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श्रीसूतोपदेशान्तेऽपि पश्चभिः (गा० १२/१२/५३ ) - FAR TR
(८७) “नैष्कर्म्यमप्यच्युतभाववर्जितं, न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् ।
कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे, न चापितं कर्म यदप्यकारणम् ॥ " १५४ ॥
टीका च - " इदानीं ज्ञानकर्मादरादपि भगवत्कीर्त्तनादिष्वेवादरः कर्त्तव्य इत्याह– नैष्कर्म्यं ब्रह्म, तत्प्रकाशकं यज्ज्ञानम्, यतो निरञ्जनमुपाधिनिवर्त्तकं तदप्यच्युतभक्तिवर्जितं
अतएव भा० १२ ४ ४० उपसंहार वाक्य में सुन्दर वर्णित है कि-
"
“संसार सिन्धुमतिदुस्तर मुत्तितोर्णोर्नान्यप्लवो भगवतः पुरुषोत्तमस्य । लीलाकथा रसनिषेवण मन्तरेण पुसोभवेद्विविध दुःखदवाद्दितव्य ॥’ श्रीहरि की लीलाकथा का श्रवण वदतीत संसार सिन्धु उत्तरण के अपर कोई भी उपार है ही नहीं ।
( भा० १२।१२।५३) में उक्त है-
प्रवक्ता श्रीशुक हैं– ८६)
(८७) “नैष्कर्म्यमप्यच्युतभाववर्जितं, न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् ।
कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे, न चापितं कर्म्म यदप्यकारणम् ॥ " १५४॥
टीका - इदानीं ज्ञान कर्मादरादपि भगवत् कीर्त्तनादिष्वादरं कर्त्तव्य इत्याह- त्रिभिः, नैकर्मच ब्रह्म, तत् प्रकाशकं - - यज्ज्ञानं, यतो निरञ्जनं उपाधि निवर्त्तकं, तदपि अच्युत भक्ति वजितं चेत् न शोभते ना परोक्ष पर्यन्तं भवतीत्यर्थः ईश्वरे न चेदर्पितं तर्हि यदनुत्तमं सर्वोत्तममपि कर्म तदपि पुनः कुतः शोभते । अतः शश्वत् साधन काले, फल काले च अभद्र दुःखात्मकम् ।
श्रीशौनकादि ऋषि वृन्द के निकट विविध उपदेश करने के पश्चात् श्रीसूत, वेद व्यास के प्रति देवर्षि नारद कर्तृक उपदिष्ट वचनों के द्वारा उपसंहार कर रहे हैं।
उक्त उपदिष्ट पाँच श्लोकों में श्रीभगवद् भक्ति की अवश्यकर्त्तव्यता सुव्यक्त हुई है । हे शौनक ! निष्कर्मतारूप ब्रह्म प्रकाशक रूप जो अज्ञान है, वह ज्ञान, यदि निरुपाधि अवस्थापन्न होकर भी भक्ति शून्य होता है तो, वह ज्ञान, कतिशय शोभित नहीं होता है । अर्थात् अपरोक्ष ज्ञान का साधक नहीं होता है । अतएव जो कर्म, साधन एवं साध्य, उभव काल में ही दुःखद एवं अमङ्गल स्वरूप है, वह कर्म यदि निष्काम भाव से अनुष्ठित होकर भगवदर्पित नहीं होता है, तो वह वर्म- चित्त शोधन करने में अक्षम ही होगा, इस विषय में कहना ही क्या है ?
अर्थात् निष्काम भाव से अनुष्ठित कर्म भी यदि श्रीभगवान् में अर्पित नहीं होता है, तो, उक्त निष्काम कर्म अनुष्ठान से ऐहिक एवं पारलौकिक सुख भोग तुच्छ बुद्धि रूप चित्त शुद्धि नहीं हो सकती है। और सकाम कर्म, यदि भगवान् में अर्पित नहीं होता है तो, उस कर्म अनुष्ठान मङ्गलमय फल लाभ नहीं होगा, उस विषय में वक्तव्य ही क्या है ? स्वामिपाद कृत टीका की व्याख्या करते हैं- सम्प्रति ज्ञान एवं कर्म के प्रति आदर होने पर भी श्रीभगवत् भक्ति रूप कीर्त्तनादि में ही आदर करना कर्त्तव्य है । उसको कहते हैं । नैष्कर्म्य, निष्कर्मता रूप ब्रह्म प्रकाशक जो ज्ञान, कारण, यह ज्ञान, निरञ्जन अवस्था प्राप्त है, अर्थात् ज्ञान, ज्ञाता, एवं ज्ञेय - उपाधित्रय का निवर्त्तक है। अतएव एतादृश ज्ञान में ब्रह्म स्वरूप आविर्भाव
श्री भक्तिसन्दर्भः
चेत्, न शोभते, नापरोक्षपर्यन्तं भवतीत्यर्थः” इत्यादिका ॥
८८ तथा (भा० १२।१२।५४)-
(८८) “यशः श्रिय मेव परिश्रमः परो, वर्णाश्रमाच्ारतपः श्रुतादिषु ।
अविस्मृतिः श्रीधरपादप यो- गुणानुवाद-श्रवणादिभिर्हरेः ॥ " १५५ ॥
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टीका च - “किञ्च, वर्णाश्रमाचारादिषु यः परो महान् परिश्रमः, स यशोयुक्तानां श्रियामेव कीत्त सम्पदि वा केवलम्, न परमपुरुषार्थ इत्यर्थः । गुणानुवादादिभिरतु श्रीधर- पादपद्मयो र विस्मृतिर्भवति” इत्येषा ॥
दर्द । तथा (भा० १२।१२।५५) -
(दर्द) “अविस्मृतिः कृष्णपदारविन्दयोः क्षिणोत्यभद्राणि च शं तनोति ।
सत्त्वस्य शुद्धि परमाञ्च भक्त, ज्ञानश्च विज्ञानविरागयुक्तम् ॥” १५६ ॥
कराने की, योग्यता है, किन्तु वह ज्ञान भी यदि अच्युत भक्ति शून्य होता है, तो वह शोभित नहीं होता है । अर्थात् - अपरोक्षानुभूति सम्पादक नहीं होता है। टीकाका तात्पर्य यह ही है ॥८७॥
८ अनन्तर भा० १२।१२।५४ में श्रीहरि कीर्तन की अवश्य कर्त्तव्यता का वर्णन करते हैं-
(८८) “यश श्रियमेव परिश्रमः परो, वर्णाश्रमाचारतपः श्रुतादिषु ।
अविस्मृतिः श्रीधरपादपद्मयो, - गुणानुवाद-श्रवणादिभिर्हरेः ॥ " १५५॥ टीका - किञ्च वर्णाश्रमाचार दिषु यः परो महान् परिश्रमः स यशोयुक्तायां श्रियामेव । कीर्ति– सम्पत्तिश्च केवलं परः पुरुषार्थ इत्यर्थः । गुणानुवादादिभिस्तु श्रीधर पादपद्मयोर विस्मृति भवति ॥
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हे शौनक ! वण एवं आश्रमोचित आचार, एवं तपस्या तथा अध्ययनादि कर्म में जो महान् परिश्रम उस परिश्रम से केवल यशः एवं सम्पत् प्रभृति की प्राप्ति होती है । किन्तु उसके द्वारा आत्यन्तिक दुःख त्रय निवृत्ति एवं परमानन्द प्राप्ति रूप परम पुरुषार्थ लाभ नहीं होता है । श्रीहरि गुणानुवाद श्रवण कीर्त्तन प्रभृति के द्वारा श्रीधर पादपद्म युगल की अविस्मृतिरूप परम पुरुषार्थ लाभ होता है ।
उक्त श्लोक में श्रीधर स्वामिकृत व्याख्या का अभिप्राय यह है, - हे शौनक ! और भी कहता हूँ, वर्ण एवं आश्रमोचित आचारादि प्रति पालन करने में जो महीयान् परिश्रम होता है, वह केवल, निज सुयशः एवं सम्पत्ति प्राप्तिका कारण ही होता है किन्तु परम पुरुषार्थ प्राप्ति का हेतु नहीं होता है ।
श्रीहरि का गुणानुवाद श्रवण कीर्तन प्रभृति के द्वारा किन्तु श्रीधर पादपद्म युगल में अविस्मृति होती है। तात्पर्य यह है कि - अखण्ड आनन्द मूर्ति स्वरूप परम पुरुषार्थ है । श्रीहरि कथा श्रवण कीर्त्तनादि के द्वारा श्रीधर पद पद्म की अनवरतः स्मृति रूप परम पुरुषार्थ प्राप्ति होती है । अतएव अपर किसी प्रकार साधन के प्रति महत्त्व स्थापन न करके श्रीहरि कथा श्रवण कीर्त्तनादि में श्रद्धा करनी चाहिये ॥८॥