१५९ ९१
तथा ( भा० १२/१२/७५)-
टीका - ततः किमत आह-अविस्मृतिरिति क्षिणोति-नाशयति ।
हे शौनक ! अनवरतः श्रीकृष्णचरणारविन्द युगल की स्मृति, निखिल अमङ्गलराशि को विदूरित करती है । यहाँतक कि - समस्त अमङ्गल की मूल जननी जी भगवद् विमुखता है, उसकी निवृत्ति भी उस से होती है। एवं श्रीकृष्ण चरणारविन्द का अतुलनीय माधुर्य्यारिव द का विस्तार भी उक्त स्मृति करती है । ऐहिक पारलौकिक सुख भोग के प्रति वितृष्णा की कथा दूर है, मुक्ति के प्रति भी अन दर बुद्धि उत्पन्न करती है । तत् पश्चात् श्रीकृष्णचरणारविन्द में परम आवेश मयी परा भक्ति का अविर्भाव कराती है । एवं अनुभव पूर्ण परोक्ष ज्ञान, तथा विषय वैराग्य भी उत्पन्न करादेती है ।८६
१६० ९०
अनन्तर भा० १२।१२।५६ में
(६०) “यूयं द्विजाग्रचा वत भुरिभागा, यत् शश्वदात्मन्यखिलात्मभूतम् ।
नारायणं देवमदेवमीश, -मजलभावा भजताविवेश्य ॥ " १५७॥
W
श्रोतृवृन्द को अभिनन्दित करते हुये कहते हैं—आप सब प्रचुरतर भाग्यवान् हैं, अर्थात् तपस्या प्रभृति के द्वारा परिपूर्ण हैं, अतएव श्रीनारायण का भजन आप सब करें । यहाँपर मूल इलोक में लिखित (भजत) क्रिया पद का प्रयोग विधिलिङ्ग अर्थ में हुआ है । टीकाकार का कथनाभिप्राय यह है कि- तपस्या प्रभृति सम्पत्ति की यथार्थं सफलता श्रीनारायण भजन से ही होती है । यदि तपस्या ज्ञान वैराग्यादि सम्पत्ति युक्त होकर भी श्रीनारायण का भजन नहीं करते हैं तो उक्त सम्पत्ति समूह माया बन्धन निवृत्ति का कारण नहीं होते हैं, अतएव वे सब विफल होते हैं । हे द्विज वृन्द ! आप सब के सहित प्रसङ्ग होने से मैं भी धन्य हो गया हूँ, कारण, पहले जिस समय महाराज परीक्षित् प्रायोपवेशन किये थे, उस समय जिस सभा में ऋषिकुल मुकुटमणि श्रीशुकदेव के मुखारविन्द से विगलित जिस आत्म तत्त्व का श्रवण, महात्मा गण, कर रहे थे, मैं भी वहाँ पर उस प्रसङ्ग का श्रवण किया था । सम्प्रति अ प सब के सहित कथा प्रसङ्ग होने पर श्रीनारायण के प्रति मेरा हृदय अत्यन्त उत्कण्ठित हुआ है ॥६०॥
१६१ ९१
कारण, श्रीनारायण ही, निखिल पदार्थो का आश्रय स्वरूप आत्म तत्त्व है । यह आत्मतत्त्व श्रीनारायण के प्रति उत्कण्ठा उद्बोधन का एकमात्र कारण ही है, आप सब के सहित श्रीभगवत् कथा प्रसङ्गः ।
श्रीभक्ति सन्दर्भः
[[१२७]]
(६१) “अहञ्च संस्मारित आत्मतत्त्वं श्रुतं पुरा में परमर्षिवक्त्रात् ।
प्रायोपवेशे नृपतेः परीक्षितः, सदसूचषीणां महताञ्च शृण्वताम् ॥ १५८ ॥ एतत्प्रसङ्गेन हञ्चात्मतत्त्वमखिलात्मभूतं श्रीनारयणं स्मारितः सम्प्रति परमोत्- कण्ठितीकृतोऽस्मीत्यर्थः । यदात्मतत्त्वं मे मया महर्षिमुखात् श्रुतम् ॥ श्रीसूतः