१६८ ९६
यच्च तत्र ज्ञानमभिधीयते, तदपि भक्तयन्तर्भूततयैव लभ्यम्, यथा ( भा० १०३१४५)
(६६) “पुरेह भूमन् बहवोऽपि योगिन स्त्वदर्पितेहा निजकर मलब्धया ।
विबुध्य भक्त्यैव कथोपनीतया, प्रपेदिरेऽज्जोऽच्युत ते गतिं पराम् ॥” १६६॥
विबुध्य
हे भुमन, इह लोके पूर्व बहवो योगिनोऽपि सन्तो योगैर्ज्ञानमप्राप्य पश्चात्त्वयि अर्पिता ईहा लौकिक्यपि चेष्टा तथापितानि यानि निजानि कर्माणि तेर्लब्धया कथा-रुचिरूपया
अविस्मृतिः श्रीधर पाद पद्मयो गुणानुवाद श्रवणादरादिभिः ॥
श्रीउद्धव— श्रीव्रजदेवीवृन्द को पहे थे ॥६५॥
१६९ ९९
श्रीमद् भागवत ग्रन्थ के प्रकरण के बीच बीच में जो ज्ञान साधन का उपदेश हुआ है, वह ज्ञान भी भक्ति साधन के अन्तर्भूत करके ही उपदिष्ट हुआ है। अर्थात् विशुद्ध भक्ति का अनुष्ठान न करने से श्रीमद् भागवत में वर्णित विमल ज्ञन को स्वतन्त्र रूप से प्राप्त करने की सम्भावना नहीं है । भा० १२॥१४॥ ५ में श्रीब्रह्मा कहे हैं-
(१६) “पुरेह भूमन् बहवोऽपि योगिनस्त्वदर्पितेहा निजकर्मलब्धया ।
विबुध्य भक्तैचव कथोपनोतया, प्रपेदिरेऽज्जोच्युत ते गति पराम् ॥ १६६॥
टीका - हे भूमन् ! अपरिच्छिन्न ! इह लोके पूर्वं योगिनोऽपि सन्तो योगैर्ज्ञानमप्राप्य पश्चात् त्वर्दापतेहाः स्वपते हा निजकर्म लब्धया विबुध्य भवत्यैव कथोपनीतया प्रपेदिरेऽज्जोऽच्युत ते गति पराम् ॥१६६॥
टीका - भक्त्यैव ज्ञानं नान्यथेत्यत्र सदाच रं प्रमाणयति पुरेति । हे भूमन् ! अपरिच्छिन्न ! इह लोके पूर्व योगिनोऽपि सन्तो योगे ज्ञनिमप्राप्य पश्चात् त्वर्दीपितेहाः त्वयपिता लौकिक्यपि ईहा चेष्टा य स्तं । निज कर्म लब्धत्वदर्पितै निजः कर्मभिर्लब्धया । त्वय्यपिता ईहा निजा ́न कर्माणि च ते लेब्धया इत्येकं पदं वा । कथोपनीतया कथया त्वत् समीपं प्रापितया भवत्यैव विबुध्य, आत्मानं ज्ञात्वा, अज्ञः सुखेनैव, ते परां गति प्राप्ताः ।
क
हे भूमन् ! अर्थात् स्वरूप एवं गुणों से सर्वथा परिपूर्ण स्वरूप ! इस जगत् में कुछ वस्तु स्त्ररूप में वृहत् है, जिस प्रकार आकाश, किन्तु गुण-एक मात्र उसमें शब्द है, कुछ वस्तु गुण से पूर्ण होने पर भी स्वरूप में क्षुद्र है, जिस प्रकार पृथिवी में शब्द स्पर्शदि पञ्चगुण होने पर भी रवरूपतः क्षुद्र है । उस प्रकार पारमार्थिक जगत्
में निर्विशेष ब्रह्म स्वरूपतः सर्वथा पूर्ण होने पर भी गुण हीन है, अर्थात् प्राकृत अप्राकृत कुछ भी गुण, – निविशेष ब्रह्म में नहीं है ।
हे नाथ ! तुम जिस प्रकार स्वरूपतः पूर्ण हो, इस प्रकार स्वरूपभूत अप्राकृत गुण राशि से भी परिपूर्ण हो । इस अभिप्राय से ही श्रीब्रह्मा ने श्रीकृष्ण को ‘भूमन् ! शब्द से सम्बोधन किया । पूर्वकाल में इस जगत में अनेकानेक महात्मा वृन्द योग साधन में प्रवृत्त होकर भी योग साधन के द्वारा ज्ञानलाभ करने में अक्षम हुये थे । पश्चात् तुम को लौकिक वैदिक उभय विध कर्म अर्पण करके निज कर्माचरण के द्वारा तुम्हारी कथा में रुचिलक्षणा भक्ति प्राप्त कर पश्चात् तुम्हारी परमा भक्ति प्राप्त कर अतिसुख पूर्वक तुम्हारे सान्निध्यरूप परम गति को प्राप्त किये थे ।
!
स्वामि पाद कृत व्याख्या का तात्पर्य्य - हे भूमन् ! इस जगत् में प्राक्तन समय में अनेक महात्मा वृन्द योगी होकर भी बहु विध योग साधन के द्वारा विमल ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ होकर पश्चात् लौकिकी चेष्टा को भी तुम को अर्पण किये थे, तुम को अर्पित निज कर्मवृन्द के फल से तुम्हारी कथा श्रवण में रुचि लक्षणा भक्ति लाभ किये थे । अनन्तर तुम्हारी कथा में रुचिलक्षणा भक्ति लाभ के फल से तुम्हारी
[[१३४]]
श्रीभक्ति सन्दर्भः पुनश्च कथोपनीतया कथया तत्समीपं प्रापितया कथनीय रुचिरूपया भक्त्यैव अज्जः सुखेन विबुध्य आत्मतत्त्वमारभ्य श्रीभगवत्तत्त्वपर्यन्तमनुभूय तव परमान्तरङ्गां गति प्राप्ताः । श्रीगीतोपनिषत्सु च ( १०1८)- “अहं सर्वस्य प्रभवः” इत्यादिभिः शुद्धां भक्तिमुपदिश्याह ( गी० १०।११) -
से आत्म
में
सान्निध्य प्रापिका तुम्हारी रुचिलक्षणा -भक्ति प्राप्ति हुई थी, उक्त भक्ति के फल स्वरूप सुख तत्त्व से प्रारम्भ कर श्रीभगवत्तत्त्व का अनुभव कर तुम्हारी परमा अन्तरङ्ग गति को प्राप्त किये थे । यहाँ समझने की बात यह है कि - भगवदर्पित कर्म फल से श्रीभगवत कथा में रुचि होती है, अर्थात् भगवान् कर्मार्पण करते करते यदि सत्सङ्ग रूप सौभाग्यलाभ होता है। तो, उक्त सौभाग्य से श्रीहरि कथा में रुचि होती है। यदि सत्सङ्ग रूप सौभाग्य लाभ नहीं होता है तो, केवल मात्र भगवदर्पित कर्म के द्वारा श्रीहरि कथा में रुचिका उदय नहीं होता है। श्रीहरि कथा में रुचिलाभ के फल से कथनीय पदार्थ श्रीहरि में रुचिलक्षणा भक्ति का आविर्भाव होता है ।
“आदौ श्रद्धा ततः साधुसङ्गोऽथ भजन क्रियाः ।
ततोऽनर्थ निवृत्तिः स्यात् ततो निष्ठा ततोरुचिः "
“p
इस लक्षण के अनुसार निष्ठा के पश्चात् रुचि का उदय होता है, श्रीहरि कथा में रुचि रूपा यह प्रथम प्रथम रुचि है, इस प्रकार रुचि होने के पश्चात् ही श्रीहरि में रुचिका उदय होता है। जब तक कथनीय श्रीहरि में रुचि नहीं होती है, तब तक श्रीहरि के निमित्त यथार्थ व्याकुलता जीवन में नहीं आ सकती है । इस प्रसङ्ग में श्रीभगवद् भक्ति के अन्तर्भूत रूप से ही ज्ञान लाभ की कथा कही गई है । अर्थात् भगवद् भक्ति का अनुष्ठान व्यतीत स्वतन्त्र रूप से किसी भी अनुष्टान के द्वारा स्वरूपावबोधक विमल ज्ञान लाभ की सम्भावना नहीं की जा सकती है ।
गयो ॥
तु
श्रीमद् भगवद् गीता के त्रयोदश अध्याय में भी उस प्रकार उल्लेख दृष्ट होता है ।
“विविक्त देश से वित्वमरति र्जनसंसदि ।
मयि चानन्य योगेन भक्ति व्यभिचारिणी ।
एतज् ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यत् ततोऽन्यथा ॥’
"
है।
इस श्लोक में विशुद्धा भक्ति भिन्न साधन को अज्ञान कहा गया है । मी० १०१८ में भी उक्त है-
“अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व प्रवर्त्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधाः भावसमन्विताः ॥ "
发店
टीका-तत्र महैश्वर्य लक्षणां विभूतिमाह- अहं सर्वस्य - प्राकृता प्राकृत वस्तु मात्रस्य प्रभवः, उत्पत्तिप्रादुर्भावयोः - हेतुः । मत्त एवान्तर्य्यामि स्वरूपात् सर्वं जगत् प्रवर्त्तते चेष्टते, तथा मत्त एक नारदाद्यवतारात्मकत्वात् सर्वं भक्ति ज्ञान तपः कर्मादिकं साधनं तत्तत् साध्यञ्च प्रवृत्ति भवति । ऐकान्तिक- भक्ति लक्षणं योगमाह इति मत्वा, आस्तिक्यतो ज्ञानेन निश्चित्य इत्यर्थः । भावो दास्य सख्यादि स्तदुक्ताः ।
इत्यादि श्लोकों के द्वारा शुद्धाभक्ति का उपदेश प्रदानकर गी० १०।१०।११ में कहते हैं-
“तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीति पूर्वकं ।
ददामि बुद्धि योगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥ "
टोका-ननु तुष्यन्ति च रमन्ति चेति त्वदुक्तया त्वद् भक्तानां भक्त्यैव परमानन्दो गुणातीत इत्यवगतं किन्तु तेषां त्वत् साक्षात् प्राप्तौ कः प्रकारः, स च कुतः सकाशात्तैरवगन्तव्य इत्यपेक्षायामाह - तेषामिति ।
श्री भक्तिसन्दर्भः
“तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः । निजं तमः ।
[[१३५]]
नाशयाम्यात्मभावस्थ ज्ञानदीपेन भास्वता ॥ १७० ॥ इति ॥ ब्रह्मा श्रीभगवन्तम् ॥ ६७ । यान्यन्यानि सर्वाणि तत्र पुरुषार्थ - साधनान्युच्यन्ते, तान्यपि तथैव भक्तिमूलान्येव,
यथा ( भा० १०/८१।१६ ) -
(६७) “स्वर्गापवर्गयोः पुंसां रसायां भुवि सम्पदाम् ।
सर्वासामपि सिद्धीनां मूलं त्वच्चरणाचर्च्चनम् ॥ १७१
(भा० ८।२३।१६) “मन्त्रतस्तन्त्रतश्छिद्रम्” इत्यादि-न्यायेन (भा० ११ः५।२) “मुखबाहूरुपादेभ्यः '
[[1]]
" 17
सतन युक्तानां नित्यमेव मत् संयोगाकाङ्क्षिणां तं बुद्धि योगं ददामि तेषां हृद्वृत्तिवहमेव उद् भावयामीति स बुद्धियोगः स्वतोऽन्यस्माच्च कुतश्चिदप्यधिगन्तुमशक्यः, किन्तु मदेकदेयस्तदेक ग्राह्य इति भावः । मामुपयन्ति– मामुपलम्भन्ते- साक्षान्मन्निकटं प्राप्नुवन्ति ॥१०॥
नित्य भक्ति योग के द्वारा जो प्रीति पूर्वक मेरा भजन करते हैं - मैं उन सब को शुद्ध ज्ञान जनित विमल प्रेम योगदान करता हूँ, वे सब उस के द्वारा मेरापरमानन्द धाम को प्राप्त करते हैं ।
गी० १०।११ " तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।
नाशयाम्यात्मभावस्था ज्ञानदीपेन भास्वता ॥”
टीका - “ननु च विद्यादि वृत्ति विना कथं त्वदधिगमः, तस्मात्तैरपितदर्थं यतनीयमेव, तत्र नही- नहीत्याह, तेषामेव, नत्वः येषां योगिनां, अनुकम्पार्थं, मदनुकम्पा येन प्रकारेण स्यात्तदर्थमित्यर्थः । तैर्मदन- कम्पा प्राप्तौ कापिचिन्ता न कार्य्या, यत, स्तेषां बुद्धिवृत्तौ स्थितः । ज्ञानं मर्दकप्रकाश्यत्वान्न सात्विकं, निर्गुणत्वेपि भक्तयत्य ज्ञानतोऽपि विलक्षणं यत्तदेव दीपस्तेन । अहमेव नाशयामीति तैः कथं तदर्थं प्रयतनीयम् तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहमिति मदुक्तस्तेषां व्यावहारिकः पारमार्थिकश्च सर्वोऽपि भारो मया वौढ़ मङ्गीकृत एवेति भावः । श्रीमद् गीता सर्वसम्भूता भूतापतापहृत् । चतुः श्लोकीयमाख्याना, ख्याता सर्वनिशर्मकृत् ।
"
इस प्रकार भक्ति योगानुष्ठान कारियों में अज्ञान नहीं रह सकता है । कतिपय व्यक्ति मानते हैं कि- अतत् निरसन क्रम से तत् वस्तु का अनुसन्धान करने से ही ज्ञानोदय होता है, केवल भक्ति भाव का अनुशीलन करने से उक्त दुर्लभ ज्ञान लाभ कैसे हो सकता है ? उत्तर में कहते हैं-हे अजुन ! निज बुद्धि का अनुशीलन क्रम से क्षुद्रजीव असीम सत्यवस्तु का ज्ञान लाभ कैसे कर सकता है।
विचार के द्वारा पर तत्त्वविषयक विशुद्ध ज्ञान लाभ करने में समक्ष है। मेरी कृपा से क्षुद्र जीव, सम्यक् ज्ञान लाभ करने में सक्षम है। भक्त गण, मेरा अलौकिक ज्ञानदीपके द्वारा निरन्तर उद्भासित होते हैं। मैं विशेष अनुकम्पा के द्वारा भक्त वृन्द के हृदयस्थित अज्ञानान्धकार विनष्ट कर देता हूँ । जिस शुद्ध ज्ञान में जीव का अधिकार है, वह ज्ञान, भक्ति अनुशीलन से ही लभ्य है। तर्कादि अपर साधन के द्वारा लभ्य नहीं है ।
ब्रह्मा - श्रीभगवान् को कहे थे ॥ ६६ ॥
१७० ९७
श्रीमद् भागवत में जो सब अन्य पुरुषार्थ साधनों की कथा उल्लिखित हैं, उन सब साधनों का मूल भक्ति ही है, अर्थात् भक्ति की सहायता से ही समस्त पुरुषार्थ सिद्ध होता है । भा० १० ८१।१६ में उक्त है-
(६७) “स्वर्गापवर्गयोः पुंसां रसायां भुवि सम्पदाम् ।
सर्वासामपि सिद्धीनां मूलं त्वच्चरणाचर्च्चनम् ॥ १७१ ॥
s
[[१३६]]
इत्यादुयक्तनित्यत्वेन च सर्वथा तद्वहिर्मुखानां तु तत्तदलाभ एव स्यादित्यर्थः । यथा स्कान्दे-
“विष्णुभक्तिविहीनानां श्रौताः स्मार्त्ताश्च माः क्रियाः ।
कायक्लेगः फलं तासां स्वैरिणी व्यभिचारवत् ॥ १७२ ॥ इति ।
तदुक्तं श्रीयुधिष्ठिरेण (भा० १०।७२२४)
" त्वत्पादुके अविरतं परि ये चरन्ति ध्यायन्त्यभद्रनशने शुचयो गृणन्ति ।
TEP
विन्दन्ति ते कमलनाभ भवापवर्ग, माशासते यदि च आशिष ईश नान्ये ॥ १७३ ॥
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इति । अत उक्तं वृहन्नारदीये-
टीका- एवं सम्पूज्यापि धनस्यादाने कारणं कल्पयति, स्वर्गापवर्गयोरिति द्वाभ्याम् ॥
1 श्रीदाम विप्र के वाक्य से प्रकाशित है कि- स्वर्ग में, मुक्ति में, रसातल में एवं भूतल में जितनी सम्पत्ति है, एवं जितनी सिद्धियां हैं, श्रीभगवान् के चरणार्चन ही उन सबका मूल है। अर्थात् श्रीकृष्ण चरणाचर्च्चन के विना उक्त समस्त पुरुषार्थ का लाभ नहीं हो सकता है।
काम्य कर्मानुष्ठान में मन्त्रगत एवं साधन गत अनेक त्रुटि उपस्थित होती हैं भा० ८।३३। १६ में उक्त है ।
“मन्त्रतस्तन्त्रतरिछद्र’ देश कालाई वस्तुतः ।
सर्वं करोति निश्छिद्रमनुसङ्कीर्त्तनं तव ॥”
टोका - आस्तां तावत् पूजा यस्मान्मन्त्रतः स्वरादि भ्रंशेन, तन्त्रतो व्युत्क्रमादिना देशतः कालतः अर्हतः, पात्रतः, वस्तुतश्च दक्षिणादिना यच्छिद्र
ं न्यूनं तत् सर्वं तवानुकीर्त्तनमात्रमेव निश्छिद्रं करोति । एवं भा० ११।५।२ में उक्त है-
TP
“मुखबाहूरुपादेभ्यः पुरुषस्याश्रमंसह ।
चत्वारो जज्ञिरेवर्णा गुणैवप्रादय पृथक् ॥
टीका - स्व जनशस्य गुरोर्भगवतोऽनादराद् गुरुद्रोहेण दुर्गंत यान्तीति वक्तुं भगवतः सकाशाद्विर्णा श्रमाणामुत्पत्तिमाह मुखेति । गुणः सत्त्वेन विप्रः, सत्व रजोभ्यांक्षत्रियः, रजस्तमोभ्यां वैश्यः, तमसा शूद्र इति ।
उक्त श्लोक के द्वारा भगवद् भजन का नित्यत्व विहित हुआ है। अतः भगवद् वहिर्मुख व्यक्ति गण कभी भी स्वर्गादिसुख अथवा किसी प्रकार पुरुषार्थ प्राप्त करने में सक्षम नहीं हैं। स्कन्द पुराण में वर्णित है ।
“विष्णुभक्ति विहीनानां श्रौताः स्मार्त्ताश्च याः क्रियाः ।
कायक्लेशः फलं तासां स्वैरिणो व्यभिचारवत् ॥” २७२॥
वैश्यावृन्द का व्यभिचार जिस प्रकार काय क्लेश में पर्यवसित होता है, उस प्रकार श्रीविष्णु भक्ति होन जन गण जो कुछ अनुष्ठान करते हैं, किम्बा स्मृति शास्त्रोक्त अनुष्ठान करते हैं, तत् समुदय अनुष्ठान काय क्लेश में ही पर्य्यवसित होता है। केवल कर्मानुष्ठान द्वारा परिश्रम फल लाभ होता है । श्रीयुधिष्ठिर भा० १०।७२।४ में कहे हैं-
‘त्वत् पादुके अविरतं परि ये चरन्ति ध्यायन्त्यभद्रनशने शुचयो गुणन्ति ।
विन्दन्ति ते कमलनाभ ! भवापवर्ग, माशासते यदि त अशिष ईश नान्ये ॥ " १७३ ॥
टीका- एष चक्रवत्तनां मनोरथः कथं त्वया क्रियत इति चेदत आह-त्वत् पादुके इति । परि ये चरन्तीति यच्छन्द व्यवधानमार्षम् । ये परिचरन्ति देहेन । ध्यायन्ति- मनसा । अभद्रस्य नशने नाशके ।
।
[[१३७]]
“यथा समस्तलोकानां जीवनं सलिलं स्मृतम् । तथा समस्तसिद्धीनां जीवनं भक्तिरिष्यते ॥ १७४॥ इति । श्रीदामविप्रः ॥
८ तदेवं तानि साधनानि भक्तिजीवनान्येवेति भक्तेरेव सर्वत्राभिधेयत्वम् । तानि विनापि च भक्तेरेव तत्त्र साधकत्वमपि दर्शितं तत्र (भा० २शः 1१०) “अकामः सर्वकामो वा " इत्यादौ । यथा श्रीविष्णुपुराणे पुलह वाक्यम् (वि० पु० ११११।४६) -
“यो यज्ञपुरुषो यज्ञे योगे यः परमः पुमान् । तस्मिंस्तुष्टे यदप्राप्यं किं तदस्ति जनाईने ।” १७५॥ अतएव मोक्षधर्मे-
(73) “या वै साधनसम्पत्तिः पुरुषार्थ चतुष्टये । तया विना तदाप्नोति नरो नारायणाश्रयः ॥ १७६ ॥ इति ।
तस्मात् साधूक्तं सर्वशास्त्रश्रवणफलत्वेन तदभिधेयत्वम् । अतएव प्रथमं स्वयं भगवता विन्दन्ति गुणन्ति-वाचा । तथा भवस्य अपवर्ग नाशं मोक्षं विन्दन्ति यद्याशासते तहि आशिषोऽपि त एव नान्ये चक्रवत्तिनोऽपि ।
हे कृष्ण ! सर्व अमङ्गल विनाश कारी तुम्हारी पादुका युगल की परिचर्या जो लोक पवित्र भाव से देह के द्वारा करते हैं, मन के द्वारा नियत ध्यान करते हैं । एवं वाक्य के द्वारा तुम्हारी लीला कथा का कीर्तन करते हैं, हे कमल नाम ! वे सब मोक्षपर्यन्त प्राप्त करने में समर्थ होते हैं । यदि वे सब अपर विषय के इच्छक होते हैं, तो आप की सेवा से वह भी सिद्ध होता है । किन्तु तुम्हारे भक्त व्यतीत अपर कोई भी व्यक्ति तत् समुदय को प्राप्त करने में समर्थ नहीं होते हैं । तज्जन्य वृहन्नारदीय पुराण में उक्त है–
“यथा समस्त लोकानां जीवनं सलिलं स्मृतम्
तथा समस्त सिद्धानां जीवनं भक्तिरिष्यते ॥ १ १७४ ॥ ॥
जल, जिस प्रकार समस्त प्राणियों का जीवन है, उस प्रकार भक्ति भी अखिल सिद्धियों का जीवन स्वरूप है।
श्रीदाम विप्र- कहे थे ॥८७॥ ६८ । अतएव भक्ति ही उक्त समस्त साधनों का जीवन होने के कारण, सर्वत्र हो भक्ति का अभिधेयत्व सिद्ध होता है । किन्तु उक्त साधन समूह को छोड़कर ही भक्ति स्वयं ही पुरुषार्थ प्रदान करने में समर्थ है । इस का वर्णन भा० २।३।१७ में हुआ है ।
“अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधी ।
तीव्रण भक्तियोगेन भजेत पुरुषं परम् ॥”
टीका - अकाम :- एकान्त भक्तः । उक्तानुक्तसर्वकामो वा, पुरुषं पूर्ण, परं– निरुपाधिम् ॥ श्रीविष्णु पुराण में पुलह ऋषि का कथन है-
“यो यज्ञ पुरुषो यज्ञ े योगे यः परमः पुमान्
तस्मिस्तुष्टे यदप्राप्यं कितदस्ति जनार्दने ॥ १७५॥
जो, यज्ञ में यज्ञ पुरुष नाम से कथित हैं, एवं जो योग साधना में परम पुरुष शब्द से अभिहित हैं, उन श्रीजनाद्दन को सन्तुष्ट करने में समर्थ होने पर कुछ भी अप्राप्य नहीं रहते हैं । मोक्ष धर्म में भी उक्त है-
या वै साधन सम्पत्तिः पुरुषार्थ चतुष्टये ।
तथा विना तदाप्नोति नरो नारायणाश्रयः ॥ १७६ ॥
[[15]]
चतुर्वर्ग प्राप्त करने का अभिलाषी होने पर जो सब साधन उसको प्राप्त करने के निमित्त विहित है, उक्त समुदय साधन व्यतीत भी मानव गण, श्रीनारायण का आश्रय लाभ करने पर उक्त पुरुषार्थ को प्राप्त
[[१३८]]
सैव प्रवत्तितेत्युक्तम् (भा० ११११४१३) –“कालेन नष्टा प्रलये वाणीयम्” इत्यादिना । तदेवं सति ये तु नातिकोविदास्ते तत्तदर्थं कर्माद्यङ्गत्वेनैव श्रीविष्णूपासनां कुर्वते, तत तदपराधेन निज निजका मनामात्रफलप्रदत्वं तत्रा नियतत्वश्च तस्याः, तत्त्वदर्थमपि स्वतन्त्रत्वेन क्रियमाणाया भक्तस्त्ववश्यं तत्तत्फलप्रदत्वम् । न च तत्तन्मात्रदानेन पर्य्याप्तिः, किन्तु पर्य्यवसाने परमफल- प्रदत्वमेवेति । ततस्तस्या एव परमहितत्वेनाभिधेयत्वमाह (भा० ५।१६।२६) -
(६८) “सत्यं दिशयथितर्मार्थतो नृणां नैवार्थदो यत् पुनरथिता यतः ।
स्वयं विधत्ते भजतामनिच्छता, मिच्छा पिधानं निजपादपत्लवम् ॥ १७७॥ अर्थितः प्रार्थितः सन् नृणामर्थितं सत्यमेव ददाति, न तत्र कदाचिदपि व्यभिचार इत्यर्थः । कर सकते हैं ।
अतएव समस्त शास्त्र श्रवण का फल रूप में भक्ति का जो अभिधेयत्व कहा गया है, वह कथन अतीव सुन्दर है । तज्जन्य ही श्रीभगवान् सृष्टि के प्रारम्भ में भक्ति का प्रवर्तन किये थे । भा० ११ १४।३ में उक्त है श्रीभगवान् उद्धव को कहे थे-
“कालेन नष्टा वाणीयं प्रलये वेद संज्ञिता ।
मयादौ ब्रह्मणे प्रोक्ता धर्मो यस्यां मदात्मकः ॥ "
टीका-तत्र भक्तिरेव महाफलत्वेन मुख्या, अन्यानि तु स्व प्रकृत्यनुसारेण पुष्पस्थानीय स्वर्गादि फल बुद्धिभिः प्राणिभिः प्राधान्येन परिकल्पितानि, क्षुल्लक फलानीति विवेक्तु प्रकृत्यनुसारेण बहुधा वेदर्थ प्रतिपत्तिमाह, - कालेनेति सप्तभिः । मदात्मक, - मय्येवात्मा चित्तं यस्य सः ॥ (३)
महाप्रलय के समय कालक्रम से मेरा आदेश स्वरूप वेदोपदेश, जगत् में तदनुरूप ग्राहक के अभाव हेतु विलुप्त प्राय हो गया था । अनन्तर महाप्रलय के अन्त में सर्व प्रथम मैं ने ब्रह्मा को वेद संज्ञिता वाणी का उपदेश किया था। जिस में मदात्मक धर्म वर्णित है । अर्थात् मेरी जिस आदेश वाणी में ह्लादिनी शक्ति के वृत्तिरूप भक्ति नाम से अभिहित धर्म का विवरण कहा गया है । अतएव जो लोक विशेष अभिज्ञ नहीं है, वे अब धर्मादि रूप पुरुषार्थ प्राप्ति के निमित्त कर्मादि अनुष्ठान के अङ्ग रूप में श्रीविष्णु की पूजा करते रहते हैं। इस से भक्ति देवी की अमर्थ्यादा होती है, अतः भक्ति, केवलमात्र कामनानुरूप फल प्रदान कर्मानुष्ठानकारी को करती है । किन्तु वह फल भी चिरस्थायी नहीं होता है । किन्तु यदि उक्त अनभिज्ञ व्यक्तिगण, अभिलषित फललाभ हेतु स्वतन्त्ररूप से भक्ति का अनुष्ठान करते तो, अवश्य ही भक्ति देवी उन सब को अन्यान्य साधन के फल समूह प्रदान करती । अधिकन्तु पर्थ्यवसान में परम फल जो श्रीकृष्ण प्रीति उस को भी प्रदान करती । अनन्तर परमहित- कारित्व रूप में भक्ति का अभिधेयत्व की वर्णना करते हैं, भा० ५।१६।२६ में देवगण परस्पर को कहते हैं, -
(८) “सत्यं दिशत्यथितमर्थितो नृणां नार्थदो यत् पुनरथिता यतः ।
11”
स्वयं विधत्ते भजतामनिच्छता,-मिच्छापिधानं निजपादपत्लवम् ॥” १७७॥ टीका-तत्रापि निष्कामः कृतार्था इत्याहुः सत्यमिति । प्रार्थितः सन् अर्थित ददातीति सत्यं तथापि परमार्थदो न भवत्येव । यद् यस्मात् यतो दत्तानन्तरं पुनरपि अर्थिता भवति । ननु नाथितश्चेत्, किमपि न दद्यात् इत्याशङ्कय हुः, अनिच्छतां निष्कामाणान्तु इच्छानां विधानमाच्छादकं सर्वकाम परिपूरक-निज पाद पल्लवं स्वयमेव सम्पादयति ॥
मानववृन्द, भक्ति का अनुष्ठान करके यदि श्रीभगवान् के निकट अपर कुछ पुरुषार्थ वस्तु प्रार्थी होते
[[१३६]]
किन्तु, तथापि तन्मात्रेणार्थदो न भवति, तन्मात्र दत्त्वा निवृत्तो न भवतीत्यर्थः, यत उपासकस्तत्रा पूर्णत्वाद्भोगक्षये सति तदेव पुनरथिता भवति, (भा० ६।१६।१४ ) " न जातु कामः कामानाम्” इत्यादेः । तदेवमभिप्रेत्य स तु परमकारुणिकस्तत्पाद पल्लव माधुर्य्याज्ञानेन तदनिच्छतामपि भजतामिच्छाविधानं सर्वकामसमापकं निजपादपत्लवमेव विधत्ते, तेभ्यो ददातीत्यर्थः । यथा माता चर्व्यमाणां मृत्तिकां बालकमुखादपसायं तत्र खण्डं ददाति, तद्वदिति भावः । एवमप्युक्तम् (भा० २।३।१० ) - “अकामः सर्वकामो वा” इत्यादौ तीव्रत्वं भक्तेः । तथोक्तं गारुड़े-
हैं, तो परमदयालु श्रीहरि, उनके प्रार्थना के अनुरूप धर्मादि पुरुषार्थ वस्तु प्रदान करते हैं, किन्तु मन में विचार भी करते हैं, मैं ने जो कुछ दिया है, वह परमार्थ वस्तु नहीं है, कारण, उक्त कामित वस्तु प्राप्त करने के पश्चात् हृदय में अभाव बुद्धि होगी, और मेरे निकट पुनर्वार वे सब धन जन की प्रार्थना करेंगे। इस प्रकार विचार कर उक्त सकाम भक्त गण के हृदय में जिस से वासना का उद्गम नहो, तज्जन्य वासना उद्गमस्थान में भगवान् निज पाद पल्लव प्रदान करते हैं।
उक्त श्लोकस्थित स्वामिकृत टीका काअभिप्राय यह है–सकाम भक्त गण कर्त्ती के प्रार्थित होकर भगवान् उसके अभिलषित पदार्थ सत्य ही प्रदान करते हैं । इस में कभी भी अन्यथा नहीं होती है । किन्तु भगवान् अभिलषित वस्तु प्रदान कर ही निवृत्ति नहीं होते हैं, कारण, उपासक गण, जिस कामित वस्तु को प्राप्त करते हैं, वे सब अपूर्ण हैं, अतः क्षय होने के पश्चात् पुनर्वार वे सब उस प्रकार वस्तु की प्रार्थना करते रहते हैं, कारण, भा० ६ १४ में उक्त है–
" न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवमेव भूयएवाभिवर्द्धते ॥ "
टीका- हविषा घृतेन, कृष्णवर्मा अग्निरिव ।
अर्थात् घृत निक्षेप से अग्नि जिस प्रकार वद्धित होता है । उस प्रकार काम्यवस्तु का उपभोग से काम कदापि शान्त नहीं होता है, केवल वद्धित ही होता है । इस अभिप्राय से ही परम कारुणिक श्रीभगवान् निज पाद पल्लव के माधुर्य्य विषय में अनभिज्ञता निबन्धन तद्विषय में अनिच्छा कारी भक्त वृन्द के सम्बन्ध में इच्छा पिधान कारी - अर्थात् सर्वाभिलाष पूर्णकारी निज पाद पल्लव प्रदान करते हैं । अर्थात् श्रीभगवान् निज भक्त के हृदय से अन्य वासना विदूरित करके निज चरण माधुर्य का आस्वादन प्रदान करते हैं। जिस प्रकार माता निज बालक को मृत्तिका चर्वण करते देखकर उस के मुख से मृत्तिका अपसारित करके खण्ड मिश्री भक्षण करने को देती है, यहाँपर भी उस प्रकार जानना होगा ।
अभिप्राय यह है कि- जो भक्त, - भक्ति साधन का अनुष्ठान कर्म ज्ञान योगादि के सहित अमिश्रित भाव से करते हैं अर्थात् विशुद्ध भक्ति का अनुष्ठान करते हैं, अथच भगवत् सेवा रूप परम पुरुषार्थ लाभ की वासना के सहित स्वर्गादि त्रिवर्ग पुरुषार्थ की वासना भी रहती है, उनके सम्बन्ध में श्रीभगवान् निज चरणामृत आस्वादन कराकर अपर वस्तु में वितृष्णा उत्पन्न करते हैं । कारण, विशुद्ध, भजन कारी भक्त गण के कल्याण विधान करना ही भगवान् का कार्य्य है ।
श्रीभगवच्चरण माधुर्य्य आस्वादन का भी इस प्रकार प्रभाव है, एकवार उसका आस्वाद प्राप्त करने से तदतिरिक्त वस्तु में आसक्ति नहीं जगाती है, भा० २।३।२० में कहा भी है।
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“यदुर्लभं यदप्राप्य मनसो यन्न गोचरम् । तदप्यप्रार्थितं ध्यातो ददाति मधुसूदनः ॥ १७८ ॥ इति ।
एवं श्रीसनकादीनामपि ब्रह्मज्ञानिनां भक्त्यनुवृत्त्या तत्पाद पल्लवप्राज्ञया ॥ देवाः परस्परम् ॥
ईर्द । अथ व्यतिरेकेण कर्मानादरेणाह - तत्र कर्म्मणः फलप्राप्ताव निश्चयवत्वं दुःखरूपत्वश्च, भकेस्तु तस्यामावश्यकत्वं साधक - दशायामपि सुखरूपत्वचेयाह (भा० १।१।१२) -
(६६) “कर्म्मण्यस्मिन्ननाश्वासे धूमधूम्रात्मनां भवान् ।
आपाययति गोविन्द पादपद्मासवं मधु ॥” १७६ ॥
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अस्मिन् कर्म्मणि सत्रेऽनाश्वासेऽविश्वसनीये, वैगुण्य-बाहुल्येन कृषिवत् फलनिश्चयाभावात् । अनेन भक्तविश्वसनीयत्वं ध्वनितम्। धूमेन धूम्रौ विरञ्जितौ विवर्णावात्मानौ शरीर-चित्ते
“अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः ।
तीव्र ेण भक्ति योगेन यजेत पुरुषं परम् ॥”
टीका - अकाम :- एकान्त भक्तः । उक्तानुक्त सर्वकामो वा, पुरुषं पूर्ण, परं– निरुपाधिम् ॥ इत्यादि श्लोक में भक्ति की तीव्रत्व की कथा कही गई है। गरुड़ पुराण में भी उक्त है-
“यद् दुर्लभं यदप्राप्यं मनसो यन्न गोचरम् ।
॥”
तदप्य प्रार्थितं ध्यातो ददाति मधुसूदनः ॥ १७८ ॥
जो वस्तु दुर्लभ, दुष्प्राप्य एवं मनका अगोचर है, इस प्रकार वस्तु की प्रार्थना न करने पर भी श्री मधुसूदन का ध्यान करने से मधुसूदन उसको प्रदान करते हैं। इस प्रकार रीति के अनुसार ही श्री सनकादि चतुः सनकी भक्तिकी अनुवृत्तिसे श्रीभगवच्चरण पल्लव प्राप्ति हुई थी। इस प्रकार जानना होगा ।
देववृन्द परस्पर को कहे थे ॥८॥
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अनन्तर व्यक्तिरेक मुख से कर्म का आस्वादन करके व्यतिरेक मुख से भक्ति का अभिधेयत्व स्थापन करते हैं। उसके मध्य में फल प्राप्ति विषय में कर्म साधन का अनिश्चयत्व एवं दुःख रूपत्व है, किन्तु भक्ति साधन का अवश्य फल दायकत्व एवं सिद्धावस्था की व त तो दूर है । साधनावस्था में भी भक्ति का सुख रूपत्व है । उसका वर्णन भा० १।१८।१२ में है–
काही (EE) “कर्मण्यस्मिन्ननाश्वासे
(EE) “कर्मण्यस्मिन्ननाश्वासे धूमधूम्रात्मनां भवान् ।
आपाययति गोविन्द पाद पद्मासवं मधु ॥ १२॥
टीका - किञ्च, अस्मिन् कर्मणि सत्रे अनाश्वासे–अविश्वसनीये । वैगुण्यं बाहुल्येन फलति, निश्चया भावात् । घुमेन धूम्रः, विवर्ण आत्मशरीरं येषां तानस्मान् । कर्मणि षष्ठी । आसवं मकरन्दं, मधु मधुरम् ॥ १२॥
नैमिषारण्य निवासी मुनिगण, श्रीसूत को कहे थे। हम सब जो यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे, वह अविश्वसनीय है, कारण, उस में अनेक वैगुण्य उपस्थित होते रहते हैं । अतः फल प्राप्ति की किसी प्रकार निश्चयता नहीं है । अधिकन्तु यज्ञानुष्ठान के प्रज्वलित अग्नि से उत्थित धूम द्वारा हमारे शरीर विवर्ण हो गये हैं । इस प्रकार स्थिति में आप हम सब को श्रीगोविन्द के श्रीचरण पद्म के मधुर मकरन्द आस्वादन करा रहे हैं ।
यज्ञ रूप इस कर्म अनाश्वास है, अर्थात् अविश्वसनीय है, विघ्न बाहुल्य वशतः फल प्राप्ति की निश्चयता
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येषाम्, कर्म्मणि षष्ठी, तानस्मानित्यर्थः । पादपद्मस्य यशोरूपमासवं मकरन्दम्, मधु मधुरम् । अत्र सत्रवत् कर्मान्तरं यशः श्रवणवद्भक्तचन्तरञ्चेति ज्ञेयम् । तदेवं भक्तिविनाभूतानां कर्मादिभिरस्माकं दुःखमेवासीदिति व्यतिरेक-त्वमत्र गम्यते । तदुक्तम् (भा० १२।१२।५४) “यशः श्रियामेव परिश्रमः परः” इत्यादि, (भा० ११२२२) “अतो व कवयो नित्यम्” इत्यादि च । ब्रह्मवैवर्त्ते च शिवं प्रति श्रीविष्णुवाक्यम्-
“यदि मां प्राप्तुमिच्छन्ति प्राप्नुवन्त्येव नान्यथा । कलौ कलुष चित्तानां वृथायः प्रभृतीनि च ।
भवन्ति वर्णाश्रमिणां न तु मच्छरणार्थिनाम् ॥” १८० ॥ इति ॥ श्री ऋषयः सूतम् ॥
नहीं है । इस से भक्ति की विश्वसनीयता सूचित हुई है । धूम के द्वारा धुन–अर्थात् विरञ्जित आत्मा, अर्थात् विवर्ण शरीर एवं चित्त जिनके हैं, उस प्रकार हम सब को श्रीगोविन्द पाद पद्म मकरन्द पान करा रहे हैं। यहाँ पर “धूमधूश्रात्मनां पद में कर्म में षष्ठी विभक्ति हुई है । अर्थात् हम सब को उस प्रकार जानना होगा । पाद पद्म के यशरूप - आसव, अर्थात् मकरन्द । मधु का अर्थ मधुर है । यहाँ यज्ञ के समान ही अन्य यावतीय कर्मकाण्ड के साधन को उस प्रकार जानना होगा । अर्थात् निखिल काम्य कर्म साधन ही दुःखकर हैं, एवं अभीप्सित फल प्रदान में अनिश्चय कर हैं । किन्तु भक्ति के यावतीय अङ्ग समूह, साधन एवं सिद्ध अवस्था में सुखप्रद हैं, एवं फल प्रदान विषय में किसी प्रकार सन्देह स्थल नहीं है । शौनकादि ऋषिगण, व्यतिरेक मुख से श्रीसूत के समीप में कह रहे हैं - कि हम सबने भक्ति का साहाय्य ग्रहण नहीं किया है, केवल कर्मानुष्ठान के द्वारा दुःख भोग ही किया है ।
इस प्रकार भा० १२।१२।५४ में श्रीसूत ने भी कहा है-
“यशः श्रियामेव परिश्रम परो वर्णाश्रमाचार तपः श्रुतादिषु ।
अविस्मृतिः श्रीधर पादपद्मयो गुणानुवाद श्रवणादरादिभिः ॥
ि
अर्थात् वर्ण एवं आश्रम के अनुरूप आचरण, तपस्या एवं वेदादि शास्त्राध्ययन के द्वारा मानवगण जिस प्रकार परिश्रम करते हैं, वह परिश्रम, यशः एवं सम्पत्ति अर्जन में पर्यवसित होता है । अर्थात् यशः एवं सम्पत्ति लाभ को परम पुरुषार्थ, वे सब मानते हैं सब करते हैं । यहाँपर दर्शाया गया है कि - श्रीभगवत्
तज्जन्य हो वर्णाश्रमोचित आचरण पालन भी वे सन्तोष के प्रति लक्ष्य न रखकर वर्णाश्रमोचित
आचरण एवं तपस्या प्रभृति के द्वारा केवल परिश्रम ही सार होता है । भक्ति का परम सुख प्रदत्व पति पादन हेतु श्रीसूत ने भा० १ २ २२ में कहा है-
“अतो वे कवयो नित्यं भक्ति परमया मुदा ।
वासुदेवे भगवति कुर्वन्त्यात्म प्रसादनीम् ॥
अतएव कविगण, परमानन्द के सहित वसुदेव भगवान् में आत्म प्रसन्नता सम्पादक भक्ति का विधान नित्य ही करते रहते हैं । ब्रह्म वैवर्त पुराण में श्रीशिव के प्रति ‘श्रीविष्णु का कथन इस प्रकार है-
“यदि मां प्राप्तुमिच्छन्ति प्राप्नुवन्त्येव नान्यथा ।
कलौ कलुष चित्तानां वृथायुः प्रभृतीनि च ।
भवन्ति वर्णाश्रमिणां न तु मच्छरणार्थिनाम् ॥ १८० ॥
यदि कोई व्यक्ति मुझ को प्राप्त करने के इच्छ ुक हैं, तो वे अवश्य हो मुझ को प्राप्त कर सकते हैं, इस में अन्यथा नहीं है । कलिकाल में जो लोक केवल वर्णाश्रमोचित आचरण करते हैं, वे सब अति कलुष चित्त के होते हैं, उन सबकी आयुः व्यर्थ अति वाहित होती है । किन्तु जो मेरा आश्रय ग्रहण करते हैं, वे सब
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१०० । तथा, (भा० १।५।१७) – " त्यक्त्वा स्वधर्मम्” इत्यादिकमनुसन्धेयम् । एवं महावित्त- महायासादि- साध्येन कर्मादिना तुच्छं स्वर्गादिफलम्, स्वल्पायास- वल्पवित्तादि – साध्यया भक्तया तदाभासेन च परम- महत्फलं तत्र तत्रानुसन्धाय भक्तावेव शास्त्रतात्पय्यं पर्यालोचनीयम् । तस्मात् तत्तच्छास्त्राणामपि भक्तिविधेयक- तत्तदनुवादेन प्रवृत्तत्वान्न वैफल्यमित्यपि ज्ञ ेयम् । किच, (भा० ७१६।१० ) -
ही कृतार्थ होते हैं ।