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इस प्रकार भा० १।५।१७ के
श्रीशौनकादि ऋषिगण श्री सूत को कहे थे ॥६६॥
“त्वक्त्वा स्वधर्मं चरणाम्बुजं हरे भजन्न पक्वोऽथ पतेत् ततो यदि ।
यत्र क्ववा भद्रमभूदभूष्य कि को वार्थ आप्तोऽभजतां स्वधर्मतः ॥ "
टीका - “एवं तावन् काम्य कर्मादेरनर्थ हेतुत्वात् तं विहाय हरेर्लीलैव वर्णन येत्युक्तम् । इदानीन्तु नित्य नैमित्तिक स्वधर्मं निष्ठामपि अनादृत्य केवलं हरिभक्तिरेव उपदेष्व्येत्याशयेन’ हत्यत्वेति तदा न कदाचिच्चिन्ता, यदि पुनरपक्क एवम्रियेत ततो भ्रश्येद्वा तदा च स्वधर्म त्याग निमित्तोऽनर्थः स्यादित्या- शक्तचाह ततो भजनात् पतेत् कथञ्चित् भ्रश्येत् म्रियेत वा यदि तथापि भक्ति रसिकस्य कर्माधिकरात् नानर्थ शङ्का । अङ्गीकृत्याप्याह । वा शब्दः कटाक्षे । यत्र क्व वा नीचयोनावपि अमुष्य भक्तिरसिकस्य अभद्रमभूत् किं नाभूदेवेत्यर्थ । भक्ति वासना सद् भावादिति भावः । अभजभिस्तु केवलं स्वधर्मतः को बा अर्थः आप्तः प्राप्तः । अभजतामिति षष्ठी तु सम्बन्ध मात्र विवक्षया ॥
अर्थात् भजन करते करते यदि कोई साधक निज साधन पथ से देव क्रम से अपराध वशतः विभ्रष्ट हो जाता है । उस से भी विशेष अमङ्गल उपस्थित नहीं होता है । किन्तु जो लोक श्रीभगवान् के श्रीचरण पद्म का भजन को परित्याग कर केवल स्वधर्माचरण ही करते हैं, वे सब कुछ भी मङ्गल लाभ करने समर्थ नहीं होते हैं। इस से कर्म साधन से भक्ति का सुखकरत्व एवं सुफल दातृत्व प्रदर्शित हुआ है ।
पूर्व पूर्व शास्त्र वाक्य से यह प्रतीत होता है कि बहु अर्थ एवं बहु परिश्रम के द्वारा अति
परिश्रम के द्वारा अति तुच्छ स्वर्गाद फल लाभ होते हैं, किन्तु स्वल्प अर्थ एवं अल्प परिश्रम के द्वारा साध्या जो भक्ति है, उसके आभास मात्र वे द्वारा भी परम महत् फल लाभ कर सकते हैं । उक्त वाक्य समूह से बोध होता है कि-निखिल शास्त्र कह तात्पर्य भक्ति में ही है ।
यहाँपर संशय हो सकता है कि- यदि काम्य कर्मादि साधन एवं फल में पर्य्याप्त दोष है, तो परम कारुणिक शास्त्र उक्त साधनानुष्ठान करने के निमित्त आदेश प्रदान क्यों करते हैं ? उत्तर में कहते हैं-
जब तक महत् सङ्ग नहीं होता है, तब तक भक्ति के प्रति आदर बुद्धि नहीं हो सकता है । अथच आदर बुद्धि न होने पर भक्ति अनुष्ठान करने पर भी उस में आवेश नहीं होता है । तज्जन्य यावत् पर्य्यन्त महत् सङ्ग जनित सौभाग्य वशतः भक्ति में आदर बुद्धि नहीं होता है, तावत् पर्यन्त भक्ति सम्बलित कर्मादि साधनानुष्ठान करना पड़ेगा। उक्त कर्मानुष्ठान करते करते सत्सङ्ग लाभ की सम्भावना होती है । उक्त सत्सङ्ग से श्रीहरि कथा में रुचि प्राप्त करने के पश्चात् विशुद्ध भक्ति में प्रवेशाधिकार लाभ होता है । इस अभिप्राय से ही कर्म ज्ञान योगादि अनुष्ठान करने का उपदेश बारम्बार दिया गया है । इस से शास्त्रोपदेश का वैफल्य नहीं होता है। किन्तु निखिल शास्त्र का मुख्य तात्पर्य क्रममुक्ति प्र. प्ति उपाय के समान भक्ति अनुष्टान में ही है ।
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(१००) “विप्राद्विषड़ गुणयुतादरविन्दनाभ, पादारविन्द-विमुखात् श्वपचं वरिष्टम् ।
मन्ये तदर्पित-मनोवचने हितार्थ, प्राण पुनाति स कुलं न तु भुरिमानः ॥ १८१ ॥ टीका च - “भक्तैयव केवलया हरेस्तोषः सम्भवतीत्युक्तम् । इदानीं भक्ति विना नान्यत् किञ्चित्तोष हेतुरित्याह-विप्रादिति । (भा० ७ हाह) “म ये धनाभिजन रूप-तपः श्रुतौज,- स्तेजः- प्रभाव-बल- पौरुष - बुद्धि-योगाः” इत्यादौ पूर्वोक्ता ये धनादयो द्विषट् द्वादश गुणारत- र्युक्ताद्विप्रादपि श्वपचं वरिष्ठं मन्ये, यद्वा, सनत्सुजातोक्ता (महा० भा० उ० प० ४३ अ० २० ) द्वादश धर्मादयो गुणा द्रष्टव्याः, -
B
‘धर्म्मञ्च सत्यञ्च दमस्त इच, अमात्सर्यं ह्रीस्ति िक्षानसूयाः ।
भा० ७ १० में श्रीप्रह्लाद ने कहा भी है-
विप्राद्विषड़ गुग युतादरविन्द नामपादारविन्द विमुखात् श्वपचं वरिष्ठम् ।
मन्ये तदपतमनोवचने हितार्थ प्राणं पुनाति सकुलं नतु भूरिमानः ॥ १८१ ॥
टीका - “एवं भक्त्यैव केवलया हरेस्तोषः सम्भवतीत्युक्तम् । इद नीं भक्त विना नान्यत् किञ्चित् तोष हेतु रित्याह विप्रादिति पूर्वोक्ता धनादयो ये द्विषट् द्वादश गुणास्तंयु क्ताद् विप्रादपि श्वपचं वरिष्ठ
ं मन्ये यासनत्सुजातोक्ता द्वादश धर्मादयो गुणा द्रष्टव्याः । तदुक्तं महाभारते धर्मश्च सत्यञ्च दमस्तपश्च मात्सय्यं होस्तितिक्षानसूया । यज्ञश्च दानञ्च धृतिः श्रुतञ्च व्रतानि वै द्वादश ब्राह्मणस्य इति । यद्वा, शमोदमस्तपः शौचं क्षान्त्यार्जव विरक्तताः । मौन विज्ञान सन्तोषाः सत्यास्तिक्ये द्विषड़ गुणा इति । कथम्भूतात् विप्रात् ? अरविन्दनाभस्य पादारविन्दात् विमुखात्। कथम्भूतं श्वपचम् ? तस्मिन्नरविन्द नाभेऽपिता मन आदयो येन तम् । ईहितं कर्म । वरिष्ठत्वे हेतुः, स एवम्भूतः श्वपचः सर्वं कुलं पुनाति । भूरिम्र्मानो गर्यो यस्य सतु विप्रः आत्मानमपि न पुनःति, कुतः कुलम् । यतो भक्ति हीनस्यैते गुणा गर्वायैव भवन्ति न तु शुद्धये । अतो हीन इति भावः ॥”
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हे नाथ ! धनाभिजन प्रभृति अथवा धर्म सत्य प्रभृति द्वादश गुण समन्वित ब्राह्मण से श्वपच को मैं श्रेष्ठ मानता हूँ । कारण, वह ब्राह्मण, द्वादश गुण समन्वित होने पर भी हे कमल नाभ ! यदि आप के पादारविन्द से विमुख होता है, एवं श्वपच, जाति दोष दुष्ट होकर भी यदि आपके चरणों में कायिक वाचिक मानसिक व्यापार एवं अर्थ प्राण, अर्पण करता है तो वह भगवद् वहिर्मुखता दोष दुष्ट ब्रह्मण से जितने भी आप में अर्पित मनः प्राण हेतुः श्वपच को मैं श्रेष्ठ मानता हूँ । कारण, भगवत् वहिर्मुख ब्राह्मण, साधनानुष्ठान क्यों न करे, अथवा गुण सम्पन्न हो, न क्यों, उस के प्रत्येक साधनानुष्ठान के मध्य में मायिक अभिमान रहता है, उस से वह अपने को पवित्र कर नहीं सकता, कुलको पवित्र करना तो दूर है । और भक्ति अनुष्ठान हेतु दं नता प्राप्त वह श्वपच निजको पवित्र तो करता ही है, निज कुल को भी पवित्र करने में समर्थ होता है ।
स्वामिपाद कृत टीका की व्याख्या - केवल भक्ति के द्वारा ही श्रीहरि सन्तुष्ट होते हैं, इसका विवरण “भक्तचा तुतोष भगवान् गजयूथपाय श्लोक में है । भक्ति के विना श्रीहरि को सन्तुष्ट करने में कोई व्यक्ति सक्षम नहीं होता है-व्यतिरेक मुख से उसका विवरण - " विप्र द्विषड़, गुणयुतात्’ श्लोक में कहते हैं । ब्राह्मण के द्वादश गुण इस प्रकार है, धन, आभिजात्य, रूप, तपस्या, श्रुत, ओज, तेजः, प्रभाव, बल, पौरुष, बुद्धि एवं अष्टाङ्ग योग प्रभृति हैं, यह द्वादश गुण युक्त ब्राह्मण, से श्वपच को मैं श्रेष्ठ मानता हूँ । अथवा सनत् सुजातीय में कथित धर्म सत्य प्रभृति गुण सम्पन्न ब्राह्मण को ज नना होगा । द्वादश गुण इस प्रकार है-
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यज्ञश्च दानञ्च धृतिः श्रुतञ्च व्रतानि वै द्वादश ब्राह्मणस्य ॥ १८२ ॥ इति । कथम्भूताद्विप्रात् ? अरविन्दनाभ-पादारविन्द विमुखात् । कथम्भूतं श्वपच्म् ? तस्मिन्न- रविन्दनाभे अर्पिता मनआदयो येन तम्, ई हितं कर्म । वरिष्ठत्वे हेतुः स एवम्भूतः श्वपचः सर्वं कुलं पुनाति भूरि मानो गर्यो यस्य स तु विप्र आत्मानमपि न पुनाति कुतः कुलम् ? यतो भक्तिहीनस्येते गुणाः गर्वायैव भवन्ति, न तु शुद्धये, अतो हीन इति भावः’ इत्येषा 0 मुक्ताफल- टीका च - " द्विषट् द्वादश गुणाः धनाभिजनादयः, यद्वा–
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‘शम दमस्तपः शौचं क्षान्त्याज्र्ज्जव विरक्तयः । ज्ञान-विज्ञान-सन्तोषाः सत्यास्तिक्ये द्विपड़ गुणाः । ’ १८३। इत्यप्युक्ता” इत्येषा । स्कान्दे श्रीनारद वाक्यम् -
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“कुलाचारविहीनोऽपि दृढभक्तिजितेन्द्रियः । प्रशस्तः सर्वलोकानां न त्वष्टादशविद्यकः ।
काशीखण्डे च–
भक्तिहीनो द्विजः शान्तः सज्जातिर्धार्मिकस्तथा ॥ " १८४ ॥
धर्म, सत्य, दम, तपस्या, अमात्सर्य्य, ही, लज्जा, तितिज्ञा, अनसूया, यज्ञदान, घृति, श्रुत पाण्डित्य
“धर्म्मश्च सत्यञ्च दमस्तपश्व, अमात्सय्यं होस्तितिक्षानसूया ।
यज्ञश्च दानञ्च धृतिः श्रुतञ्च व्रतानि वै द्वादश ब्राह्मणस्य ॥” १८२॥
ये द्वादश व्रत, ब्राह्मण के होते हैं । १८२। इस प्रमाणके अनुसार द्वादशगुण शब्द से धर्मादि को जानना होगा । उक्त द्वादश गुण युक्त ब्राह्मण का दोष प्रदर्शन करते हैं, वह अरविन्दनाभपदार विन्द विमुख है अर्थात् श्रीहरि चरण बहिर्मुखता दोष दुष्ट है। जिस महत् गुण से श्वपच श्रेष्ठ है, उस को कहते हैं, उसने अरविन्द नाम श्रीकृष्ण में मन प्रभृति को अर्पण किया है। श्लोकोक्त ‘ईहित’ शब्द का अर्थ हैं, – कायिक कर्म, उक्त भगवद् वहिर्मुख द्वादश गुण सम्पन्न ब्रह्मण से भगवदुन्मुख श्वपच का श्रेष्ठत्व का हेतु वर्णन करते हैं । पूर्व वर्णित श्वपच कुल को भी पवित्र करता है, अपर पक्ष में प्रचुरतर मायान्य अहङ्कार विशिष्ट भगवद् वहिमुख ब्राह्मण निज को पवित्र करने में अक्षम है, कुल को पवित्र करना दूसरी बात है । कारण, भगवानु में भक्ति होन जन का गुण - मायामय अहङ्कार उत्पन्न करता हैं, किन्तु चित्त शोधन नहीं करता है, अतएव भगवद वहिर्मुख ब्राह्मण द्वादश गुण युक्त होने पर भी अतिशय हीन है । यहाँतक श्रीस्वामि पाद कृत टीका का अर्थ है ।
अथवा,
श्रीवोपदेव कृत मुक्ताफल की टीका में उक्त है कि - द्विषट् गुणाः- धनाभिजन प्रभृति द्वादश गुण हैं ।
“शमोदमस्तपः शौचं क्षान्त्यार्जव विरतय ।
ज्ञान विज्ञान सन्तोषाः सत्यास्तिवये द्विषड़ गुणाः ॥ " १८३ ॥ ।
अर्थात् शम, दम, तपस्या, शौच, क्षान्ति, सारल्य, विरक्ति, ज्ञान, (शास्त्रोत्थ) विज्ञान- (अनुभव) सन्तोष, सत्य, आस्तिक्य प्रभृति द्वादश गुणों का उल्लेख यहाँ पर है । यह है हेमाद्रिकृत टीका की व्याख्या स्कन्द पुराण के श्रीनारद वाक्य में उक्त है, -
कुलाचार विहीनोऽपि दृढभक्ति जितेन्द्रियः ।
प्रशस्तः सर्व लोकानां नत्वष्टादश विद्यकः ॥
भक्तिहीनो द्विजः शान्तः सज्जाति धमिकस्तथा ॥” १८४॥
कुल एवं आचार विहीन ज्ञान भी यदि दृढ़ भक्तिमान् एवं जितेन्द्रिय होता है, तो, वह जनसमाज
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“ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रो वा यदि वेतरः । विष्णुभक्तिसमायुक्तो ज्ञ ेयः सर्वोत्तमोत्तमः ॥ १८५॥ वृहन्नारदीये-
“विष्णुभक्तिविहीना ये चण्डालाः परिकीर्तिताः । चाण्डाला अपि ते श्र ेष्ठा हरिभक्तिपरायणाः ॥ १८६ । नारदीये च-
" श्वपचोऽपि महीपाल विष्णोर्भक्तो द्विजाधिकः । विष्णुभक्तिविहीनो यो द्विजातिः श्वपचाधिकः ॥ १८७ अत्र मूलपद्ये “कुलं पुनाति” इत्युक्ते स्वं पुनातीति सुतरामेव सिद्धम्, यथोक्तम् (भा० २।४।१८) “किरात - हूनान्ध्र पुलिन्द-पुक्कशा, आभोर- कङ्का यवनाः खसादयः ।
येऽन्ये च पापा यदपाश्रयाश्रयाः, शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः ॥” १८८ ॥ इति ।
प्रह्लादः श्रीनृसिंहम् ॥