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तदेवमस्मिन् श्रीमति महापुराणे गुरुशिष्य भावेन प्रवृत्तानामुपदेश शिक्षावावयेषु भक्तेरेवाभिधेयत्वं साधितम् । तथा (भा० १११६/६ ) -
" तत् कथ्यतां महाभाग यदि कृष्ण कथाश्रम ।
अथवास्य पदाम्भोज-मकरन्दलिहां सताम् ॥ १५८ ॥
इत्यनुसारेण सर्वेषामितिहासानामपि तन्मात्र तात्पर्य्यत्वं ज्ञेयम् । विस्तरभिया तु न विव्रियते । अथान्यत्र च तदेव दृश्यते । तत्रान्वयेन यथा ( भा० ६।३।२२) -
(६१) “अहश्च संस्मारित आत्मतत्त्वं श्रुतं पुरा में परमर्षिवक्त्रात् ।
॥”
प्रायोपवेशे नृपतेः परीक्षितः, सदसूचषीणां महताञ्च शृण्वताम् ॥ १५८ ॥
भा० ११।१२।५३ ’ नैष्कर्म्यमप्यच्युत भाव वर्जितं " श्लोक से आरम्भ कर ‘अहञ्च संस्मारित आत्म तत्त्वं" पर्य्यन्त पाँच श्लोक का कथन श्रीसूत, श्रीशौनकादि ऋषि वृन्द के निकट किये थे ॥ ६१ ॥
२ परम सुन्दर श्रीमद्भागवत महापुराण में गुरु शिष्य भाव से जो जो कथा प्रसङ्ग हुये हैं, उन में गुरुभाव से जो उपदेश हुआ है, एवं शिष्य भाव से जो शिक्षा गृहीत हुआ है, उन समुदय वाक्य में ही एकान्त कर्त्तव्यता, श्रीभगवद् भक्ति की ही सुनिश्चित रूप से स्थापित हुई है । अन्य कथा प्रसङ्ग में भी भगवद् भक्ति की एकान्त कर्त्तव्य निरुपित है ।
भा२ १।१६।६ में उक्त है –
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“तत् कथ्यतां महाभाग यदि कृष्ण कथाश्रयम् ।
अथवास्य पदाम्भोज - मकरन्द लिहां सताम् ॥” १५६ ॥
टीका - अस्य विष्णोः पदाम्भोजयो य मकरन्द स्तं लिहन्ति आस्वादयन्ति ये तेषां सतां महतां वा कथाश्रयमिति समास । न्निष्कृष्यानुषङ्गः । तहि कथ्यताम् ।
हे शौनकादि ऋषिवृन्द श्रीसूत के समोप में श्रीहरि कथा वर्णन करने के निमित्त जो निवेदन किये थे उस का विवरण यह है, हे महाभाग ! आप उस प्रसङ्ग का वजन करें । अर्थात् परीक्षित् महाराज दिग् विजय करने के समय कलि निग्रह किये थे, उस कथा प्रसङ्ग में यदि श्रीकृष्ण का प्रसङ्ग हो, अथवा श्री कृष्ण चरणारविन्दमकरन्द आस्वादन कारी भक्तवृन्द का प्रसङ्ग हो तो उसका वर्णन आप करें ।
किन्तु यदि उक्त कलिनिग्रह प्रसङ्ग में श्रीभगवान् का अथवा उनके भक्तवृन्द का प्रसङ्ग- न हो तो उसका वर्णन आप न करें। इस प्रकार प्रार्थना के अनुसार समझना होगा कि - श्रीमद् भागवत में वर्णित समस्त इतिहास प्रकरणों का मुख्य तात्पर्य्य, भगवान् एवं तदीय जनगण का चरित्र वर्णन में ही है । अर्थात् श्रीमद् भागवत के इतिहास प्रसङ्ग में भी श्रीभगवान् एवं तदीय भक्तजन के प्रसङ्ग व्यतीत साधारण काव्य के समान विफल विरस प्रसङ्ग का वर्णन नहीं हुआ है। प्रत्येक इतिहास वर्णन प्रसङ्ग में जो भगवान् एवं भक्त जन का चरित्र वर्णन करना ही मुख्य तात्पर्य है, उस का विस्तार-ग्रन्थ बाहुल्य के भय से नहीं
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(६२) “एतावानेव लोकेऽस्मिन् पुंसां धर्म्मः परः स्मृतः ।
भक्तियोगो भगवति तन्नामग्रहणादिभिः ॥ १६० ॥
पुंसां जीवमात्राणां परो धर्मः सार्वभौमो धर्म एतावान् स्मृतः, नैतदधिकः । एतावत्व- मेवाह, -
– तन्नाम ग्रहणादिभिर्यो भक्तियोगः साक्षाद्भक्तिरिति । एवकारेणान्यव्यावृत्तत्वं स्पष्टयति– भगवतीति । नामग्रहणादीन्यपि यदि कर्म्मादौ तत्साद्गुण्याद्यर्थं प्रयुज्यन्ते, तदा तस्य परत्वं नास्ति, तुच्छफलार्थं प्रयुक्तत्वेन तदपराधादित्यर्थः । तथैव विष्णु फलदातृत्व च भवतीति भावः ॥ श्रीयमः स्वभटान् ॥
किया गया है। एतद्भिन्न- अर्थात् श्रीस्त शौनक संवाद भिन्न अन्यसंवाद में भी भक्ति की अवश्य कर्त्तव्यता का वर्णन दष्ट होता है । तन्मध्ये अन्वय मुख से अर्थात् अवश्य कर्त्तव्यता मुख मे भा० ६।३।२२ में श्रीयमराज, निज भृत्यवृन्द के प्रति भी भक्ति योग की ही अवश्य कर्त्तव्यता का उपदेश दिये थे ।
(१२) “एतावानेव लोकेऽस्मिन् पुंसां धर्मः परः स्मृतः ।
भक्तियोगो भगवति तन्नामग्रहणादिभिः ॥ " १६ ॥
हे भृत्य वृन्द ! इस जगत् में मानव मात्र का एकमात्र परम धर्म, यह हो शास्त्र में वर्णित है - कि, श्रीभगवान् के नाम श्रवण कीर्त्तन प्रभृति के द्वारा श्रीहरि में भक्ति करना । इस से भक्ति योग की अवश्य कर्त्तव्यता सुष्ठु प्रदर्शित हुई है। पुरुष समूह का परम धर्म भक्ति योग है, अर्थात् जीव मात्र का परमधर्म– सार्वभौम धर्म भक्ति योग ही है, यह सर्व शास्त्र सम्मत है, इस से अधिक धर्म और कुछ भी नहीं हो सकता है, वह सार्वभौम धर्म है क्या ? अर्थात् जिस धर्म में समस्त जोवों का समान अधिकार है, वह किस प्रकार है ? उसका वर्णन करते हैं, - उक्त श्रीहरि के नाम ग्रहण प्रभृति के द्वारा श्रीहार में भक्ति योग प्राप्त करना अर्थात् श्रीहरि नाम प्रभृति ग्रहण के द्वारा साक्षात् भक्ति योग का अनुष्ठान करना ।
तात् पर्थ्य यह है कि जो भी मानव, जो कुछ भी धर्मानुष्ठान क्यों न करें, उस धर्मानुष्ठान के समय श्रीभगवत् प्राप्ति के निमित्त यदि जीवन में व्याकुलता नहीं आती है तो वह धर्मानुष्ठान पण्डश्रम में पर्थ्य वसित होता है। मूल श्लोक में “एतावानेव” ‘एव’ कारका उल्लेख होने के कारण अपर साधनों का व्यावृत्ति - निरास सुस्पष्ट रूप से हुआ है । मूल श्लोक में ‘भगवति” पद का भी प्रयोग है। उस से प्रतीति होती है कि—कर्म, ज्ञान, योगादि साधन की सफलता सम्पादन के निमित्त यदि श्रीभगवन्नाम कीर्त्तन प्रभृति का अनुष्ठान होता है तो, उस नाम कीर्त्तनादि के द्वारा जो भक्ति अनुष्ठित होती है, उसकी श्रेष्ठता नहीं है। कारण, भक्ति योग, अन्यनिरपेक्ष है, कर्म ज्ञानादि साधन का भोग मोक्ष रूप फल प्रति तुच्छ है, उस तुच्छ फल सम्पादन हेतु भक्ति योग प्रयुक्त होने से भक्ति योग के निकट अपराध ही होता है । अर्थात् उक्त अनुष्ठित भक्ति योग से नामापराध ही होता है, एवं उक्त रीति से नाम कीर्त्तन से विनाश शीलता प्रशस्त होती है । श्रीहरि चरणों में प्रीति लाभ उक्त अनुष्ठान नहीं होता है, नश्वर भौतिक पदाथों में अत्यधिक आसक्ति बढ़ती है। कारण, अन्यसाधन के सहित मिश्रित करके श्रीनामादि कीर्तन करने से उक्त श्रवण कीर्त्तनादि रूप भक्ति योग–उस साधक के प्रति अप्रसन्न होता है । सुतरां साक्षात् भक्तियोग का जो मुख्य फल – श्रीकृष्ण चरणों में प्रीति लाभ है, उस से वह साधक सम्पूर्ण वश्चित हो जाता है । उक्त अभिप्राय को प्रकट करने के निमित्त ही मूल श्लोक में ‘भगवति’ पद का उल्लेख हुआ है ।
कि
श
श्रीयमराज - निज भक्त वृन्द को कहे थे ॥ ६२॥
।
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तथा (भा० ६।१।१७) -
(६३) “सध्रीचीनो ह्ययं लोके पन्थाः क्षेमोऽकुतोभयः ।
सुशीलाः साधवो यत्र नारायण-परायणाः ॥” १६१॥
अयं पन्थाः श्रीनारायणभक्तिमार्गः ॥ श्रीशुकः ॥