१८१ १०५
वस्तुतस्तु (भा० १०।१४।४)
(१०५ ) “श्रेयः सूति भक्तिमुदस्य ते विभो
क्लिश्यन्ति ये केवलबोधलब्धये ।
तेषामसौ क्लेशल एव शिष्यते
[[१५५]]
की
नान्यद्यथा स्थूल- तुषावघातिनाम् ॥ २०६॥
टीका च - “भक्त विना च ज्ञानं नैव सिद्ध्यतीत्याह– श्रेय इति । श्र ेयसामभ्युदयाय- वर्गलक्षणानां सृतिः सरणं यस्याः सरस इव निर्झराणां ताम्, ते तव भक्तिमुदस्य त्ववत्वा
प्रयोजन ही कथा है ? इस से प्रतिपन्न होता है कि- भक्ति मार्ग में स्वल्प मात्र भी परिश्रम नहीं है ॥ १०४०
१८२ १०५
भा० १०।१४।४ श्रीब्रह्माने श्रीकृष्ण को वास्तविक तत्थ्य कहा है-
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(१०५) " श्रेयः सृति भक्तिमुदस्य ते विभो
क्लिश्यन्ति ये केवलबोधलब्धये
तेषामसौ क्कु शल एव शिष्यते
नान्यद्यथा स्थूल - तुषावघातिनाम् ॥ २०६ ॥
।
क
टीका - भक्त विना ज्ञानन्तु नैव सिध्येदित्याह । श्रेयः सृतिमिति । श्रेयसामभ्युदयापवर्ग लक्षणानां, सृतिः, सरणं यस्याः, सरस इव । निर्झराणाम् । तां ते तव भक्तिमुदस्य - त्यक्त, वा, श्रेयसांमार्गभूतामिति वा । तेषां क्लशलः क्लेश एवावशिष्यते । अयं भावः । यथा अल्प प्रमाणं धान्यं परित्यज्य अन्तः कण होनान् स्थूल धान्य भासांस्तुषानेव अवध्नन्ति तेषां न किञ्चित् फलम्, एवं भक्ति तुच्छीकृत्य ये केवलोबोधाय प्रयतन्ते तेषामपीति ॥४॥
एक और ज्ञान मार्ग जिस प्रकार अतिशय श्रम साध्य है, दूसरी ओर भक्ति की सहायता व्यतीत ज्ञान कभी भी स्वतन्त्र रूप से किसी प्रकार फल प्रदान में सक्षम नहीं होता है । हे विभो ! जो लोक, निखिल मङ्गल जननी भक्ति को तुच्छ बुद्धि से अनादर करके, केवल बोध लाभ हेतु क्लशस्वीकार करते रहते हैं, उन सब का वह प्रयत्न केवल क्ल ेशदायी ही होता है । धान्य का परिमाण स्वल्प देखकर अनादर करके जो लोक स्थूल तुषावघातन में यत्नवान् होते हैं, उन सब के पक्ष में तुष अत्रहनन जनित हस्त वेदनालाभ ही सार होता है, उस प्रकार अल्पश्रमसाध्य भक्ति साधन में अनादरकारी ज्ञान साधन रत व्यक्ति का भी पण्डश्रम ही होता है ।
श्रीधर स्वामिपाद की व्याख्या इस प्रकार है-भक्ति के विना ज्ञान भी सिद्ध अर्थात् फल प्रद नहीं हो सकता है । इस अभिप्राय से ही “श्रेयसृति” श्लोक कहते हैं। भक्तिरसाविष्ट श्रीब्रह्मा भक्ति का विशेषण प्रदान किये हैं । " श्रेयसृति” अर्थात् सरोवर से निर्गत निर्झर समूह के समान जिस भक्ति से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चतुर्वग निर्गत होते रहते हैं । एवम्भूत निखिल मङ्गल जननी आपकी भक्ति को परित्याग कर जो लोक, ज्ञान साधन के निमित्त प्रयत्नशील होते हैं, उनको केवल क्लेश लाभ होता है। यहाँ का अभिप्राय यह है कि - जिस प्रकार अल्प परिमाण धान्य परित्याग करके अन्तः कण हीन स्थूल धान्याभासराशि को जो लोक अवधातन करते रहते हैं । उनको परिश्रम व्यतीत अपर कुछ भी फल लाभ नहीं होता है । उस प्रकार भक्ति को तुच्छ मानकर केवल बोधलाभ हेतु जो लोक प्रयत्न करते हैं, उनको तपस्या संयम, एवं शास्त्राध्ययन जनित केवल श्रम लाभ ही होता है । यह है टीकाकार का कथन ।
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श्रीभत्ति सन्दर्भः श्रेयसां मार्गभूतामिति वा । तेषां क्लेशलः क्लेश एवावशिष्यते । अयं भावः - यथा अल्पप्रमाणं धान्यं परित्यज्य अन्तःकण– हीनान् स्थूलधान्य भासांस्तुषानेव येऽवघ्नन्ति तेषां न किञ्चित् फलम् एवं भक्त तुच्छीकृत्य ये केवल बोधाय प्रयतन्ते तेषामपि” इत्येषा । अत्र ‘विभो ’ इतिवत् केवल शुद्धेत्यपि सम्बोधनम्, असौ दृश्यमानः क्लेशलः, सन्नद्यासादीन्येवेति च ज्ञ ेयम् । श्रीगीतासु च (१३३८) - “श्रीभगवानुवाच- अमानित्वम्” इत्यादिकं ज्ञानयोगमार्ग– मुपक्रम्य, मध्ये (गीता० १३।१०) “मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी” इत्यप्युक्त्वा,
।
भक्ति के विना ज्ञान जो दुखदायी है, उसका कथन श्रीमद् भगवद् गीता १३- ८ से ११ में है ‘अमानित्वमदम्भित्वं इत्यादि ज्ञन योग को उपक्रम करके मध्य में “मयि चानव्य योगेन भक्ति व्यभि- चारिणी अर्थात् मेरे प्रति अनन्य उपाय से अव्यभिचारिणी भाक्ति योग होना आवश्यक है। इस का उल्लेख कर के अवशेष में “तत्त्वज्ञानार्थ दर्शनम्” अर्थात् तत्त्व ज्ञान का फल स्वरूप आत्मदर्शन है, इस प्रकार समापन करके भी “एतज् ज्ञान मिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा” अर्थात् अनन्य उपाय से अव्यभिचारिणी भक्ति ही यथार्थ ज्ञान शब्द वाच्य है । मेरे प्रति भक्ति शून्य जो ज्ञान है, वह ज्ञान अज्ञान संज्ञा में परिगणित होता है । अतएव भक्ति योग भिन्न ज्ञान कभी भी ज्ञान शब्द वाव्य नहीं हो सकता है। उक्त त्रयोदश अध्याय के अन्त में अपने कहा है । “भक्त एतद् विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते” अर्थात् हे अर्जुन ! मेरा भक्त, मट्टणित ज्ञान एवं ज्ञ ेय वस्तु का यथार्थ स्वरूप को जानकर स्वरूपाविर्भावलाभ की उपयोगिता को प्राप्त करते हैं। उक्त त्रयोदश अध्याय के अन्यत्र एवं अन्य स्थल में नवमादि अध्याय में इस जातीय अभिप्राय प्रकाशित हुआ है। उस के ६।३ श्लोक में उक्त है - हे परन्तप ! भक्ति के सहित ज्ञान लक्षण धर्म को आस्तिक्य रूपमें ग्रहण न करने पर साधारण मानवगण उपायान्तर द्वारा मुझ को प्राप्त करने का प्रयत्न कर के भी मुझ को प्राप्त न कर मृत्यु सकुल संसार पथ में परि भ्रमण करते रहते हैं।
यहाँपर श्लोकोक्त “धर्मस्यास्य” पदस्थ ‘अस्य’ पद का अर्थ इस प्रकार है–’ सततं कीर्त्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः । अर्थात् हे अर्जुन ! कतिपय उत्तम अधिकारी व्यक्ति स्त्रोत्र मन्त्रादि के द्वारा मेरी सेवा करते हैं, कोई कोई अधिकारी व्यक्ति, देह सङ्कल्प से ईश्वर ज्ञानानि एवं इन्द्रिय संयमादि में प्रकृष्ट यत्न युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं । कुछ व्यक्ति, भक्ति युक्त मानस से सतत प्रणाम के द्वारा मेरी उपासना करते हैं। इस श्लोक में भक्ति धर्म की कथा कही गई है । अतएव भक्ति साधन का आश्रय व्यतीत अपर किसी भी साधन से माया बन्धन से निष्कृतिप्राप्ति नहीं हो सकती है। अतएव मुदगल प्रभृतियोंने सुस्पष्ट रूप से भक्ति साधन की कथा न कहने पर भी जन्मान्तर में उन सबों ने जो साधन भक्ति का अनुष्ठान किया था । वह अवश्य ही जानना होगा ।
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गीता के श्लोक समूह की व्याख्या इस प्रकार है-
“अमानित्वमदम्भित्व महसा क्षान्ति रार्जवम् । आचार्योपासनं शौचं स्थैर्य्यमात्म विनिग्रहः ॥७॥ इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च । जन्म मृत्यु जरा व्याधि दुःख दोषानु दर्शनम् ॥८॥ असक्ति रनभिष्वङ्गः पुत्र दार गृहादिषु । नित्यञ्च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥६॥ मयि यानन्य योगेन भक्ति व्यभिचारिणी । विविक्त देश सेवित्वमरति र्जन संसदि ॥१०॥
श्रीभक्ति सन्दर्भः
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प्रान्ते ( गी० १३।११) “तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्” इति समाप्याह ( गी० १३।११) — एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा” इति । ततो भक्तियोगं विनाज्ञानं न भवतीत्यर्थः । अतोऽन्तेऽप्युक्त. म्
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वंतत्त्व ज्ञानार्थ दर्शनम् ।
एतज् ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥ ११ ॥
[[1]]
टीका- अथोक्ताद्विभिन्नत्वेन ज्ञयं क्ष ेत्रज्ञद्वयं विस्तरेण निरुपयिष्यन् तज् ज्ञ’न साधनान्यमानित्वादीनि विशतिमाह पञ्चभिः, अमानित्वं स्वसत्कारानपक्षेत्वम् । अदम्भित्वं धार्मिकत्वस्यातिफलक धर्माचरण विरहः, अहिंसा - परापीड़नम्, क्षान्तिरपमानसहिष्णुता, आर्जवं छधिरपि सारत्यम्, आचार्योपासनं - ज्ञान प्रदस्य गुरोरकैतवेन संसेवनम् शौचं वाह्याभ्यन्तरपावित्र्यम् -‘शौचञ्च द्विविधं प्रोक्त वाह्याभ्यन्तरं तदा । मृज्जलाभ्यां स्मृतं बाह्य भावशुद्धिस्तथान्तरम्” इतिस्मृतेः, स्थेय्यं सद् वत्मैक निष्ठत्वन, आत्म विनिग्रह आत्मानुसन्धिप्रतीपाद् विषयान्मनसो नियमनम्, इन्द्रियार्थेषु शब्दादि विषयेषु प्रतीपेषु वैराग्यं रुच्यभावः, अनहङ्कारो देहादिष्वात्माभिमानत्यागः, जन्मादिषु दुःखरूपस्य दोषस्यानुदर्शनम्, पुनः पुनश्चिन्तनम्, पुत्रादिषु परमार्थप्रतीपेष्वसक्तिः– प्रीतित्यागः, अनभिष्वङ्गस्तेषु सुखिषु दुःखिषु च सत्सु तत् सुखदुःखानभिनिवेशः, इष्टा निष्टानामनुकूल प्रति कूलानामर्थानामुपपत्तिषु प्रातिषु समचित्तत्वं, हर्षविषाद विरहः, नित्यं सर्वदा, मयि परेशेऽव्यभिचारिणी स्थिरा भक्तिः श्रवणाद्या- अनन्य योगेनैकान्ति त्वेन मद्भक्त सेवा, तथा विविक्त देश सेवित्वं निर्जनस्थान ‘प्रयता, जनानां ग्राम्याणां संसदि रतित्यागः, अध्यात्ममात्मनि यज्ज्ञानं तस्य नित्यत्वं सर्वदा विमृश्यत्वम्, तत्त्वं त्वहमेव परं ब्रह्म-
“वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् ।”
।
इत्यादि स्मृतेः ज्ञानस्य योऽर्थस्तत् प्राप्तिलक्षणस्तस्य दर्शनं हृदि स्मरणम् । एतदमानित्वापादकं ज्ञानं परम्परया साक्षाच्च तदुपलब्धि साधनं प्रोक्तम्– (ज्ञायते उपलभ्यतेऽनेन । इति व्युत्पत्तेः, यत्ततोऽन्यथा विपरीतं मानित्वादि तदज्ञानं तदुपलब्धि विरोधीति ॥”
सारार्थ वर्षिणी टीका- “उक्त लक्षणात् क्षेत्रात् विविक्ततया ज्ञेयौ जीवात्मपरमात्मानौ क्षेत्रज्ञौ विस्तरेण वर्णयिष्यन् तज्ज्ञानस्य साधनादि अमानित्वादीनि विंशतिमाह पश्वभिः । अत्र अष्टादश, भक्तानां ज्ञानिनाञ्च साधारणानि, किन्तु भक्तैः, मयि चान य योगेन भक्तिरव्यक्ति चारिणी, इत्येकमेव भगवदनुभव साधनत्वे यत्नतः क्रियते । अन्यानि सप्तदश, उक्ताभ्यासवतां तेषां स्वतएवोत्पद्यन्ते न तु तेषु यत्नः, इति साम्प्रदायिकाः । अन्तिमे द्व ेतु ज्ञानिनामसाधारणे एव । अत्र अमानित्व दीनि विष्पष्टार्थानि । शौचं बाह्य- माभ्यन्तरञ्च तथा च स्मृतिः - शौचं द्विविधं प्रोक्तं वाह्यमाभ्यन्तरं तथा मृज्जलाभ्यां स्मृतं वाह्य भावशुद्धि- स्तथान्तरां इति । आत्म निग्रहः - शरीर संयमः ॥७॥
जन्मादिषु दुःखरूपस्य दोषस्यानुदर्शनं पुनः पुनः पर्य्यालोचनं, असक्तिः पुत्रादिषु प्रीतित्यागः । अनभिष्वङ्ग, पुत्रादीनि सुखे दुःखे चाहमेव सुखो दुःखीत्याध्य. साभावः । इष्टानिष्टयो व्यावहारिकयो- रूपपत्तिषु प्राप्तिषु नित्यं सर्वदा समचित्तत्वम् ॥८६॥
मयि श्यामसुन्दराकारे अनन्ययोगेन ज्ञानकर्मतपो, योगाद्यमिश्रणेन भक्तिः, चकारात् ज्ञानावि मिश्रण प्राधान्येन च आद्याभक्तैरनुष्ठेया- द्वितीया ज्ञानिभिरिति केचित् । अन्ये तु अनन्याभक्ति र्यथाप्रेग्नः स धनं तथा परमात्मानुभवस्यापीति ज्ञापनार्थमत्र षट् के प्युक्तिरिति भक्ता व्याचक्षते । ज्ञानिनस्तु अनन्येन योगेन सर्वात्म दृष्टया इति । अव्यभिचारिणी प्रतिदिनमेव कर्त्तव्या । केनापि निवारयितुमशकचा इति मधुसूदन सरस्वती पादाः ॥१०॥
आत्मानमधिकृत्य वर्त्तमानं ज्ञानं अध्यात्मज्ञानं तस्य नित्यत्वं नित्यानुष्ठु यत्वं पदार्थ शुद्धिनिष्ठत्व
[[१५८]]
( गी० १३।१८) — ‘मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते” इति । तत्रान्यत्र च ( गी० ६।३) -
“अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।
अप्राप्य मां निवर्त्तन्ते मृत्युसंसार - वर्त्मनि ॥ २०७॥
मित्यर्थः । तत्त्वज्ञानस्यार्थः प्रयोजनं मोक्षस्तस्य दर्शनं स्वाभीष्टत्वेनालोचनमित्यर्थः । एतद्विशतिकं ज्ञानं साधारण्येन जीवात्म परमात्मनोः, ज्ञानस्य साधनं । असाधारणं, परमात्मज्ञानं त्वग्र े वक्तव्यम् । ततोऽन्यथा अस्माद्विपरीतं मामित्यादिकम् ॥११॥
अमानित्व, दम्भ होनत्व, अहिंसा, क्षान्ति, आर्जव अर्थात् सरलता, आच योपासन, अर्थात् गुरुसेवा, शौच, स्थैर्य्य, आत्मनिग्रह, इन्द्रिवेद्य विषयों में वैराग्य, अहङ्कार शून्यता, जन्म, मृत्यु जरा व्याधि दुख प्रभृति में दोष दर्शन, असक्ति अर्थात् पुत्रादि में आसक्ति शून्यता, पुत्रादि के सुख दुख में औदासीन्य, सर्वदा समचित्तत्व, मुझ श्री कृष्ण में अव्यभिचारिणी भक्ति, विविक्त स्थान में अवस्थिति, जनाकीर्ण स्थान में अरति, अध्यात्म ज्ञान में नित्यत्वबुद्धि, ।
तत्त्व ज्ञान का प्रयोजन रूप मोक्षानुसन्धान, यह विशति प्रकार प्ररत्न को अनभिज्ञ व्यक्ति गण क्षेत्र विकार मानते हैं। वस्तुतः ऐसा नहीं है, यह सब प्रत्येक ज्ञान स्वरूप हैं, इन सब को अवलम्बन करने से विशुद्ध तत्त्व लाभ होता है, अतः यह सब क्षेत्र विकार नहीं होकर क्षेत्र विकार नाशक औषध स्वरूप हैं । उक्त विशति प्रकार के मध्य में मुझ में अनन्यअव्यभिचारिणी भक्ति ही एकमात्र अवलम्बनीय है, ऐसा होने पर ऊर्जावशति प्रकार आचरण, भक्ति का अवान्तर फलरूप में उदित होते हैं, एवं क्षेत्र को शुद्ध कर- नित्यसिद्ध क्षेत्र प्राप्ति के ओर अग्रसारित करते हैं। भक्ति देवी का सिंहासन स्वरूप उक्त ऊनविंशति प्रकार प्रयत्न को सविज्ञान ज्ञान समझना होगा, भक्ति सम्पर्कव्यतीत अपर यावतीय प्रयत्न अज्ञान संज्ञा से विभूषित हैं । कारण, भक्ति योग के विना ज्ञान होना सम्भव ही नहीं है, प्रकरण का उप संहार करते हुये गो० १३०१८ आपने कहा है-
“इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयञ्चोक्त समासतः ।
मद् भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥ १८ ॥”
टीका–उक्त क्षेत्रादिकं अधिकारि फल सहित मुपसंहरति- इतीति । क्षेत्रं महाभूतादि, ज्ञानं अमानित्वादि तत्त्व ज्ञानार्थ दर्शनान्तं ज्ञेयं ज्ञान गम्यञ्च अनादीत्यादि धिष्ठितमित्यन्तं । एकमेव तत्त्वं ब्रह्म भगवत् परमात्मा शब्द वाच्यञ्च संक्षेपेणोक्त । मदक्तः भक्तिमज् ज्ञानी, मद्भावाय मत्सायुज्याय । मयि भावाय । प्रेम्ने उपपद्यते उपपन्नोभवति ॥१२॥
F
हे अर्जुन ! मैंने तुम्हारे निकट संक्षेप से क्षेत्र, ज्ञान एवं ज्ञेय - तत्त्वत्रय का वर्णन किया । इस कह नाम हो विज्ञान समन्वित ज्ञान है । मदीय भक्त वृन्द, मणित ज्ञान एवं ज्ञेय वस्तु को जानकर मुझ में निरुपाधिक प्रेमभक्ति को प्राप्त करते हैं । कारण एक ही अद्वय तत्त्व, ब्रह्म, परमात्मा भगवान् नाम से अभिहित है, भक्ति हीन व्यक्ति गण स्वरूपावबोधात्मक ज्ञान लाभ करने में असमर्थ हैं। भक्ति देवी का पाद पीठ स्वरूप ज्ञान है, भक्ति देवी को आश्रय करने से अनायास जीवात्मा की स्वत्त्वशुद्धि होती है। गी० ६३ में भी कथित है-
S
‘अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तपः !
अप्राप्य मां निवर्त्तते मृत्युसंसार वर्त्मनि ॥२०७॥
टीका - नन्वेवमस्य धर्मस्याति सुकरत्वे सति को नाम संसारी स्यात् । तत्राह । अश्रद्धधानःः । अस्येति ।भोभक्ति सन्दर्भः
[[१५६]]
अस्य ( गी० ६११४) “सततं कीर्त्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः” इत्यादिपूर्वोक्त-लक्षणस्येत्यर्थः । अतएवास्फुट-भक्तीनां मुद्गलादीनामपि कृतचरी साधनभक्तिरनुसन्धेया ॥ ब्रह्मा श्रीभगवन्तम् । १०६ । आश्रयान्तर-स्वातन्त्र्यानादरेणाह (भा० ६ाहा२२) -
(१०६) “अविस्मितं तं परिपूर्णक मं, स्वेनैव लाभेन समं प्रशान्तम् ।
विनोपसर्पत्यपरं हि बालिशः, श्व- लाङ्गुलेनातितिति सिन्धुम् ॥ २०८ ॥
PER
he
कर्म्मणि षष्ठो आर्षो । इमं धर्मं अश्रद्दधानाः, शास्त्र वाक्यैः प्रति पादितं भक्तः सर्वोत्कर्षं स्तुत्यर्थ वादमेव मन्यमाना आस्तिक्येन न स्वीकुर्वन्ति । ये ते उपायान्तरैर्मत् प्राप्त ये कृतप्रयत्ना अपि मामप्राप्य मृत्युवाप्त े संस रवत्र्त्मनि नितरामतिशयेन वर्त्तन्ते ॥३॥
हे परन्तप ! भक्ति के सहित ज्ञान लक्षण धर्म को अस्तिवय बुद्धि से ग्रहण न करके साधारण मानव गण उपायान्तर द्वारा मुझ को प्राप्त करने का प्रयत्न करने पर भी मुझ को प्राप्त न कर मृत्यु संसार पथ में परिभ्रमण करते रहते हैं ।
इस प्रकार गीता के ६।१४ में भी कथित है
" सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः ।
नमस्यन्तश्च मां भक्तया नित्ययुक्ता उपासते ॥१४॥
टीका - " भजन्तीत्युक्तं, तद् भजनमेव किं इत्यत आह, सततं मदेति, मात्र कर्मयोग इव काल देश पात्र शुद्धाद्यपेक्षा कर्त्तव्येत्यर्थः । “न देश नियमस्तत्र न काल नियमस्तथा । नोच्छिष्टादौ निषेधोऽस्ति श्रीहरेर्नाम लुब्धके " इतिस्मृतेः । यतन्तो यतमानाः । यथा कुटुम्ब पालनार्थ दीनाः गृहस्थाः धनिक दारादौ धनार्थं यतन्तो तथैव मद्भक्ताः कीर्त्तनादि भक्ति प्राप्त्यर्थं साधु सभादौ यतन्ते, प्राप्य च भक्त अधीयमानं शास्त्रं पठतः इत्र पुनः पुनरभ्यस्यन्ती च । एतावन्ति नाम ग्रहणानि एतावत्यः प्रणतयः, एतावत्यः परिचर्य्या श्च वश्य कर्त्तव्याः- इत्येवं दृढ़ानि व्रतानि नियमाः येषां ते । यद्वा, दृढानि अपतितानि एकादश्यादि व्रतानि नियमाः येषां ते । नमस्यन्तश्च इति चकारः, श्रवण पाद सेवनाद्यनुक्त सर्व भक्ति संग्रहार्थः । नित्ययुक्ताःः भाविन मन्नित्यसंयोगं आकाङ्क्षयन्तः, आशंसायां भूतवच्चेति वर्त्तमानेऽपि भूतकालिकः क्तः प्रत्ययः । अत्र मां कीर्त्तयन्त एत्र मामुपासत इति मत्कीर्त्तनादिकमेव मदुपासनमिति वाक्यार्थः । अतो मामिति न पौनरुक्तयमाशङ्कनीयम् ॥ " १४ । ।
उक्त विद्वत् प्रतीति युक्त महात्मा भक्त वृन्द, सर्वदा मदीय नाम, रूप, गुण एवं लीलाका कीर्त्तन करते हैं । अर्थात् श्रवण कीर्त्तनादि भक्ति का आचरण करते हैं । मदीय यह सच्चिदानन्द स्वरूप का नित्य दास्यलाभ हेतु वे सब शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक क्रिया में दृढ़ व्रत होकर, मेरा अनुशीलन करते हैं । सांसारिक कर्म द्वारा चित्त विक्षिप्त न हो, तज्जन्य संसार यात्रा निर्वाह के समय भक्ति योग के द्वारा मेरी शरणापत्ति को अङ्गीकार करते हैं ।
श्रीब्रह्मा - श्रीभगवान् को कहे थे ॥ १०५ ॥