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अतएवाहुः (भा० १०।२३।३६) -

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के मध्य में प्रशंसनीय होता है । किन्तु अष्टादश शास्त्र विद्या में पारदर्शी सद्वंशसम्भूत, शान्त एवं धार्मिक ब्राह्मण भी यदि भक्तिहीन अजितेन्द्रिय होता है, तो वह प्रशंसनीय नहीं होता है

काशी खण्ड में लिखित है-

“ब्राह्मण क्षत्रियोवंश्यः शूद्रो वा यदि वेतरः । विष्णु भक्ति समायुक्तो ज्ञेयः सर्वोत्तमोत्तमः ॥ १७५॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा अपर जातीय कोई भी व्यक्ति यदि विष्णु भक्ति युक्त होता है तो उसको निखिल उत्तम जन के मध्य में उत्तम जानना जाहिये । वृहन्नारदीय पुराण में उक्त है-

“विष्णु भक्ति विहीना ये चण्डालाः परिकीर्त्तिताः ।

चण्डाला अपि ते श्रेष्ठा हरिभक्ति परायणाः ॥ १८६ ॥

जो लोक विष्णु भक्ति विहीन है। वे सब चाण्डाल नाम से अभिहित होते हैं । पक्षान्तर में, श्रीविष्णु चरण में भक्ति परायण चण्डाल श्रेष्ठ है। नारद पुराण में उक्त है-

“श्वपचोऽपि महीपाल विष्णोर्भक्तो द्विजाधिकः ।

विष्णुभक्तिविहीनी यो द्विजातिः श्वपचाधिकः ॥१८७॥

हे महाराज ! श्रीविष्णु भक्त श्वपच भी ब्राह्मण से श्रेष्ठ है । किन्तु श्रीविष्णु चरणों में भक्ति विहीन ब्राह्मण– श्वपच से अधम है। पूर्व वर्णित मूल पद्य में अर्थात् विप्राद्विषड़, गुण युतात्” इत्यादि श्लोक में कथित है - भगवच्चरणों में भक्तिमान् श्वपच निज कुल को भी पवित्र करता है । अतएव निज को पवित्र कर सकता है, यह स्वतः प्रमाणित हुआ है

भा० २।४।१८ श्लोक में श्रीशुक ने कहा है-

“किरात हूनान्ध्र पुलिन्द-पुक्कशा, आभीर- कङ्का यवनाः खसादयः ।

येऽन्ये च पापा यदपाश्रयाश्रयाः, शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः ॥ १८८ ॥

किरात, अन्ध्र, पुलिन्द, पुक्कशः आभीर शुह्म, यवन, एवं खस प्रभृति अतिनीच पापजातीय जन निकर, एवं अन्य जो सब लोक पाप कर्माचरण करते करते स्वयं साक्षात् पापमूत्ति हो गये हैं, वे सब भी श्रीभगवान के श्रीचरणाश्रित के आश्रित होकर अन्तर बाहर उभयतः ही पवित्रता को प्राप्त करते हैं । उन परम प्रभाव सम्पन्न, श्री भगवान् के श्रीचरणों में प्रणाम कर रहा हूँ ।

श्रीप्रह्लाद - श्रीनृसिंह को कहे थे ॥१००॥

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(१०१) “धिग्जन्म नस्त्रिवृद्यत्तद्वग्व्रतं धिग् बहुज्ञताम् ।

धिक् कुलं धिक् क्रिया- दाक्ष्यं विमुखा ये त्वधोक्षजे ॥ १८६॥ टीका च - “त्रिवृत् शौक सावित्र देक्षमिति तिगुणितं जन्म, व्रतं ब्रह्मचर्यम्, क्रियाः कर्माणि दाक्ष्यञ्च” इत्यादिका । तथोक्तम् (भा० ४।३१।१०) “कि जन्मभिस्त्रिभिः” इत्यादि ॥ याज्ञिकविप्राः ॥

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