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तत्र वान्वयेन सर्वशास्त्रश्रवणफलत्वं समुत्यमाह (भा० ३।१३।४) - (६४) “श्रु पुंसां सुचिरश्रमस्य, नन्वञ्जसा सूरिभिरीडितोऽर्थः ।

तत्तद्गुणानुश्रवणं मुकुन्द, पादारविन्दं हृदयेषु येषाम् ॥ १६२ ॥

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पुंसां श्रुतस्य वेदार्थावगतेरयमेवार्थः प्रयोजनम्, ईडितः श्लाघितः । कोऽसौ ? मुकुन्दस्य

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साक्षात् भक्ति योग की अवश्य कर्त्तव्यता भा० ६।१।१७ श्लोक में श्रीशुकदेव श्रीपरीक्षित् महाराज को कहे थे ।

(६३) “सध्रीचीनो ह्ययं लोके पन्थाः क्षेमोऽकुतोभयः ।

सुशीलाः साधवो यत्र नारायण-परायणाः ॥ १६१॥

टीका - अत्र हेतुः, सध्रीचीनः समीचीनः, अयं पन्था भक्तिमार्गः । यतः क्षेमः । क्षेमत्वे हेतुः, न कुतश्चिद् विघ्नादेर्भयं यस्मिन् । तदेवाह - सुशीलाः–कृपालवः, साधवो निष्कामाः यत्र यस्मिन् भार्गे । अतो न ज्ञान मार्ग इव असहायता निमित्तं भयं नापि कर्म मार्गवत् मत्सरादि युक्तेभ्यो भयमितिभावः ॥

हे राजन् । श्रीनारायण के भक्ति योग के प्रभाव से महा पापीवृन्द भी परम पवित्र होते हैं, कारण, भक्तिमार्गे, अति समीचीन, अर्थात् अति सुन्दर एवं अति पवित्र है, भक्ति मार्ग ही अतिक्षेम एवं मङ्गलमय है, जो लोक भक्तिमार्ग को अवलम्बन करते हैं, उनको विघ्न से अभिभूत नहीं होना पड़ता है, कारण, भक्तिमार्ग में विचरणकारी व्यक्ति गण, परम कृपालु निष्काम एवं एकमात्र श्रीनारायण परायण होते हैं । अतएव, ज्ञानमार्ग में जिस प्रकार असहायता दोष है, कर्म मार्ग में जिस प्रकार परश्रीकातरता दोष है, भक्ति मार्ग में उक्त दोष नहीं है । तात्पर्य यह है कि-ज्ञान मार्ग में “मैं ईश्वर हूँ अथवा ब्रह्म हूँ” इस प्रकार अभेद भावना होती है, अतः ज्ञानी का स्खलन पतन में ईश्वर सहायक नहीं होते हैं । भक्तिमार्ग में साधक अपने को श्रीहरि दास मानते हैं, एवं श्रीहरि को निज प्रभु मानते हैं, श्रीहरि का अनुग्रह ही साधक का एकमात्र जीवातु होता है, तज्जन्य भक्ति मार्ग स्थित भक्त वृन्द के प्रति श्रीहरि एवं तदीय भक्त वृन्द की सर्वदा अत्यधिक अनुकम्पा होती रहती है । कर्म मार्ग में कर्मिगण, पर श्री कातर होते हैं, अतएव अपर कर्मिगण – उन्नति के बाधक होते हैं। भक्ति पथ में निज स्वार्थ के प्रति दृष्टि नहीं रहती है । श्रीहरि की परिचर्या ही लक्ष्य होती है, अतः भक्त एवं भगवान् भक्तिमार्गावलम्बन कारी के प्रति सर्वदा करुणामयी दृष्टि निःक्षेप करते रहते हैं । उक्त कारण समूह से ही भक्ति मार्ग–सर्वथा अकुतोभय– मङ्गल स्वरूप है । मूल श्लोकस्थ - " अयं पन्थाः " पद का अर्थ श्रीनारायण भक्ति मार्ग है ।

श्रीशुक - परीक्षित को कहे थे ॥६३॥ ६४ । भा० ३।१३।४ में अन्वय मुख से निखिल शास्त्राध्ययन के मुख्य फल रूप में भक्ति की ही अवश्य कर्त्तव्यता कैमुत्यिक न्याय से वर्णित है ।

(६४) ’ श्रुतस्य पुंसां सुचिरभ्रमस्य, नन्वञ्जसा सूरिभिरीडितोऽर्थः ।

तत्तद्गुणानुश्रवणं मुकुन्द, पादारविन्दं हृदयेषु येषाम् ॥ १६२ ॥

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टीका - अतस्तस्य चरितं श्रोतव्यमित्याह । सुचिरं श्रमो यस्मिन् तस्य पुंसां श्रुतस्य अञ्जसा

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श्री भक्तिसन्दर्भः पादारविन्दं येषां हृदयेषु वर्त्तते, तेषां तत्तद्गुणानां भगवद्भक्तयात्मकानामनुश्रवणं यत् सोऽयमिति । ततः सुतरामेव श्रीमुकुन्दस्येत्यर्थः । एवमेवोक्तम् (भा० ११२२८) “वासुदेवपरा वेदाः” इत्यादि, (भा० २०२ ३४ ) " भगवान् ब्रह्म का स्येन” इत्यादि । तथा च पाद्म-वृहत्- सहस्रनाम्नि-

“स्मर्त्तव्यः सततं विष्णुर्विस्मर्त्तव्यो न जातुचित् । सर्वे विधिनिषेधाः स्युरेतयोरेव किङ्कराः ॥ १६३॥

तथा च स्कान्दे प्रभासखण्डे, लिङ्गपुराणे च-

(83)

“आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य्यं च पुनः पुनः । इदमेव सुनिप्पन्नं ध्येयो नारायणः सदा ॥ १६४ ॥ मुख्यत्वेन अयमेवार्थ ईडितः स्तुतः । ननु मुकुन्द पादारविन्दं येषां येषां हृदयेष्वस्ति तेषां तेषां भागवतानां गुणानुश्रवणमिति यत्

सुदीर्घ काल व्यापी श्रमसाध्यन वेदार्थ ज्ञान का यह ही फल है, जिसकी प्रशंसा उच्चैः स्वर से समस्त विद्वज्जनों ने किया है । वह मुख्य फल क्या है ? कहते हैं-जिनके हृदय में अनवरत श्रीभगवच्चरनारविन्द विराजमान है, उन सब महापुरुष वृन्द के मुखचन्द्र विनिःसृत श्रीहरि की गुण कथा श्रवण करना । अर्थात् श्रीहरि में जात रति भक्त जन के मुख से श्रीहरि कथा श्रवण करना ही निखिल वेद एवं वेदानुगत शास्त्राध्ययन का मुख्य फल है ।

श्रीगोस्वामि चरण कृत उक्त श्लोक की व्याख्या - पुरुष मात्र का वेद तात्पर्य्य बोध का यह ही मुख्य फल है, जिसकी प्रशंसा साधुजनों ने मुक्त कण्ठ से की है । वह फल, क्वा है ? कहते हैं। जिन के हृदयों में मुकुन्द चरण विद्यमान है। उनस्ब महापुरुष भक्त वृन्द के मुख से श्रीकृष्णगुणावली का अनवरत जो श्रवण है, वह ही वेदादि शास्त्र अध्ययन का मुख्य फल है, साधुवृन्द उसकी भूयोभूयः प्रशंसा करते रहते हैं

अतएव भक्त जन वृन्द के समीप से श्रीकृष्ण गुण कथा श्रवण को ही साधुवृन्द, अवश्य कर्त्तव्यतारूप में साधु वाद प्रदान करते हैं । ऐसा होनेपर श्रीमुकुन्द के गुण कथा श्रवण ही वेदादि निखिल शास्त्राध्ययन का मुख्य फख रूप में जो उद्घोषित हुआ है, इस के सम्बन्ध में अधिक कहने की आवश्यकता ही क्या है ?

“श्रुतस्य पुंसां सुचिरश्रमस्य, नन्वञ्जसा सुरिभिरीडितोऽर्थः” fhfg H

श्लोक का तात्पर्य्य इस प्रकार ही जानना होगा। इस अभिप्राय से ही भा० १२ २८ में “वासुदेव परावेदाः” इत्यादि एवं भा० २।२।३४ में “भगवान् ब्रह्म कात्स्न्येंन” इत्यादि श्लोकों का कथन हुआ है । अतः श्रीभगवद् भक्ति की ही अवश्य कर्त्तव्यता का वर्णन, पद्म पुराण के वृहत् सहस्रनामस्त्रोत्र में अन्वय व्यतिरेक मुख से स्पष्टतः हुआ है ।

“स्मर्त्तव्यः सततं विष्णु विस्मर्त्तव्यो न जातुचित् । ॥

सर्वे विधि निषेधाः स्युरेतयोरेव किङ्कराः ॥”

सर्वदा श्रीविष्णु का स्मरण करना कर्त्तव्य है, कभी भी उनको भूलना नहीं चाहिये । शास्त्र के निखिल कर्त्तव्य उपदेश, सतत श्रीविष्णु स्मरण रूप कर्त्तव्य विधि के अनुगत किङ्कर हैं । एवं शास्त्र के निखिल निषेध, अर्थात् अकर्त्तव्य उपदेश, श्रीविष्णु विस्मरण रूप निषेध विधि के अनुगत किङ्कर है ।

जिस प्रकार उक्त स्थल में अन्वय एवं विधि मुख से श्रीहरि भक्ति की अवश्य कर्त्तव्यता विहित हुई उस प्रकार ही स्कन्द पुराण के प्रभाष खण्ड में एवं लिङ्ग पुराण में अन्वय मुख से श्रीविष्णु भक्ति की ही अवश्य कर्त्तव्यता उपदिष्ट हुई है।

अतएव वेदार्पणमन्त्रः-

" इति विद्यातपोयोनिरयोनिविष्णुरीडितः । ब्रह्मज्ञस्तपते देवः प्रीयतां मे जनार्द्दनः ॥ १६५ ॥

श्रीविदुरः ॥

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