९५

१६६ ९५

यतो यश्च शास्त्रे वर्णाश्रम चारो विधीयते; तस्याप्यनुपम-चरितं फलं भक्तिरेव,

यथा ( भा० १०।४७।२४)-

16(६५) “दान व्रत- तपो- होम-जप-स्वाध्याय-संघमैः ।

श्रयोभिविविधैश्चान्यैः कृष्णे भक्तिर्हि साध्यते ॥ १६६॥

दानादिभिः श्रीकृष्णसन्तोषार्थैरिति ज्ञेयम् । तदुक्तम् (भा० ४।३१।६) " तज्जन्म तानि कर्माणि तदायुस्तन्मनो वचः” इत्यादि, वृहन्नारदीये -

“आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य्यं च पुनः पुनः

इदमेव सुनिष्पन्नं धेयो नारायणः सदा "

१६४

यह श्लोक उभय पुराण में समान रूप से है । समस्त शास्त्र मन्थन एवं पुनः पुनः विचार करके यही सुसिद्धान्त किया गया है कि - सर्वदा श्रीनारायण का ध्यान करे । अतएव वेद अध्ययन करके उसका अर्पण मन्त्र में भी श्रीविष्णु भक्ति का प्रसङ्ग हो उपलब्ध है ।

कित

" इति विद्या तपोयोनिरयोनिविष्णु रीडितः । ब्रह्मज्ञस्तपतेदेवः प्रीयतां मे जनार्द्दनः ॥१६५॥

इस प्रकार विद्या एवं तपस्या का उद्गमस्थान श्रीविष्णु हैं, अथच श्रीविष्णु, अयोनि रूप से समस्त शास्त्रों में कीर्त्तित हैं । ब्रह्मज्ञानिवृन्द, जिन श्रीविष्णु की तपस्या करते रहते हैं, उन सर्वााराध्य जनार्दन श्री विष्णु मेरे प्रति प्रसन्न होवें ॥

डीक

[[1]]

की

प्रकरण प्रवक्ता श्रीविदुर हैं । । ६४ ॥

१६७ ९५

तज्जन्य शास्त्र में वर्ण एवं आश्रमोचित जो आचरण विहित है, उस आचरण का भी अतुलनीय फल श्रीभगवद् भक्ति ही है, भा० १०।४७।२४ में श्रीउद्धव महाशय व्रजदेवी वृन्दको कहे थे-

(६५) “दान व्रत तपो होम जप स्वाध्याय संयमः ।

श्रेयोभिविविधैश्चान्यैः कृष्ण भक्तिहि साध्यते ॥ १६६ ॥

टीका-श्रेयोभिः - श्रेयः साधनैः ।

क्रमसन्दर्भ । (भा० १०।२११६) “गोण्यः किमाचरद्” इतिवद् भक्तिः श्रवणादि –रुचिः साध्यते ॥

हे व्रजदेवीवृन्द ! दान, व्रत, तपस्या, होम, जप, स्वाध्याय - निज अधिकारोचित अध्ययन, एवं इन्द्रिय संयम प्रभृति द्वारा एवं जितने भी माङ्गलिक अनुष्ठान हैं, उक्त समस्त साधन समूह का साध्य अर्थात् फल, श्रीकृष्ण चरणों में भक्ति है ।

उक्त श्लोक में दानादि साधनों का जो उल्लेख है, उक्त साधन समूह श्रीकृष्णापित होना चाहिये । कारण, जो, दान व्रत तपस्या प्रभृति साधन श्रीकृष्णापित नहीं होते हैं, वह सब साधन द्वारा श्रीकृष्ण भक्ति की प्राप्ति नहीं होती है । तज्जन्य ही महर्षि श्रीनारद भा० ४।३१।६ में कहे हैं-

तज्जन्म तानि कर्माणि तदायुस्तन्मोवचः ।

नृणां येन हि विश्वात्मा सेव्यते हरिरीश्वरः ॥”

[[१३२]]

श्रीभक्तिसन्दर्भ

“जन्म कोटिसहस्र ेषु पुण्यं यः समुपार्जितम् । तेषां भक्तिर्भवेच्छुद्धा देवदेवे जनार्द्दने ॥ १६७ ॥ इति ।

अगस्त्यसंहितायाम्-

I

“व्रतोपवासनियमैर्जन्म कोट्याप्यमुष्टितैः । यज्ञैश्च विविधैः सम्यग्भक्तिर्भवति माधवे ॥ १६८ ॥ इति । एतदेव व्यतिरेकेणोक्तम् (भा० ११८) – “धर्म्मः स्वनुष्ठितः पुंसाम्” इत्यादौ, (भा० १२।१२।५४) “यशः श्रियामेव” इत्यादौ च ॥ श्रीउद्धवः श्रीव्रजदेवीः ॥

(2) TRE

टीका - अहो गृहाप्रसक्ता हरि सेवां विना सर्वं जन्मकर्मादिकं व्यर्थीकृतमिति ताननुशोचन्नाह तज्जन्मेति चतुभिः । यतो जन्मादे हरि सेवैव फलम् । अतस्तद्विहीनं सर्वं व्यर्थमित्यर्थः ॥

क्रमसन्दर्भ -तत्र तेषां ब्रह्मनिष्ठां त्याजयितुं श्रीभगवन्निष्ठां प्रशंसन्ति तज्ज मेति ।

अर्थात् मानववृन्द वह जन्म ही जन्म है, वह कर्म ही यथार्थतः कर्म है, वह जीवन हो यथार्थतः जीवन है, वह मन-वाक्य, यथार्थतः धन्य हैं, जिस जन्म, जिस कर्म, जिस जीवन, जिस मन, एवं जिस वचन के द्वारा श्रीहरि सेवित होते हैं । अतएव इस प्रमाण के द्वारा सम्झना होगा कि- दान व्रतादि साधन समूह श्रीकृष्णापित होने चाहिये ।

वृहजारदीय पुराण में लिखित है-

“जन्मकोटि सहस्रेषु पुण्यं यैः समुपार्जितम् ।

तेषां भक्ति भवेच्छ ुद्धा देवदेव जनार्दने ॥ १६७॥

समस्त पुण्यों का एकमात्र सर्वश्रेष्ठ फल श्रीभगवद् भक्ति ही है । अर्थात् जिन्होंने रहस्र सहस्र कोटि कोटि जन्म में पुण्योपार्जन किया है, देव देव श्रीजनार्दन में उनकी विशुद्धा भक्ति होती है । अगस्त्य संहिता में भी लिखित है-

[[5]]

“व्रतोपवासनियमैर्जन्म कोटचाप्यनुष्ठितैः ।

यज्ञश्च विविधैः सम्यग् भक्तिर्भवति माधवे ॥” १६८॥

जिन्होंने कोटि कोटि जन्म के द्वारा व्रत, उपवास, नियम प्रभृति का अनुष्ठान किया है, एवं कोटि कोटि जन्म में यज्ञ समूह का अनुष्ठान किया है, श्रीमाधव के श्रीचरणों में उनकी भक्ति होती है। इस प्रकार भगवद् भक्ति की अवश्य कर्त्तव्यता के विषय में भा० १२८ में श्रीसूतने भी व्यतिरेक मुख से कहा है-

‘धर्मः स्वनुष्ठितः पुंसां विश्वक् सेनकथासु यः । नोत्पादयेद् यदि रति श्रमएव हि केवलम् ।”

(13)

टीका - व्यतिरेक माह धर्म इति । यो धर्म इति प्रसिद्धः, स यदि विष्वक्सेनस्य कथासु रति नोत्पादयेत् तर्हि स्वनुष्ठितोऽपि सन्नयं श्रमज्ञ ेयः । ननु मोक्षार्थस्यापि धर्मस्य श्रमत्वमस्त्येव अत आह केवलं विफल श्रम इत्यर्थः । नन्वस्ति तत्रापि स्वर्गादि फलमित्याशङ्कय एव कारेण निराकरोति, क्षयिष्णुत्वान तत् फल मित्यर्थः । नन्वक्षय्यं ह वै चातुर्मास्य याजिनः सुकृतं भवतीत्यादि श्रुतेनं तत् फलस्य क्षयिष्णु- त्वमित्याशङ्कय हि शब्देन साधयति । तत् यथेह कर्मजितो लोकः क्षीयते, एवमेरात्र पुप्यजितो लोकः क्षीयत इति तर्कानुगृहीतया श्रुत्या क्षयिष्णुत्व प्रतिपादनात् ।”

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सुन्दर रूप से धर्मानुष्ठान करने पर भी यदि उससे श्रीकृष्ण चरणों में प्रीति नहीं होती है तो, वह अनुष्ठान श्रममात्र में पर्थ्य वसित होता है । इस प्रकार ही भा० १२।१२।५४ में भी कहा गया है–

“यशः श्रियामेव परिभ्रमः परो वर्णाश्रमाचारतपः श्रुतादिषु ।

श्रीभक्ति सन्दर्भः

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