान प्रदान कर, मित्र भाव से एवं अभिन्न दृष्टि से प्राणिमात्र को सम्मान प्रदान करना चाहिये । मूल श्लोक में प्रयुक्त ‘अर्थ’ शब्द - हेत्वर्थ वाची है । उस प्रकार श्री वैकुण्ठदेव भी भा० ३।१६।१० में श्रीसनकादिक के प्रति कहे थे-
लिए
क
" ये मे तर्नाद्विजवरान् दुहतीमंदीया
भूतान्य लब्ध शरणानि च भेद बुद्धया ।
द्रक्षन्त्यघक्षतवृशो ह्यहिमन्यवस्तान्
गृध्रा रुषा मम कुशन्त्यधि दण्डनेतुः ॥ "
की के
टीका - किञ्च मे तनूः अधिष्ठानानि । कास्ताः ? द्विजवरान्, दुहतीः, दोग्ध्री र्गाः, इत्यर्थः । दुहितृ रिति पाठेऽपि गा एव विष्णुरूपात् सूर्य्यात् उत्पन्नत्वात् सूर्थ्य सुताश्च गाव, इति वचनात् । अलब्ध शरण नि-रक्षक हीनानि, भेद बुद्धया मदधिष्ठानं न भवन्तीति, पृथग् दृष्टया ये द्रक्ष्यन्ति-ईक्षन्ते । अधेन क्षता नष्टा दृष्टि येषां तान् । मदीयोऽधिकृतो दण्डनेता यो यमः तस्य गृघ्राकारा ये दूताः । अहिवत् मन्युर्येषां ते रुषा क्रोधेन कुशन्ति चञ्चुभि छिन्दन्ति ॥
घोरतर पापों से नष्ट दृष्टि, एवं सर्पतुल्य कोपन स्वभाव जन गण, मेरे अधिष्ठान स्वरूप ब्राह्मण वृन्द को एवं विष्णु मूर्ति सूर्य्य से समुत्पन्न धेनुवृन्द को एवं निराश्रय प्राणीवृन्द को भेद बुद्धि से देखते रहते हैं । उन सब को पापी गणों के दण्डकर्ता यमराज के गृघ्र तुल्य किङ्करगण क्रोधाविष्ट होकर चक्षु के द्वारा भीषण आघात करते हैं । इत्यादि प्रमाण से भगवदधिष्ठान स्वरूप गो ब्राह्मण एवं निराश्रय प्राणी वृन्दमात्र का अनादर कारी के प्रति गुरुतर अपराध जनित यमदण्ड का विधान वर्णित हुआ है । अथवा, कपिल देव कर्त्ती क कथित “ मैत्र्याभिन्नेन चक्षुषा” वाक्य का अर्थ है-भिन्न चक्षु से सम्मान करना चाहिये । अथवा, - भगवान् अर्थात्, अन्यत्र जिस दृष्टि से व्यवहार किया जाता हैं, उस से अति विलक्षण सर्वोत्कृष्ट समान जनक दृष्टि से उन सब को अदर प्रदान करे। इस प्रकार अर्थ समझना होगा ।
वहाँपर समस्त प्राणीवृन्द के सम्बन्ध में साधारण रूप से अच्चन विहित होने पर भी उक्त प्राणी वृन्द के मध्य में जिस में जिस प्रकार वैशिष्ट्य विद्यमान है- भगवान् कपिल देव उसका वर्णन किये हैं- (भा० ३।२६२८–३३)
[[131]]
श्रीभक्तिसन्दभः
तत्रापि स्पर्शवेदिभ्यः प्रवरा रसवेदिनः ।
तेभ्यो गन्धविदः श्रेष्ठास्ततः शब्दविदो वराः ॥ १५६ ॥ रूपभेदविदस्तत्र ततश्चोभय तोदतः ।
तेषां बहुपदः श्रेष्ठाश्चतुष्पादस्ततो द्विपात् ॥ २६० ॥ ततो वर्णाश्च चत्वारस्तेषां ब्राह्मण उत्तमः । ब्राह्मणेष्वपि वेदज्ञो ह्यर्थज्ञोऽभ्यधिकस्ततः ॥२६१ ॥ अर्थज्ञात् संशयच्छेत्ता ततः श्रेयान् स्वधर्मकृत् । मुक्तसङ्गस्ततो भूयान दोग्धा धर्म्ममात्मनः ॥ २६२॥ तस्मान्मय्यपिताशेषक्रियार्थात्मा निरन्तरः । मय्यपितात्मनः पुंसो मयि संन्यस्तकर्मणः ।
न पश्यामि परं भूतमकर्तुः समदर्शनात् ॥ " २६३ ॥ इति ।
[[१८५]]
पूर्व पूर्व्वस्मादुत्तरोत्तरस्मिन्नेकैक गुणाधिक्येनाधिक्यम् । धर्म्ममदोग्धा निष्काम कर्म्मा,
“जीवाः श्रेष्ठा ह्यजीवानां ततः प्राणमृतः शुभे ।
ततः सचित्ताः प्रवरास्ततश्चेन्द्रियवृत्तयः ॥ २५८ ॥ तत्रापि स्पर्शवेदिभ्यः प्रवरा रसवेदिनः ।
तेभ्यो गन्धविदः श्रेष्ठास्ततः शब्दविदो वराः ॥ २५६॥ रूपभेदविदस्तत्र ततश्चोभयतोदतः ।
तेषां बहुपदः श्रेष्ठाश्चतुष्पादस्ततो द्विपात् ॥ २६० ॥ ततो वर्णाश्च चत्वारस्तेषां ब्राह्मण उत्तमः । ब्राह्मणेष्वपि वेदज्ञो ह्यर्थज्ञोऽभ्यधिकस्ततः ॥२६१॥ अर्थज्ञात् संशयच्छेत्ता ततः श्रेयान् स्वधर्मकृत् । मुक्तसङ्गस्ततो भूयानदोग्धा धर्म्ममात्मनः ॥ २६२ ॥ तस्मान्मय्यपिताशेषक्रियार्थात्मा निरन्तरः । मय्यपितात्मनः प्रसो मयि संन्यस्तकर्म्मणः ।
न पश्यामि परं भूतमकर्त्ताः समदर्शनात् ॥” २६३ ॥ इति । St
।
टीका - तथापि यथोत्तरं मानाद्यतिशयः कार्य्यं इति वक्तुं तारतम्यमाह - जीवा इति साद्वैः षड़, भिः । अजीवानामचेतनेभ्यः । ततस्तेऽभ्योऽपि प्राणभृतः प्राण वृत्तिमन्तः । सचित्ताः–ज्ञानवन्तः । इन्द्रियाणां वृत्तयो येषु वृक्षाणामपि सूक्ष्मा इन्द्रियाणां वृत्तयः सन्त्येव । तथाहि महाभारते मोक्षधर्मेषु स्मर्थ्यते - तस्मात् पश्यन्ति पादपाः, तस्माज्जिघ्रन्ति पादपा इति । २८। प्रभूता तरुषु स्पर्शनेन्द्रिय वृत्तिरेव, अतस्तेभ्यः स्पर्श वेदिभ्यः रस वेदिनो मत्स्यादयः श्रेष्ठाः । गन्धविदो - भ्रमरादयः । शब्दविदः सर्पादयः । २६। रूपभेदविदः काकादयः । उभयतो दन्ता येषाम् । अपादेभ्यस्तेभ्यो बहुपदाः तेभ्यश्चतुष्पाद इत्यर्थः । ततो द्विपान्मनुष्यः ३० । ततस्तेषु वर्णाः ॥३१।
संशयच्छेत्ता मीमांसकः । ततोऽपि केवल स्वधर्म कृत् । मुक्त सङ्गस्य लक्षणम् - आत्मनो धर्ममदोग्धा निष्काम इत्यर्थः । ३२। अर्पिता अशेषः क्रिया अर्थ स्तत् फलानि आत्मा देहश्च येन । अतएव निरन्तरः
[[१८६]]
श्री भक्तिसन्दर्भः निरन्तरो ज्ञानाद्यव्यवहित–भक्तिः । अकर्तुरपितात्मत्वेन स्वभरणादि कर्म्मानपेक्षमाणा द् यद्भगवति भक्तिः क्रियते, तत्रापि स्वस्थ भगवदधीनत्वं ज्ञात्वा तदभिमानशून्याच्च, समदर्शनाद्भगवदधिष्ठानतासाम्येनात्मवत् परेष्वपि हितमाशंसमानात् । ‘जीवाः श्रेष्ठा ह्यजीवानाम्’ इत्यादिना भेदो हि विवक्षितः । ततो मद्भक्तेष्वेवादरब हुत्यादिकं कर्त्तव्यम्, अन्यत्र तु यथाप्राप्त यथाशक्ति चेति भावः । तथैवोक्तम् (भा० ३।२६।३४)
“मनसैतानि भूतानि प्रणमेद्बहुमानयन्
अव्यवहितः, अकत्तू : कर्तृत्वाभिमान शून्यात् । ३३ । जीवानां कलया परिकलनेन अन्तर्थ्यामितया प्रविष्ट इति दृष्टचत्यर्थः ॥३४॥
अर्थात् अचेतन पदार्थ से सचेतन पदार्थ, उससे बोध शक्ति युक्त, उस से इन्द्रिय वृत्ति युक्त, उस के मध्य में स्पर्शवेदी, उस से रसज्ञ, उससे शब्दज्ञ, उससे रूप भेदज्ञ उससे मुख के निम्न एवं उद्धर्व में दन्त विशिष्ट, उस के मध्य में बहुपद, उस से चतुष्पद, उससे द्विपद मनुष्य, उस के मध्य में ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र वर्णचतुष्टय, उस के मध्य में ब्राह्मण श्रेष्ठ है, ब्राह्मण के मध्य में वेदज्ञ, वेदज्ञ के मध्य में वेदतात् पर्य्याभिज्ञ अधिक श्रेष्ठ है, उस से संशयच्छेत्ता, उस से स्वधर्माचरणकारी श्रेष्ठ है, तन्मध्य में निष्काम धर्मा चरण कारी श्रेष्ठ है, उस से जो व्यक्ति, ज्ञानादि साधन के प्रति आदर न करके अशेष क्रिया एव क्रिया फल भगवान् को अर्पण करता है, वह भक्त, श्रेष्ठ है । हे मङ्गल मूर्ति जननि । जो व्यक्ति मुझ में सर्व प्रकार से आत्म समर्पण किया है एवं निज देह भरण पोषण निमित्त प्रयत्न न करके एक मात्र भगवान् मुझ में भक्ति करता है । एवं सर्वभूत में भगवदधिष्ठान बोध से अपने के समान हिताकाङ्क्षी है, उस प्रकार भक्त से अपर कोई प्राणी श्रेष्ठ नहीं हैं ।
।
पूर्व पूर्व शरीरों से उत्तरोत्तर शरीरों का श्रेष्ठत्व एक एक गुणाधिक्य से है । अर्थात् ज्ञान विकाश के तारतम्य से ही कनिष्ठ एवं उत्तम भेद निरूपित हुआ है। धर्ममदोग्धा - शब्द का अर्थ है, धर्माचरण के विनिमय से अपर वस्तु ग्रहण न करना । अर्थात् भोग प्राप्ति के निमित्त त्याग न करना अर्थात् निष्काम कर्म्मा । निरन्तर शब्द का अर्थ है- मुक्ति हेतु ज्ञानादि के द्वारा अव्यवहित भक्ति होना आवश्यक है । अकर्त्ता :- का अर्थ है, भगवदपितात्मा होने के कारण, निज पालन पोषणादि निमित्त प्रयत्न शून्या अर्थात् भगपितात्मा होकर केवल भगवत् परिचर्या में ही अभिनिविष्ट होना चाहिये । उस में भी अपने को भगवदधीन अर्थात् दास स्वरूप जानकर ही भगवत् परिचर्य्या करे । इस में भी निज कर्तृत्व अभिमान शून्य होना चाहिये। समदर्शन शब्द का अर्थ है - सर्वत्र भगवत् अधिष्ठान रूप समता के कारण जिस प्रकार निज के प्रति शुभाकाङ्क्षी होना पड़ता है, उस प्रकार प्राणी मात्र के प्रति हिताकाङ्क्षी होना कर्त्तव्य है । कथनारम्भ में लिखित है-
कु
“जीवाः श्रेष्ठा ह्यजीवानां ततः प्राणभृतः शुभे ।
सतत सचित्ताः प्रवरास्ततश्चेन्द्रियवृत्तयः ॥”
अर्थात् अजीवों से जीव गण श्रेष्ठ हैं, इस प्रकार ज्ञान विकाश के तारतम्य से ही शरीरधारियों में भेद है । समस्त प्राणीयों से भगवद् भक्त में असमोर्ध्व ज्ञान का विकाश होता है, अतः भक्त ही श्रेष्ठ है, उक्त भक्त वृन्द के प्रति ही बहुल आदर प्रदान करना अवश्य कर्त्तव्य है । एवं अन्यान्य प्राणीवृन्द के प्रति भी यथा योग्य सम्मान प्रदर्शन करना चाहिये ।
उक्त अभिप्राय से ही भगवान् कपिलदेव ने कहा है-
शे
[[१८७]]
ईश्वरो जीवकलया प्रविष्टो भगवानिति ॥ २६४ ॥ इति ।
जीवकलया तत्तनकलनया तदन्तर्यामितयेत्यर्थः । अत्र ( गी० २६) “समोऽहम्” इत्यादि- गीतापद्यमपि स्मर्त्तव्यम् । तदेवं प्रथमोपासकानां सर्व्वभूतादरो विहितः । सश्रद्ध साधकानान्तु भगवद्वं भव-सा त्रिकता-स्फुर्त्या भवत्येवासौ । यथोक्तं स्कान्दे-
" एते न ह्यद्भुता व्याध तवाहिंसादयो गुणाः । हरिभक्तौ प्रवृत्ता ये न ते स्युः परतापनः ॥ १६५ । इति वक्ष्यमाणरीत्या शुद्धबन्धुत्वादि - भावसाधकानामपि बन्धुभावसिद्ध-श्रीगोकुलवास्यादि- शीलानुसरणेन तादृश-भगवद्गुणानुसरणेन चासौ जायते । जातभावानां त्वहिंसा च परमश्च स्वीय एव स्वभावः । यथा ( भा० १।१८।२२)
“यत्रानुरक्ताः सहसैव धीरा, व्यपोह्य देहादिषु सङ्गमूढम् ।
व्रजन्ति तत् पारमहंस्यमन्त्यं, यस्मिन्नहिंसोपरमः स्वधर्म्मः ॥ " २६६॥
“मनसैतानि भूतानि प्रणमेद् बहुमानयन् ।
ईश्वरो जीव कलया प्रविष्टो भगवानिति ॥ २६४॥
टीका - जीवानाम कलया - परि कलनेन, अन्तर्थ्यामितया प्रविष्ट इति दृष्टच ेत्यर्थः ॥
ईश्वर, प्राणि मात्र में जीवनियामक रूप में प्रविष्ट हैं, इस प्रकार मानस सङ्कल्प करके समस्त प्राणियों को बहु सम्मान पूर्वक मान प्रदान करे । यहाँ ज्ञातव्य यह है कि - उपासना में प्रथम प्रवृत्त साधक के पक्ष में प्राणी मात्र के प्रति आदर भाव रखना होगा । यह अनिवार्य विधि है । साधु शास्त्र एवं गुरु- वाक्य में श्रद्धायुक्त साधक के पक्ष में किन्तु सर्वत्र ही भगवद् वैभव बुद्धि होती है, अतः स्वतः ही उनके द्वारा सर्व भूतादर सम्पन्न होता है । स्कन्द पुराण में उक्त है-
एतेन ह्यद्भुता व्याधतवाहिंसादयोगुणाः, ।
हरिभक्तौ प्रवृत्ता ये न ते स्युः परतापिनः ॥ २६५॥
व्याध के प्रति पर्वत मुनि ने कहा- हे व्याध ! तुम्हारे में अहिंसा प्रभृति जो कुछ गुण दिखाई देते हैं, इस से आश्चर्यान्वित होने का विषय नहीं है । कारण, जो लोक, हरि भक्ति में प्रवृत्त होते हैं, वे सब दूसरे को उद्वेग प्रदानकारी नहीं होते हैं। इस से हरि भक्ति में प्रवृत्त व्याध की सर्वत्र भगवद् विभूति स्फूर्ति का उदाहरण प्रस्तुत हुआ है । वक्ष्यमाण रीति के अनुसार विशुद्ध बन्धुभावाकान्त साधक वृन्द के पक्ष में भी प्राणी मात्र के प्रति प्रियता स्वतः ही उपस्थित होती है । अर्थात् जो लोक श्रीकृष्ण में ईश्वरत्व का अनुसन्धान न करके केवल पुत्र, सखा, प्रिय, स्वरूप विशुद्ध जातीय भाव स्थापन पूर्वक भजन करते हैं, उनके द्वारा अनुष्ठित बन्धुभाव में नित्यसिद्ध श्रीगोकुल वासियों का अनुसरण विद्यमान होने के कारण, सर्वत्र बन्धु भावोचित भगवद् गुणों के अनुसरण हेतु सर्व जीवों में अर्थात् सर्वत्र प्रियता बुद्धि स्वभावतः ही उदित होती है। जिन साधकों में श्रीभगवद् भाव अर्थात् भगवत् प्रीति का उदय हुआ है, उन में किन्तु अहिंसा एवं उपरति स्वरूप-निज असाधारण स्वभाव ही होता है । उस विषय में भा० १।१८।२२ में श्रीसूत की उक्ति यह हैं-
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यत्रानुरक्ताः सहसैव धीरा, व्यप्योह्य देहादिषु सङ्गमूढम् ।
व्रजन्ति तत् पारमहंस्यमन्त्यं, यस्मिलहिंसोपरमः स्वधर्म्मः ॥ " २६६ ॥
श्रीभक्तिसन्दर्भ
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इत्यनुसारेण परम सिद्धानाञ्च, (भा० ११।२।४५) “सर्व्वभूतेषु यः पश्येद्भगवद्भावमात्मनः” इत्याद्यनुसारेण सिद्ध एव सः । तत्र साधकानां यत्तु (भा० ४।३१।१४ ) “यथा तरोर्मूलनिषेचनेन” इत्यादौ तदन्योपासनानां पुनरुक्तत्वमुपलभ्यते, तत् पुनः केवल-स्वतन्त्र-तत्तद्दृष्टोपासनानामेव । अत्र तु तत्तदधिष्ठानक भगवदुपासनमेव विधीयते । तदादरावश्यकत्वञ्च तत्सम्बन्धेनैव
टीका - धीराः सन्तः । ऊढ़ - घृतम् । अन्त्यं परमकाष्ठाप नं, तदाह, यस्मिन्नहिंसा उपशमश्च स्वाभाविको धर्म्मः ॥
श्रीभगवान् में अनुरक्त साधुवृन्द देहादि में आसक्ति परित्याग पूर्वक अन्त्य पारमहंस्य पदवी में आरोहण करते हैं । अर्थात् ज्ञानी एवं भगवत भेद से परमहंप पदवी द्विविध हैं । उस के मध्य में श्रीभगवान् में अनुरक्त साधुवृन्द ’ अन्त्य पारमहंस्य’ पदवी में आरोहण करते हैं । जिस पदवी में आरोहण करने से स्वभाव सिद्ध अहिंसा एवं उपरम उदित होते हैं। इस दृष्टान्त के द्वारा भगवान् में जात रति भक्त वृन्द के अहिंसा एवं उपरति जो स्वभावसिद्ध धर्म हैं, उसका प्रदर्शन हुआ ।
परमसिद्ध भागवतवृन्द में उक्त धर्म सिद्ध ही है । भा० ११।२।४५ में वर्णित है-
“सर्वभूतेषु यः पश्येद् भगवद् भावमात्मनः ।
भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमः ॥ "
टीका - यद्धर्म्म इत्यस्योत्तरमाह त्रयेण, सर्वभूतेष्विति । आत्मनः स्वस्य सर्वभूतेषु ब्रह्मभावेन समन्वयं पश्येत् । तथा ब्रह्मरूपे आत्मनि अधिष्ठाने भूतानि च यः पश्येत् । यद्वा, आततत्वात् प्रमातृत्वादात्मा हि परमो हरिरिति तन्त्रोक्तेरात्मनो हरेः सर्वभूतेषु मशकादिष्वपि नियन्तृत्वेन वर्त्तमानस्य भगवद् भावं निरतियैश्वय्र्यमेव जो पश्येत् — नतु तस्य तारतम्यम् । तथा आत्मनि हरावेव भूतानि च यः पश्येत् । कथम्भूते ? भगवति, अप्रच्युतैश्वर्य्यं रूपे । न पुन र्जड़ मलिन भूताश्रयत्वेन जाड्यादि प्रसक्तचा ऐश्वर्य्यादि प्रच्युतिं पश्येत् । स सर्वत्र परिपूर्णं भगवत्तत्त्वं पश्यन् भागवतोत्तम इत्यर्थः ।
अर्थात् जो व्यक्ति, चेतन अचेतन सर्वभूत में निज अभीष्ट भगवत् सत्ता का अनुभव करता है, एवं सर्वभूत् को भगवदाश्रित रूप में जानता है। तृतीयतः निज अभीष्ट दास्य, सख्य वात्सल्यादि भगवद् भाव के मध्य में जो भाव है, उस भाव की सत्ता की उपलब्धि चेतन अचेतन प्राणीमात्र में करता है, वह उत्तम भागवत है । इस उक्ति के अनुसार भागवत में सर्वत्र भगवत सत्तादि का अनुभव विद्यमान होने के कारण हिंसादि दृष्टि का अभाव-स्वभावतः ही सिद्ध होता है । उस में भी भा० ४।३१।१४ में वर्णित है-
यथा तरोर्मूल निषेचनेन तृप्यन्ति तत् स्कन्ध भुजोपशाखा ।
प्राणोपहाराच्चयथेन्द्रियाणां तथैव सर्वार्हणमच्युतेज्या ॥”
टीका - किञ्च नाना कर्मभिस्तत्तद् देवता प्रीति निमित्त न्यपि फलानि हरेः प्रीत्या भवति, केवलं तत्तद् देवताराधनेन तु न किञ्चिदिति सदृष्टान्तमाह तथेति । मूलात् प्रथम विभागाः स्कन्धाः, तद्विभागाः- भुजाः, तेषामपि उपशाखाः, उप लक्षणमेतत्, पत्र पुष्पादयोऽपि तृप्यन्ति । न तु मूलसेकं विना ताः स्व स्व निषेचनेन । प्राणस्योपहारो भोजनं, तस्मादेव, इन्द्रियाणां तृप्तिः, नतु तत्तदिन्द्रियेषु पृथक् पृथगन्नलेपनेन । तथाच्युताराधनमेव सर्व देवताराधनं, न पृथगित्यर्थः ॥
साधक भक्त गणों के पक्ष में, वृक्ष मूल में जल सेचन करने से जिस प्रकार उस की स्कन्ध भुज शाखादि में तृप्ति आ जाती है, उस प्रकार श्रीविष्णु की आराधना करने से ही निखिल देवगण की उपासना होती है, अतएव श्रीविष्णु भिन्न देवतान्तर की उपासना करने का उपदेश पुनरुक्त दोष युक्त होता है ।
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सम्पद्यते । तच्चान्यत्र झटिति रागद्वेषनिवृत्त्यर्थमिति ज्ञेयम् । अतएव केवलभूतानुकम्पया श्रीभगवदर्चनं त्यक्तवतो भरतस्यान्तरायः । तस्माद्भूतदयैव भगवद्भक्तिर्मुख्या नार्च्चनमिति निरस्तम् । तथैव तदव्यवहितपूर्व्वं निर्गुण भक्त्युपायत्वेन (भा० ३।२६।१५) “क्रियायोगेन शस्तेन नातिहिंस्र ेण नित्यशः” इत्यत्र ‘अति’ - शब्देन पाश्चरात्रि काचन-लक्षणक्रियायोगार्था पत्र- पुष्पावचयादि-लक्षणा किचित् हिंसापि विहिता । तस्मादन्येषामनादरो न कर्त्तव्यस्तत् अर्थात् श्रीविष्णु की उपासना करने से ही जब देवतान्तर की उपासना हो जाती है तब अन्यदेवता की उपासना करने का प्रयोजन ही क्या है ? उत्तर में कहते हैं— केवल स्वतन्त्र ईश्वर बुद्धि से ही ‘पृथक् भाव से’ देवतान्तर की उपासना, भक्ति साधक के पक्ष में दोषावह है, अतः अकर्त्तव्यता का प्रतिपादन किया गया है । इस प्रकरण में किन्तु उक्त ब्रह्मादि से आरम्भ कर प्राणीवृन्द में भगवान् की उपासना करने की विधि है । प्राणिमात्र को आदर प्रदान करना एकान्त कर्त्तव्य तो है ही, उस प्रकार आदर प्रदान भी श्री भगवत् सम्बन्ध से ही सम्पन्न हो सकता है । भगवद् दृष्टि से सर्वभूत को आदर प्रदान करने से अति सत्वर अन्यत्र रागद्व ेष की निवृत्ति भी हो जायेगी। इस अभिप्राय से ही भगवद् से ही सर्वभूतों को आदर प्रदान करने का उपदेश हुआ है ।
अतएव केवल भूतगण
के प्रति अनुकम्पा करने के निमित्त अत्याविष्टचित्त होकर श्रीभगवदर्चन परित्याग करने से भरत महाशय के द्वारा आचरित भगवद् भक्ति में विघ्न उपस्थित हुआ था । तज्जन्य जो लोक कहते हैं कि - भूतदया ही मुख्य भगवद् भक्ति है, श्रीभगवद् विग्रह की पूजा करना मुख्य भक्ति नहीं है, यह कथन भरत महाशय के दृष्टान्त के द्वारा ही निरस्त हुआ ।
अतएव इस के पहले श्री कपिल देवने जो कहा है, भूतमात्र के प्रति अनादर करके भगवद्विग्रह की पूजा करने से अतिशय दोष होता है, उसमें भी उन्होंने भा० ३।२६।१५ में कहा है-
“निषेविता निमित्तेन स्वधर्मेण महीयसा ।
क्रियायोगेन शस्तेन नाति हित्रण नित्यशः ॥”
टीका- “एवम्भूताया भक्तेः साधनान्याह पञ्चभिः । निषेवितेन सम्यगनुष्ठितेन, अनिमित्तेन, स्वधर्मेण नित्यनैमित्तिकेन, महीयसा श्रद्धादयुक्तन, क्रियायोगेन पञ्चरात्राद्य क्त पूजा प्रकारेण, निष्कामेण ।”
निर्गुण भक्ति योग लाभ हेतु निष्काम भाव से सम्यगनुष्ठित स्वधर्माचरण करना एवं प्रबल तर श्रद्धा के सहित नित्य अनुष्ठित अतिशय हिंस शून्य निष्काम क्रिया योग के द्वारा श्रीभगवन्मूति की उपासना करना एकान्त कर्त्तव्य है । उक्त उक्ति में “नातिहिस्र ेण” पद का उल्लेख है । अर्थात् अतिशय हिंसा न करके नारद पञ्चराज्योक्त विधि के अनुसार अर्चनादि लक्षण क्रिया योग के द्वारा भगवद्विग्रह की पूजा करे । इस में भगवद्विग्रह पूजा हेतु “पत्र पुष्प अवचयन रूप” हिंसा भी विहित हुई है। कारण, अतिशय हिंसा न करे, इस प्रकार उल्लेख होने से कुछ हिंसा करने का विधान स्वतः ही प्राप्त होता है, किन्तु वह हिंसा निज देहेन्द्रिय तृप्ति के निमित्त विहित नहीं हुई है, किन्तु भगवद् भक्ति रक्षा के निमित्त जितनी हिना की आवश्यकता पड़ेगी, उसको करने की सम्मति देते हैं। यह हिंसा सात्त्विकी हिंसा है, इस से दोष नहीं होता है, वस्तुतः भक्ति अङ्ग पूजन रूप कार्य पोषण हेतु गुण हो होता है । भगवक्ति के अनुकूल्य से सात्त्विकी उद्भिज्ज जाति की हिंसा न करने से श्रीभगवद् भक्तयङ्ग श्रीभगवद् विग्रह सेवादि अनुष्ठान नहीं हो सकता है ।
‘अतएव अन्यभूतों का अनादर न करे, भगवदधिष्ठान दृष्टि से सर्वभूतों को आदर प्रदान करे ।’
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सम्बन्धेनादरादिकञ्च कर्त्तव्यम् । स्वातन्त्र्येणोपासनन्तु धिक्कृतमिति साध्वेवोक्तम्- “अविस्मितं तं परिपूर्णकामम्” इत्यादि । देवाः श्रीमदादिपुरुषम् ॥