१०२

१७४ १०२

श्रीभावत्समर्पित-कर्मणोऽप्यनादरेण तु दर्शितम् (भा० ११२।१४ ) - “तस्मादेकेन मनसा” इत्यादि । श्रीगीतोपनिषत्सु च भक्त सामर्थ्य एव तद्विहितम् ( गी० १२८ - ११ )

१७५ १०१

अनन्तर भगवद् भक्ति वहिर्मुख ब्राह्मण अतिशय निन्दनीय है, - याज्ञिक ब्राह्मण गण, आत्म- धिक्कार करते करते उस विषय को भा० १०।२३।२६ में कहते हैं-

(१०१) " धिग्जन्म नस्त्रिवृद्यत्तद्विग्वतं धिग्बहुज्ञताम् ।

धिक् कुलं धिक् क्रिया दाक्ष्यं विमुखा ये त्वघोक्षजे ॥ १८६॥

टीका-त्रिवृत्-शौक्रय सावित्रं दक्षमिति जिगुप्सितं जन्म । व्रतं ब्रह्मचर्यम् क्रियाः - कर्माणि, दाक्ष्यञ्च । क्रिया दाक्ष्यमित्येकं वा पदं । धिगित्यधिक्षेपे ये वयन्तु अधोक्षजे विमुखास्तेषां जन्मादि तत् सर्वं धिगिति व्यगर्हय नित्यर्थः ।

कु

हम सब अधोक्षज श्री कृष्ण में विमुख हैं,, भक्ति विहीन हैं, सुतरां हमारे शौक्रच सावित्र्य एवं देक्ष्य तीन प्रकार जन्म को धिक्कार । अब तक हम सब जो ब्रह्मचर्य्य व्रत करते रहे हैं, उस व्रत को धिक् । बहु दर्शिता का जो अभिमान करते रहते हैं, उसको धिक् । यज्ञादि क्रिया का जो अनुष्ठान करते आ रहे हैं उस को धिक्कार, ब्राह्मण कुल में जन्म ग्रहण करने के कारण जो आत्म प्रशंसा करते रहते हैं, उस कुल को धिक्कार, अभी तक जो सब यज्ञादि अनुष्ठान करते आ रहे हैं, एवं उस कर्म में निपुणता के कारण जो अभिमान हुआ है, उस को भी शत शत धिक्कार । कारण, भगवच्चरणों में बहिर्मुख मानव वृन्द के द्वारा अनुष्ठित व्रत तपस्यादि कार्य्यं केवल घोरतर आत्माभिमान में ही पर्य्यवसित होते हैं, अतः उक्त कर्मसमूह कभी भी निज निज फल प्रदान करने में सक्षम नहीं होते हैं ।

स्वामिपादकृत टीका का अभिप्राय यह है - त्रिवृत् शब्द से शौक़ जन्म अर्थात् विशुद्ध पिता मातासे जन्म, सावित्र जन्म - अर्थात् गायत्री जन्म, एवं दक्ष–अर्थात् यज्ञ कर्म में दीक्षा ग्रहणानन्तर जो जन्म– यह त्रिविध जन्म को जानना चाहिये । व्रत का अर्थ- ब्रह्मचर्य है । क्रिया शब्द से कर्म को जानना होगा । एवं दाक्ष्य शब्द से निपुणता को जानना होगा । इस प्रकार स्वामि टीका की व्याख्या करके भा० ४।३१ १० में उक्त प्रचेतागण के प्रति श्रीनारदोक्ति का वर्णन करते हैं-

“कि जन्मभि स्त्रिभिर्वेह शौवल सावित्र याज्ञिकैः

कर्मभिर्वा त्रयीप्रोक्तः पुंसोऽपि विबुधायुषा ॥”

टीका - शुक्ल सम्बन्धि जन्म, विशुद्ध माता पितृभ्यामुत्पत्तिः, सावित्र मुपनयनेन, याज्ञिकं दीक्षया । विबुधानामिव दीर्घायुषापि ॥१०॥

जो

कुछ भी साधन सम्पत्ति एवं गुण होते हैं, उस में यदि भगवत् सम्बन्ध नहीं होता है तो वे सब ही व्यर्थ होते हैं।

याज्ञिक विप्रगण कहे थे ॥ १०१ ॥

“मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धि निवेशय । निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥ १६० ॥ अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् । अभ्यासयोगेन ततो मामिष्छाप्त धनञ्जय ॥ १६९ ॥ अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि ॥ १६२॥ अर्थतदप्यशक्तोऽसि कत्त ं मद्योगमाश्रितः ।

सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ॥ १६३ ॥ इति ।

[[१४७]]

Singe

अत्र पाद्म कात्तिकमाहात्म्येतिहासोऽनुसन्धेयः, यथा - “चोलदेशराजस्य कस्यचिद्विष्णुदास नाम्ना विप्रेण शुद्धमर्चनमेव कुर्वता सह कस्य पूर्वं भगवत् प्राप्तिः स्यादिति स्पर्द्धया बहून

१७६ १०२

अनन्तर श्रीभगवत् समर्पित कर्म का अनादर पूर्वक भक्ति का अभिधेयत्व दिखाते हैं - भा० १।२।१४ में श्रीसूत ने कहा है-

“तस्मादेकेन मनसा भगवान् सात्वतां पति ।

श्रोतव्यः कीर्त्तितव्यश्च ध्येयः पूज्यश्च नित्यशः ॥”

टीका- यस्माच्च भक्ति विहोनो धर्मः केवलं श्रम एव तस्मात् भक्ति प्रधान एव धर्मोऽनुष्ठेयः, इत्याह तस्मादिति । एकेन — एकाग्रेण मनसा ॥ १४ ॥

[[130]]

हे मुनिवृन्द ! जब धर्मानुष्ठान के द्वारा केवल परिश्रम ही सार होता है, तब भक्ति अनुष्ठान करना ही कर्त्तव्य है । अतएव एकाग्र चित्त से भक्त प्रति पालक श्रीभगवान् की लीला कथा का सर्वदाश्रवण एवं कीर्तन करना एवं श्रीभगवान् का ध्यान करना, उनकी पूजा करना एकान्त कर्त्तव्य है ।

श्रीगीतोपनिषद् के १२१८–११ में कथित है कि, विशुद्ध भक्ति अनुष्ठान करने में अक्षम होने पर भगवदपित कर्म का अनुष्ठान करे ।

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“मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धि निवेशय । निर्वासष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥११०॥ अथ चित्तं समाधातु ं न शक्नोषि मयि स्थिरम् । अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्त धनञ्जय ॥१६१॥ अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽपि मत्कर्मपरमो भव । मदर्थमपि कर्माणि कर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि ॥ १६२॥ अर्थतदप्यशक्तोऽसि कर्त्तुं मद्योगमाश्रितः । सर्व जर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ॥”

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कर

टीका - यस्मान्मद्भक्तिरेव श्रेष्ठा तस्मात्वं भक्तिमेव कुर्विति तामुपदिशति मध्येवेति त्रिभिः । एवकारेण निर्विशेष व्यावृत्तिः । मयि श्यामसुन्दरे पीताम्बरे वनमालिनि, मन आधत्स्व मत् स्मरणं कुवित्यर्थः । तथा मयि बुद्धि विवेकवतों, निवेशय– मन्मननं कुवित्यर्थः । तच्चमननं ध्यान प्रतिपादक शास्त्र वाक्यानुशीलनं ततश्व मय्येव निवसिष्यसीतिच्छान्दसं, मत् समीप एव निवासं प्राप्त्यसीत्यर्थः । ८ ।

[[१४८]]

यज्ञान् भगवदपितानपि सुष्ठु विदधतो न भगवत् प्राप्तिरभूत् । किन्तु विप्रस्य भगवत्प्राप्तौ दृष्टायां तान् परित्यज्य

साक्षात् स्मरणासमर्थं प्रति प्राप्त्युपायमाह । अथेति । अभ्यास योगेन, अन्यत्रान्यत्र गतमपि मनः पुनः पुनः प्रत्यहृत्य मद्रूप एव स्थापनमभ्यासः स एव योगस्तेन प्राकृतत्वादिति कृतु सित् रूपरसादिषु चल त्या मनोनद्यास्तेषु चलनं निरुध्य अति सुभद्रेषु मदीयरूप रसादिषु तच्चलनं शनैः शनैः सम्पादय इत्यर्थः । हे धनञ्जयेति । बहून् शत्रून् जित्वा धनमाहृतवता स्वया मनोऽपि जित्वा ध्यानधनं ग्रहीतुं शक्यमेव इति भावः ॥ ६ ॥

कश

अभ्यासेऽपीति । यथा पित्त दूषिता रसना मत्यण्डिकां नेच्छति । तथैवाविद्या दूषितं मनः त्वद्रूपादिर्कं मधुरमपि न गृह्णातीत्यतस्तेन दुग्रहेण महाप्रबलेन मनसा सहयोद्धु ं मयनै व शक्यते इति मन्यसे चेदिति- भावः । मत् कर्माणि परमाणि यस्य सः । कर्माणि मदीय श्रवण कीर्त्तन वन्दनार्चन मन्मन्दिर मार्जनाभ्युक्ष्ण पुष्पाहरणादि परिचरणानि कुर्वन् विनापि मत्स्मरणं सिद्धि प्रेमवत् पार्षदत्व लक्षणां प्रात्स्यसीति । १०

एतदपि कर्त्तुमशक्तश्चेर्त्ताह मत्योगमाश्रितः, मय सर्व कर्म समर्पणं रुद् योगस्तमाश्रितः सन् । कुरु । सर्व कर्म फलत्यागं प्रथम षष्ठोक्तं कुरु । अयमर्थः । प्रथमषष्ठे भगवदर्पित निष्कर्मयोग एव मोक्षोपाय उक्तः । द्वितीय षष्ठेऽस्मित् भक्तियोगे एव भगवत् प्राप्त्युपाय उक्तः । स च भक्ति योगो द्विविधः । भगवन्निष्ठोऽन्तः करण व्यापारो वहिष्करण व्यापारश्च । तत्र प्रथम स्त्रिविधः, –स्मरणात्मक मननात्मषश्च । अखण्ड स्मरणासामर्थ्य तदनुरागिणां । तदभ्यास रूपश्च इति त्रिक एवायं मन्दधियां दुर्गमः सुधियां निरपराधानान्तु सुगम एव । द्वितीयः - श्रवण कीर्त्तनात्मकरतु सर्वेषामेव सुगम एवोपायः । एवमुभयोपाय- वन्तोऽनधिकारिणः सर्वतः प्रकृष्टाः द्वितीय षष्ठेऽस्मिन्नुक्त्ता । एतत् कृत्यसमर्थाः इन्द्रियाणां भगवन्निष्ठी कृत्य श्रद्धालवश्च भगवदर्पित निष्कामकर्मिणः प्रथम षष्ठोक्ताधिकारिणोऽस्मानिकृष्टा एवेति ॥ ११ ॥

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हे अर्जुन ! मेरी कृपा से मेरे भक्तवृन्द, अनायाससिद्धि लाभ करते हैं। अतएव तुम सङ्कल्प विकल्पात्मक मनको मुझ में स्थिर भाव से स्थापन करो, अर्थात् जागतिक विषय को लक्ष्य करके सङ्कल्प विकल्प न करके मेरे सम्बन्ध में सङ्कल्प विकल्प करने से मेरा सन्तोष होता है । तुम तुम्हारी व्यवसायात्मिका बुद्धि का निवेश मुझ में करो । अर्थात् मेरा सन्तोष कर, असन्तोष कर कार्य को विचारकर जिस में मेरा सन्तोष होत है, उस प्रकार कार्य ही करो। इस प्रकार से मदीय विषय में सर्वदा अनुशीलन करते करते श्रीभगवद् भजन करना ही एकमात्र कर्तव्य है, श्रीभागवत् प्राप्ति हो परम पुरुषार्थ है इत्यादि प्रकार सम्यक् ज्ञान लाभ होगा। इस अवस्था में देह त्याग के पश्चात् तुम मेरे समीप में अवस्थान करोगे । इस में अणुमात्र भी संशय नहीं है । किन्तु हे धनञ्जय ! यदि स्थिर भावसे चित्त धारण करने में तुम अक्षम होते हो, तो, विक्षिप्त चित्त को वारम्बार संयत करके मेरा निरन्तर स्मरण रूप योग का अभ्यास करो । इस रीति से तुम मुझ को प्राप्त करोगे ।

(

यदि तुम उस प्रकार स्मरण करने में अक्षम होते हो, तो, एकादशी व्रत प्रभृति का अनुष्ठान करो, अर्चन एवं नाम सङ्कीर्तन प्रभृति जिस कर्म के द्वारा मेरी प्रसन्नता होती है, एकाग्र मनसे उस कर्म समूह का अनुष्ठान करो, केवल मदीय सन्तोष के निमित्त हो कर्म कर रहे हो, तज्जन्य तुम अवश्य ही मुक्त हो जाओगे । यदि तुम उस प्रकार मदीय प्रीति कर कार्य्यं करने में असमर्थ होते हो तो, मेरी शरणापन्न होकर संयत चित्त से नित्यनैमित्तिक कम समूह का फल परित्याग करो । तात्पर्य यह है कि, वर्ण एवं आश्रमोचित कार्य करना ईश्वरीय आदेश हैं, इस हेतु मैं कह रहा हूँ । किन्तु उक्त कर्म समूह के दृष्ट एवं अदृष्ट फल समूह ईश्वराधीन हैं, इस विषय में मेरा कुछ भी कर्तृत्व नहीं है। इस प्रकार भावयुक्त होकरश्रीभक्ति सन्दर्भः

[[१४६]]

‘यत्व स्पर्द्धया मया चैतद्यज्ञदानादिकं कृतम् । स विष्णुरूपधूमविप्रो याति वैकुण्ठ मन्दिरम् ॥ १६४॥ तस्माद्यज्ञश्च दानैश्च नैव विष्णुः प्रसीदति । भक्तिरेव पर तस्य निदानं तोषणे मतम् ॥१६५॥ इति मुद्गल प्रत्युक्त्वा,

विष्णौ भक्ति स्थिरां देहि मनोवाक्काय कर्मणा । त्रिरुच्चैर्व्याजहारासौ होमकुण्डाग्रतः स्थितः ॥ १९६॥ इत्युक्त्वा शुद्धभक्तिशरणतामेव मुहुर्दैन्येनाङ्गीकृत्य होमकुण्डे देहं त्यजतः पश्चादेव तत्प्राप्तिः " इति ।

योगानादरेणाह (भा० १०/५११६०) -

(१०२) “युञ्जानानामभक्तानां प्राणायामादिभिर्मनः ।

अक्षीणवासनं राजन् दृश्यते क्वचिदुत्थितम् ॥ १६७॥

उत्थितं विषयाभिमुखम् ॥ श्रीभगवान् मुचुकुन्दम् ॥

निखिल कर्म फलासक्ति को परित्याग करो, ऐसा करने पर तुम मेरी प्रसन्नता को प्राप्त करोगे ।

गीतोक्त वाक्य समूह से प्रतीत होता है कि- विशुद्ध भक्ति का अनुष्ठान करने में अक्षम होने से भगवदपित कर्म करना कर्तव्य है । वस्तृत विशुद्ध भक्ति अनुष्ठान हो भगवत् प्राप्ति का श्रेष्ठ उपाय है ।

यहाँपर पद्म पुराणीय कार्तिक माहात्म्य का इतिहास अनुसन्धेय हैं । चोलदेश के अधिपति शुद्ध अच्चनाङ्ग भक्ति का अनुष्ठान कारी विष्णु दास नामक विप्रके सहित स्पर्द्धा करके अनेक यज्ञादि कर्मानुष्ठान किये थे । और किस की भगवत् प्राप्ति पहले होगी, इस विषय में आग्रह परायण हो गये थे । किन्तु उक्त ब्राह्मण की

की भगवत्

प्राप्ति अनायास हो गई थी, यह देखकर भगवदर्पित कर्म समूह को परित्याग पूर्वक राजा

ने

कहा, -

“यत् स्पर्द्धया मया चैतद् यज्ञ ज्ञानादिकं कृतम् ।

स विष्णु रूपधृग् विप्रो याति वैकुण्ठ मन्दिरम् ॥ १६४ ॥

तस्मात् यज्ञश्च दानैश्च नंव विष्णुप्रसीदती ।

भक्तिरेव परं तस्य निदानं तोषणे मतम् ॥१६५॥

मैंने स्पर्द्धा से यज्ञ दानादि कर्म किया था, उस से विष्णु प्रसन्न नहीं होते हैं, भक्ति अनुष्ठान से विष्णु प्रसन्न होते हैं, भक्ति अनुष्ठान कारी ब्राह्मण का वैकुण्ठ लाभ सब से पहले हुआ । राजाने मुद्गल को उस प्रकार कहा, एवं होम कुण्ड के समीप में स्थित होकर इस प्रकार वाक्य उच्चारण करते करते होमकुण्ड में देहत्याग किया।

“विष्णौ भक्ति स्थिरां देहि मनोवाक् कायकर्मणा ।

त्रिरुच्चै व्र्व्याजहारासौ होमकुण्डाग्रतः स्थितः ॥१६६॥

इत्युक्त्वा शुद्ध भक्तिशरणतामेव मुहुदैन्येनाङ्गीकृत्य होमकुण्डे देहं त्यजतः पश्चादेव तत् प्राप्तिः ॥ मुझ को भक्ति प्रदान करो, तीनवार इस वाक्य को उच्चारण करके होमकुण्ड में देह त्याग किया, एवं पश्चात् भक्ति लाभ किया ।

अनन्तर योग अनादर के द्वारा भक्ति का अभिधेयत्व स्थापन करते हैं । भा० १०।५११६०

(१०२) “युञ्जानानामभक्तानां प्राणायामादिभिर्मनः ।

अक्षीणवासनं राजन् दृश्यते क्वचिदुत्थिम् ॥” १६७॥

टीका- व्यतिरेकमाह । युञ्जानानामिति । उत्थितम् त्रिषयाभिमुखम् ।”

श्रीभगवान् मुचुकुन्द महाराज के निकट भक्ति होन जन वृन्द की निन्दा के प्रसङ्ग कहे थे। जो सब

[[१५०]]