१५५ ८६
श्रीशुकोपदेश के उपसंहार में भी श्रीकृष्ण लीलाकथा श्रवण को उपलक्ष्य कर कहा गया है कि श्रीहरि कथा श्रवण व्यतीत संसार सिन्धु उत्तीर्ण होने का अपर कोई उपाय नहीं है । भा० १२।४।४०
(८६) “संसार सिन्धुमतिदुस्तर मुत्तितीर्षो
र्नान्यः प्लवो भगवतः पुरुषोत्तमस्य ।
लोलाकथा रस निषेवण मन्तरेण
पुसो भवेद्विविध दुःखदवाद्दितस्य ।” १३६ ॥
टीका-ननु यदि साकल्येनाभिधातुं न शक्यन्ते तर्हि किं तदभिधानेन, तत्राह संसारेति । विविधं दुःखमेव दवो दावानलस्तेन अदितस्य पीड़ितस्य, अत उत्तितीर्षोः पुं सः भगवतो या लीला स्तासां कथास्तासां रसस्तन्निषेवणमन्तरेण अभ्यः प्लवस्तरणसाधनं न भवेत् । उपायान्तरासम्भवात् । तत्कथा श्रवणमेव यथा शक्ति निषेव्यमित्यर्थः ॥४०।
हे राजन् ! विविधदुःख दावानल से दन्दह्यमान देहाभिमानी जीवके हृदय में अतिदुस्तर संसार सिन्धु उत्तीर्ण होने की इच्छा जागरुक होने पर श्रीभगवान् की लीलाकथा रूप तरणी की ही अवलम्बन करना चाहिये, कारण, भगवान् पुरुषोत्तम की लीलाकथा निषेवण भिन्न अपर कोई संसार समुद्र तरण साधन तरणी नहीं है ।
उपायान्तर की असम्भवना के कारण अन्य प्लव अर्थात् उत्तरण साधन नहीं हो सकता है। स्वामि पाद का अभिप्राय यह ही है । यहाँपर श्रीधर स्वामि पाद कर्तृक व्याख्यात उपायान्तर की असम्भवना का कथन अतिशय युक्ति युक्त है । कारण, अपर जितने भी भक्तयङ्ग साधन हैं, उन में श्रीहरि कथा श्रवण ही
[[११६]]
11 (
“अत्रानुवर्ण्यतेऽभीक्ष्णं विश्वात्मा भगवान् हरिः । यस्य प्रसादजो ब्रह्मा रुद्रः क्रोधसमुद्भवः ॥ १४०॥
इत्युपक्रमे, ( भा० १२।५।१३) -
“एतत्ते कथितं तात यदात्मा पृष्टवान्नृप । हरेविश्वात्मनश्चेष्टां किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १४१ ॥
लि
(-)
इत्युपसंहारेऽपि तादृश-महिमत्वेन पूर्वोक्त-लीलाकथाश्रवणस्यैव प्राधान्यात्, तत उपक्रमोपसंहार निद्दिष्टत्वात् श्रवणोपलक्षित-भक्तेरेव त्रापि प्राधान्यम् ।
यस्तु
यस्तु तन्मध्ये (भा० १२।५।२) " त्वन्तु राजन् मरिष्येति” इत्यादिना ज्ञानोपदेशः, स च तस्य या प्रागवगता प्रधान है, उस से ही अपर भक्तयङ्ग साधन में प्रवृत्ति होती है। जबतक साधु के मुखारविन्द से श्रीहरि कथा श्रवण करने के निमित्त रुचि उत्पन्न नहीं होती है, तबतक अपर भत्ता घङ्ग साधन में प्रवृत्ति का उद्गम नहीं होता है ।
हुआ है ।
इस के परवर्ती अध्याय भा० १२२५२१ में उपक्रमोपसंहार के द्वारा पूर्व वणित विषय का उल्लेख
“अत्रानुवर्ण्यतेऽभीक्षणं विश्वात्मा भगवान् हरिः ।
यस्य प्रसाद जो ब्रह्मा रुद्रः क्रोधसमुद्भवः ।” १४०॥
टीका - एतत् पुराणं श्रृण्वनभ्यं प्राप्नोतीत्यभिप्रेत्य पुराणार्थमनुस्मारयति - अति अयं भावः ॥ जगतः कर्त्ता ब्रह्मापि यस्य प्रसादजः । प्रसादोऽत्र रजोवृत्तिर्हर्षः । ततो जगतत्वात् परतन्त्रः । सर्व संहर्त्ता रुद्रश्च यस्य क्रोध सम्वो नतु स्वतन्त्रः । स विश्वस्यात्मा नियन्ता, भगवान् अत्रानुवर्ण्यते । अत एवम्भूतं भागवतं श्रृगुतः । कुतोऽन्यस्माद् भयशङ्क ेति । (१)
हे राजन् ! जो मानव, श्रीमद् भागवत श्रवण करता है, उस को भय अपर से कसे हो सकता है ? कारण, ब्रह्मा जिनके प्रसादज है, अर्थात् रजोगुण वृत्ति हर्ष से उत्पन्न होने के कारण परतन्त्र हैं, सवसंहार कर्त्ता रुद्र भी जिनके क्रोध समुत्पन्न हैं, अतएव आप भी जिन के अधीन हैं, उन विश्व नियन्ता भगवान् श्रीहरि, निरन्तर जिस के प्रतिश्लोक में क्रमशः वर्णित हैं । इस प्रकार उपक्रम करके भा० १२।५।१३ में निज प्रियतम शिष्य श्रीपरीक्षित् महाराज को कृतार्थ करने के निमित्त प्रश्न करते हैं-
[[161]]
“एतत्ते कथितं तात् यदात्मा पृष्टवान्नृप । हरेविश्वात्मनश्चेष्टां किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १४१ ॥
॥
टीका - हरेश्चेष्टामात्मा त्वं यत् पृष्टवान् तदेतत् ते कथितम् । शिष्यस्य कृत र्थता परीक्षण य पृच्छति किमिति ॥ १३॥
हे राजन् ! हे वत्स ! तेमने सर्वात्मा प्रियतम श्रीहरि की लीला का श्रवण के निमित्त जो प्रश्न किया था, उसका वर्णन मैंने किया, पुनर्वार तुम क्या सुनना चाहते हो ? इस उपसंह र वाक्य में हरिकथा श्रवण की महिमा अतिशय प्रकाशित होने से पूर्व वर्णित लीला कथा श्रवण का प्राधान्य वर्णित हुआ है । अतएव उपक्रम उपसंहार में हरि कथा श्रवण का प्राधान्य निद्दिष्ट होने के कारण, यहाँपर श्रीहरि कथा श्रवणोपलक्षिता भक्ति का ही प्राधान्य को जानना होगा । इस अभिप्राय से हं श्रीस्वामिपादने उपायान्तर का असम्भव के कारण, - श्रीहरि कथा श्रवण कीर्तन महिमा वर्णन प्रसङ्ग के मध्य में भी “त्वन्तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि । न जातः प्रागभूतोऽद्यदेहवत् त्वं न नङ्क्ष्यसि (भा० १२।५।२) टीका । त्वं
श्रीभक्ति सन्दर्भः
[[११७]]
भक्तिनिष्ठा, तस्याः सम्प्रत्यपि स्थैर्य्य प्रकटनार्थ एव, एकान्तिभक्तेषु भगवता मोक्षवरच्चन्दनवत् पूर्वमपि तन्निष्ठया स्वतः एव मरणभयपरित्यागात्, अनन्तरश्च श्रुत्वापि तं ज्ञानोपदेशं स्वस्थ भक्तिनिष्ठाया एव स्वयं दर्शयिष्यमाणत्वात् । तत्र प्राचीना तन्निष्ठा, यथा प्रथमे (भा० १११६१५) “कृष्णाङ्घ्रिसेवामधिमन्यमानः” इति, (भा० १११६१७) “दध्यौ
इति, (भा० १।१६७) “दध्यौ मुकुन्दाङ्घ्रिमनन्यभावः " इत्यादि च तनिष्ठयैव तद्भय परित्यागो यथा तद्वावये (भा० १११६।१५) “द्विजोपसृष्टः
पुनः कृतार्थ एवेत्यनु स्मारयति त्वत्विति । पशु बुद्धिमविवेकम । यस्मात् न नङक्ष्यसि कुत इत्यत आह- न जात इति । यथा देहः प्रागभूत् एवाद्यजातो नङ्क्ष्यति । न चैवं त्वं पूर्वं नाभूर्नचाद्य जातोऽसि अतो न नक्ष्यसि ॥२॥
हे राजन् ! ‘तुम मरोगे’ इस प्रकार अविवेक त्याग करो, इस प्रकार ज्ञानोपदेश किया गया है । उक्त उपदेश का तात्पर्य यह है- पहले श्रीशुकदेव ने परीक्षित् महाराज की जिस भक्ति निष्टा को अवगत हुये थे, सम्प्रति उस भक्ति की स्थिरता प्रकटन के निमित्त हो उस प्रकार ज्ञानोपदेश किया गया है । एकान्ति भक्त वृन्द के निकट श्रीभगवान् जिस प्रकार मोक्षवर ग्रहण करने के निमित्त अनुरोध करते हैं, यहाँपर भी उस प्रकार परीक्षित् महाराज की भक्ति निष्ठा का उदय किस प्रकार हुआ है, उस की परीक्षक्षा करने के निमित्त ही ज्ञानोपदेश किया है। कारण, पहले भी भक्ति में गाढ़ निष्ठा हेतु स्वतः ही मरणमय को परित्याग श्रीपरीक्षित् महाराज किये थे । अनन्तर उक्त ज्ञानोपदेश श्रवण के पश्चात् भी स्वीय भक्ति निष्ठा को ही व्यक्त किये थे ।
इसके मध्य में भक्ति के प्रति निष्ठा की वार्ता महाराज की भा० २।१६।५ में इस प्रकार है-
“अथो विहायेमममुञ्च लोकं विर्माशतो हेयतया पुरस्तात् ।
कृष्णाङ्घ्रि सेवामधिमन्यमान उपाविशत् प्रायममर्त्यनद्याम् ॥”
टीका - अथो अनन्तरम् । उभौ लोकौ, पुरस्ताद्राज्यमध्य एव हेयतया विचारितौ विहाय । श्रीकृष्णाङ्घ्रिसेवामेवाधिमन्यमानः सर्व पुरुषार्थेभ्योऽधिकां जानन्, प्रायमनशनं तस्मिन्नित्यर्थः । तत् सङ्कल्पेनोपाविशदिति यावत् । यद्वा, प्राय प्रकृष्टमयनं शरणं यथा भवति तथा ॥५॥
महाराज परीक्षित् श्रीकृष्ण चरणारविन्द की सेवा को ही सार मानकर गङ्गातीर में प्रायोपवेशन किये थे । भा० १।१६।७ में उक्त है-
" इति व्यवच्छिद्य स पाण्डवेयः प्रायोपवेशं प्रति विष्णुपद्याम् ।
दध्यौ मुकुन्दाङ्घ्रि मनन्यभावो मुनिव्रतो मुक्त समस्त सङ्गः ।”
टीका - इति एवं विष्णुपद्यां गङ्गायां प्रायोपवेशं प्रति व्यवञ्छिद्य निश्चित्य । पाण्डवेय इति तत् कुलौचित्यंदर्शयति । नास्त्यन्यस्मिन् भावोयस्य सः । कुतः ? मुनिव्रतः–उपशान्तः । तत् कुतः ? मुक्त समस्त
। सङ्गो येन सः । (७) ।
इस में “सर्वसङ्गविनिर्मुक्त मौनी महाराज परीक्षित के द्वारा अनुष्ठित श्रीकृष्ण के चरण युगल का ध्यान का वर्णन है । उक्त श्लोक द्वय के द्वारा महाराज की भक्ति निष्ठा वर्णित हुई है । भा० १।१६।१५ श्लोक में सर्प दंशन से भय निवृत्ति की वार्त्ता लिखित है-
" तं मोपयातं प्रतियन्तु विप्रा गङ्गा च देवी धृतचित्तमीशे ।
द्विजोपसृष्टः कुहकस्तक्षको वा दशत्वलं गायत विष्णुगाथाः ॥ १५ ॥
टीका- तान् प्रार्थयते द्वाभ्याम् । तं मा माम्, उपयातं, शरणागतं प्रतियन्तु जानन्तु । देवी देवता
।
[[११८]]
कुहस्तक्षको वा, दशत्वलं गायत विष्णुगाथाः” इति । तज्ज्ञानोपदेश श्रवणानन्तरमपि तादृश-स्वनिष्ठायाः स्थेय्र्यदर्शनं यथा तत्र तावत् पद्यत्रयेण तज्ज्ञानोपदेशमव मत्वा श्रवण- लक्षणया भक्तंचव स्वकृतार्थत्वमुक्तम् (भा० १२।६।२-४) -
“सिद्धोऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि भवता करुणात्मना
श्रावितो यच्च मे साक्षादनादिनिधनो हरिः ॥ १४२॥ नात्यद्भुतमहं मन्ये महतामच्युतात्मनाम् ।
अज्ञ ेषु तापतप्तेषु भूतेषु यदनुग्रहः ॥१४३॥ पुराणसंहितामेतामश्रौष्म भवतो वयम् ।
यस्यां खलूत्तमश्लोको भगवाननुवर्ण्यते ॥ १४४ ॥ इति
रूपा गङ्गा च प्रत्येतु । वा शब्द प्रतिक्रियाऽनादरे । गाथाः कथा–गात ॥५॥ ।
Biog
ब्राह्मण कत्तृक प्रेरित कुहक अथवा यथार्थ तक्षक मुझ को यथेष्ट दंशन करे । आप सब श्रीकृष्ण की गुण कथा का गान करें। इस प्रकार निज प्रार्थना के द्वारा स्पष्ट रूप से मृत्युभय निवृत्ति का विवरण प्रकाशित हुआ है ।
द्वादशस्कन्ध के पञ्चम अध्याय में वर्णित ‘त्वन्तु राजन् मरिष्यति” हे राजन् ! ‘तुम मरोगे’ इस प्रकार अविवेक प्राप्त होना ठीक नहीं है।’ इस से आरम्भकर जो ज्ञानोपदेश किया गया है। उसके पहले भी महाराज में श्रीहरिभक्ति की अव्यभिचारिता प्रदर्शित हुई है। उस के मध्य में (भा० १-२।६।२–४) तीन श्लोकों के द्वारा ही महाराज कृतार्थ हुए है इस का उल्लेख है ।
“सिद्ध ऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि भवता करुणात्मना ।
श्रावितो यच्च मे साक्षादन दिनिधनो हरिः ॥ १४२॥ नात्यद्भुतमहं मन्ये महतामच्युतात्मनाम् ।
अज्ञेषु तपतप्त ेषु भूतेषु यदनुग्रहः ॥ १४७॥
पुराण संहितामेतामश्रौष्म भवतो वयम् ।
यस्यां खलूत्तमश्लोका भगवाननुवण्यते ॥ " १४४ ॥ इति ।
टीका-सिद्ध, कृतार्थोऽस्मि । यतोऽनुगृहीतोऽस्मि । अनुग्रहमेवाह - यद्· यस्मात् श्रावितः । च इ.ब्दालु प्राप्ति साधन श्रादितम् । (२)
करुणात्मतामभिनन्दति नात्यद्भुतमिति द्वाभ्याम् । २ अश्रोष्म श्रुतवन्तः भवतः र क. शात् ॥ ४॥ हे प्रभो ! आप साक्षात् करुणा की मूर्ति हैं। आप के द्वारा मैं कृतार्थ एवं अनुगृहीत हूँ । कारण, आपने कृपा करके मुझ को अनादि निधन श्रीहरि की कथा का श्रवण कराये हैं। जो श्रीहरि गत प्राण हैं, उन महापुरुषों के पक्ष में त्रिताप दग्ध अज्ञ देहाभिमानी जीव के प्रति एतादृश अनुग्रह - अद्भुत नहीं है । आप के बदन चन्द्र से विनिःसृत- यह पुराण संहिता रूप अमृत का पान हमने किया। जिस में उत्तम श्लोक श्रीभगवान् सर्वत्र अनुक्रम से वर्णित हुये हैं । अर्थात् अन्वय व्यतिरेक के द्वारा एवं मुख्य, गौण वृत्ति के द्वारा श्रीमद् भागवत में सर्वत्र भगवान् श्रीकृष्ण ही वाच्य एवं लक्ष्य रूप में वर्णित हैं ।
इस प्रकार ज्ञानोपदेश श्रवण के पश्चात् भी श्रीहरि भक्ति अनुष्ठान के द्वारा ही महाराज परीक्षित की चित्तैकतानता प्रदर्शित हुई है। पुनर्वार एक श्लोक के द्वारा श्रीगुरुवाक्य की गौरवरक्षा हेतु ब्रह्म ज्ञान
[ ११ε
पुनश्चैकेन पद्य ेन तद्वाक्य गौरवमात्रेणाङ्गीकृतस्य ब्रह्मज्ञानस्य तक्षकादिभय-निवृत्ति- हेतुत्वमुक्त्वाप्यन्येन तदूर्ध्वमधोक्षज एव वाक्चेतसोस्तन्नाम कीर्त्तनः ध्यानावेशानुज्ञा प्रार्थिता
( भा० १२२६।५-६ )
“भगवंस्तक्षकादिभ्यो मृत्युभ्यो न विभेम्यहम् ।
प्रविष्टो ब्रह्मनिर्वाणमभयं दर्शितं त्वया ॥ १४५ ॥ अनुजानीहि मां ब्रह्मन् वाचं यच्छाम्यधोक्षजे ।
मुक्तकामाशयं चेतः प्रवेश्य विसृजाम्यसून् ॥” १४६॥
अथ पुनरम्येन पद्म नाज्ञाननिरासक ज्ञान विज्ञान सिद्धिश्व भगवत्पदारविन्द दर्शन सुखा भूतैव मम स्फुरतीति विज्ञापितम्, यथा (भा० १२।६।७ )
“अज्ञानश्च निरस्तं मे ज्ञान-विज्ञान-निष्ठया ।
भवता दर्शितं क्षेमं परं भगवतः पदम् ॥ १४७॥ इति ।
न्त-
अत्र पद- शब्दस्य चरणारविन्दविधायकत्वे (१० १११८३१६) “ज्ञानेन वैयास ‘क शब्दितेन, को तक्षक दंशन से भवनिवृत्ति के हेतु रूप में अङ्गोकार करके भी अपर श्लोक द्वय ( मा० १२।६।५–६ ) के द्वारा ब्रह्म ज्ञान के उपरिस्थित अधोक्षज श्रीकृष्ण में ही वाक्य एवं चित्त में श्रीकृष्ण के नाम कीर्त्तन एवं ध्यान के द्वारा आवेश प्राप्त करने की अनुज्ञा की प्रार्थना भी उन्होंने की है।
‘भगवंस्तक्षकादिभ्यो मृत्युभ्यो न विभेम्यहम् । प्रविष्टो ब्रह्मनिर्वाणमभयं दर्शितं त्वया ॥ १४५ ॥ अनुजानीहि मां ब्रह्मन् वाचं यच्छाम्यधोक्षजे
।
मुक्तकामाशयं चेतः प्रवेश्य विसृजाम्यसून् ॥” १४६॥
टीका- सिद्धोऽस्मीत्युक्तं, तदेवाविष्करोति भगवन्निति । यतस्त्वया दर्शितं ब्रह्म, प्रविष्टः । कथम्भूतम् ? अभ्यम् । यतो निर्वाणं केवल्य रूपम् । ५। किं भूयः श्रोतु मिच्छसीति यदुक्त तत्र सिद्धोऽहं न किञ्चित् श्रोतुमिच्छामि, केवलं अनुज्ञां बेहोत्याह – अनुजानीहीति । वाचमित्युलक्षणम् । सर्वन्द्रियाणाम् । वाचं नियम्य किं करिष्यति । तदाह-मुक्ताः कामाशयास्तद्वासना येन तच्चेतोऽधोक्षजे प्रवेश्य असून् विसृजामि ॥६॥
हे भगवन् ! मैं तक्षकादि मृत्युगण से किञ्चिन्मात्र भीत नहीं हो रहा हूँ । कारण, आप के द्वारा प्रदर्शित अभय ब्रह्म निर्वाण में मैं प्रविष्ट हो गया हूँ । इस वाक्य के द्वारा श्रीगुरुवाक्यानुरोध से ब्रह्म ज्ञानाङ्गीकार भी सूचित हुआ है । इस के परवर्ती श्लोक (भा० १२।६।७ )
“अज्ञानञ्च निरस्तं में ज्ञानविज्ञान निष्ठया ।
भवतादशितं क्षेमं परं भगवतः पदम् ॥ " १४७ ॥
में ब्रह्म ज्ञान से भी अधिक अस्वादन युक्त अधोक्षज तत्त्व श्रीकृष्ण हैं, उनके पदारविन्द दर्शन सुख को एवं अज्ञान निरासक ज्ञान विज्ञान सम्पन्नता को भी उन्होंने सूचित किया है । भा० १२ ६।६ श्लोक में ब्रह्म ज्ञान से भी अधिक आस्वादन युक्त श्रीकृष्ण में वाक्य एवं चित्त का गाढ़ आवेश की प्रार्थना है । “हे वेदज्ञ शिरोमणे ! आप मेरे प्रति यह कृपा करें, जैसे मैं अधोक्षज श्रीकृष्ण में वागिन्द्रिय समर्पण कर सकूँ ।
[[१२०]]
भेजे खगेन्द्रध्वजपादमूलम्” इत्येवास्ति प्रथमे साधकम् । तदेतत् प्रकरणार्थस्तत्र श्रीसूतेनं व स्पष्टीकृतः, (भा० १।१८।२-४) –
“ब्रह्मको पोत्थिताद्यस्तु तक्षकात् प्राणविप्लवात् । 13193
न संमुमोहोरुभयाद्भगवत्यपिताशयः ॥ १४८ ॥
नोत्तमश्लोकवार्त्तानां जुषतां तत्कथामृतम् ।
स्यात् संभ्रमोऽन्तकालेऽपि स्मरतां तत्पदाम्बुजम् ॥ " १४६ ॥ इति ।
॥”
तथा पूर्वं द्वादशस्यैव तृतीये प्रथमस्कन्धान्तःस्थस्य (भा० १११६।३७)
अर्थात् सर्वदा श्रीकृष्ण नाम कीर्त्तन कर सकूँ । एवं सर्व भोग वासना शून्य चित्त को श्रीकृष्ण के चरणों में स्थापन कर प्राण त्याग कर सकू । इस के बाद पुनर्वार अन्य एक श्लोक के द्वारा अज्ञान निवर्त्तक परोक्ष एवं अपरोक्ष ज्ञान सिद्धिकी स्फूर्ति श्रीभगवत् पदारविन्द साक्षात् कार रूप आनन्द के अन्तर्भूत रूप में हुई थी इसका वर्णन हुआ है । ( भा० १२/६११) हे प्रभो ! यदि आप कहें, कि–प्राण त्याग के समय ज्ञान निष्ठ हो जाओ’ उस के उत्तर में निवेदन करता हूँ । आप की कृपा से ज्ञान विज्ञान निष्ट’ हेतु मेरा अज्ञान विदूरित हो गया है । यहाँतक कि अज्ञान का संस्कार पर्य्यन्त भी दिनष्ट हो गया है। कारण आपने ही
। श्रीभगवान् के अभय श्रीचरणारविन्द का दर्शन कराया है। इस श्लोक में उल्लिखित ‘पद’ शब्द का अर्थ- ‘चरणार विन्द’ होना सुसङ्गत है । कारण भा० १।१८ १६ में उक्त है-
के
“सर्व महाभागवतः परीक्षिद् येनापवर्गास्यमदन बुद्धिः के ज्ञानेन वैयासकि शब्दितेन भेजे खगेन्द्रध्वज पाद मूलम् ॥”
टीका - तच्च शुक्र परीक्षित संवादेन कथितेन येन इत्याह– स वा इति द्वाभ्याम् । वैषास किना, श्रीशुकेन, शब्दितेन येन ज्ञानेन, ज्ञानसाधनेन, अपवर्ग इत्याख्या यस्य तत्, खगेन्द्रध्वजस्य हरेः पदमूलं भेजे ॥ १६ ।
अर्थात् वैयासकि श्रीशुकदेव कर्तृक कथित ज्ञान साधन के द्वारा परीक्षित् महाराज गरुड़ ध्वज श्रीकृष्ण के पाद मूल लाभ किये थे । अतएव इस प्रकरण का अर्थ प्रथम स्कन्ध के अष्टादश अध्याय के द्वारा श्रीसूतने सुस्पष्ट रूप से किया है ॥ भा० १ १८२१-४
“ब्रह्म कोपोत्थिताद् यस्तु तक्षकात् प्राणविप्लवात् ।
न संमुमोहोरुभयाद् भगवत्यपिताशयः ॥ १४८ ॥ नोत्तमश्लोक वार्त्तानां जुषतां तत्कथामृतम् ।
F
स्यात् संभ्रमोऽन्तकालेऽपि स्मरतां तत्पदाम्बुजम् ॥ १४६ ॥ BF DER
टीका - ब्रह्म कोपादुत्थितात् तक्षकाद्, यः प्राण विप्लवः, प्राण नाशस्तस्माद् यदूरुभयं तस्मान्न सम्मुमोह । अत्र हेतुः, यस्तु भगवत्यपिताशय इति ॥२॥
न चेतच्चित्रमित्याह, उत्तमः श्लोकस्यैव वार्त्ता येषु अतएव नित्यं तत् कथारूपममृतं जुषतां सम्भ्रमो मोहो न स्यात् ॥४॥
ि
“हे शौनक ! परीक्षित् महाराज, ब्रह्म शापोत्थित तक्षक से प्रचुरतरभय हेतु प्राण नाश जन्य किसी प्रकार मोह प्राप्त नहीं हुए थे । कारण, परीक्षित्, -भगवान् श्रीकृष्ण में प्राणमन प्रभृति अर्पण किये थे । हे शौनक ! यह कुछ आश्चर्य कर नहीं है । जो मानव, आसक्ति पूर्वक श्रीहरि कथामृतका आस्वादन करते हैं,
I
[[१२१]]
“अतः पृच्छामि संसिद्धि योगिनां परमं गुरुम् ।
पुरुषस्येह यत् काय्यं त्रियमाणस्य सर्व्वथा ॥ १५० ॥
[[036]]
इत्यप्य राजप्रश्नस्योत्तरत्वेन भगवद्धयान - कीर्त्तने एव स्वयं श्रीशुक देवेनाप्युपदिष्टे
(भा० १२।३।४६–५१)-
()
तस्मात् सर्वात्मना राजन् हृदिस्थं कुरु केशवम् म्रियमाणो ह्यवहितस्ततो यासि परां गतिम् ॥१५१॥ म्रियमाणरभिध्येयो भगवान् परमेश्वरः ।
आत्मभावं नयत्यङ्ग सर्वात्मा सर्वसम्भवः ॥१५२॥
कले र्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुणः ( कीर्त्तनादेव कृष्णस्य मुक्तबन्धः परं व्रजेत् ॥” १५७॥
ि
इत्यादिना । ततस्तत्र केशवे, अवहितः कृतावधानः, आत्मभावमात्मनो भक्तिम् । अस्तु
हैं, उन सब की महिमा भी श्री भगवान् की महिमा के समान अति पवित्र है । उन सब महाभागवत के मृत्यु समय में भी किसी प्रकार सम्भ्रम उपस्थित नहीं होता है, कारण, वे सब निरन्तर श्रीकृष्ण चरण कमल का स्मरण करते हैं, अतः उन सब को देहानुसन्धान करने का अवसर नहीं रहता है । जिनका देहानु सन्धान है, उनको ही मृत्यु से भय होता है ।
प्रथम स्कन्ध के अन्त में अर्थात् १।१६।३७ में
कि
[[66]]
अतः पृच्छामि संसिद्धि योगिनां परमं गुरुम् ।
पुरुषस्येह यत् कार्य्यं म्रियमाणस्य सर्व्वथा १५०॥॥”
टीका - सम्यक् सिद्धि र्यस्मात् तम् । काय्यं कर्त्ती योग्यं कर्त्तव्यन्तु - आवश्यकमिति तयोर्भेदः । अतएव सर्वथा म्रियमाणस्य पुरुषस्य यस्मिन् कृते संसिद्धिर्मोक्षलक्षणा सिद्धि र्भवति तत् त्वां योगिनां गुरु पृच्छामि ।
श्रीपरीक्षित् महाराज, श्रीशुकदेव के निकट प्रश्न किये थे, जिस से सम्यक् सिद्धि प्राप्ति होती उस संसिद्धि को जानना चाहता हूँ। मुमुषु मानवों को जो कर्त्तव्य है, उसका कथन आप करें । श्रीपरीक्षित् कृत प्रश्न के उत्तर में श्रीशुकदेव, द्वादश स्कन्ध के तृतीय अध्याय में वर्णित श्रीभगवद्धान एवं कीर्तन का उपदेश, अवश्य कर्त्तव्य रूप में किये थे । ( भा० १२ । ।४६ - ५१ )
“तस्मात् सर्वात्मना राजन् हृदिस्थं कुरु केशवम् । म्रियमाणो ह्यवहितस्ततो यासि परां गतिम् ॥ १५१ ॥ म्रियमाणैरभिध्येयो भगवान् परमेश्वरः ।
மிடுக
आत्मभावं नयत्यङ्गः सर्वात्मा सर्वसम्भवः ॥१५२॥
कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्य ेको महान् गुणः ।
कीर्त्तनादेव कृष्णस्य मुक्तबन्धः परं व्रजेत् ॥ १५३॥
क्रमसन्दर्भ ।
क
FIF
तदेवं तत् स्पृष्टार्थान् सर्वान् समापयिष्यंस्तत् कर्त्तव्यमुपदिशति तस्मादिति । सर्वात्मना - सर्वेणैव
[[१२२]] तावदायाससाध्यं ध्यानम्, हि यस्मादनायास - साध्यात् कीर्त्तनादेवेत्यर्थः । द्वितीयस्कन्धेऽपि ( भा० २२२१३३) न ह्यतोऽन्यः शिवः पन्थाः” इत्यादिना, (भा० २३।१) “एवमेत निगदितम् " इत्यन्तेन ग्रन्थेन नानाङ्गवान् शुद्धभक्ति-योग एव तत्रोत्तरत्वेन पर्यवसितः । तत्रापि ( भा० २ २ ३७ ) " पिवन्ति ये भगवतः’ इत्यादिना लीला कथा श्रवण एव परमपर्व्यवसानं दृश्यते । तस्मात् साधुक्तं (भा० १२।५।२) " त्वं तु राजन् मरिष्येति” इत्यादिकं तद्भक्तिनिष्ठा प्रकट नार्थ- मेवेति, यतो भक्तावेव तदुपदेशस्य तात्पय्र्थ्यम्, अतएव द्वितीयस्याष्टमे राजप्रार्थना च न न्यथा प्रयत्नेन । तत्रैव कंमुत्येन हेतुमाह, म्रियेति । हि यस्मादन्येऽपि यः कश्चिन् त्रियमाणोऽप्यवहितस्तस्मिन् कृतावधानश्चेत्तन्मात्रादेव परां सर्वोत्कृष्टा गतिं याति । त्वं पुनस्तस्य परमान्तरङ्गः किमुतेत्यर्थः ॥ ४६ ॥
अतएवान्यैरपि स्त्रियमाणैरभिध्येयः आत्म भावं आत्मनो भक्तिम् । यद्वा, परम प्रेमात्मतुल्यतामित्यर्थः ।
भा० ११।५।३६) ‘कलिम् " इत्यादिनैव कलेरित्यादि व्याख्यातमेव । कलिदोष प्रशमनत्वेन नाम कीर्तन – स्मरण माहात्म्यमुक्त्वोपसंहरति, फलेरिति । अस्तु तावदायास स ध्यं ध्यानम् हि यस्मादनायास साध्यात् कीर्त्तनादेवेत्यर्थः । स च कलिः श्रेयोऽतिक्रम हेतूनां दोषाणां निधिरपि कलेरेको गुणः, कीर्त्तनादर रूपो महामेवास्ति, कंसादेः श्रीनारदादर इव । अतस्तस्य विघ्नोद्यमाभावात् सिध्यत्येव नामकीर्त्तयितेत्य ह कीर्त्तनादेवेति ॥५१॥
।
हे राजन् ! विद्या, तपस्या, प्राणनिरोध, सर्व जीवों में बन्धुभाव, तीर्थ यात्रा, व्रत, दान, जप प्रभृति साधन समूह के द्वारा भी जब अन्तरात्मा ‘जीव’ की उस प्रकार शुद्धि नहीं होती है, भगवान् श्रीहरि की चिन्ता हृदय में करने से जिस प्रकार शुद्धि होती है । अतएव सर्व प्रकार से श्रीकेशव को हृदय में धारण करो। मुमुषु समय में भी यदि श्रीहरि को हृदय में धारण कर सकते हो, तो भो अवश्य ही परमागति प्राप्ति होगी, इस में किसी प्रकार संशय नहीं है । त्रियमाण जन के पक्ष में परमेश्वर श्रीहरि का ध्यान करना प्रधान कर्त्तव्य है । कारण, सर्वात्मा, सर्वसम्भव श्रीभगवान् निज स्मरण कारी भक्त को स्वरूप प्रदान अर्थात् भक्ति प्रदान अवश्य ही करते हैं ।
हे राजन् ! यद्यपि कलियुग, अशेष दोष का आकर है, तथापि उसका एक महीयान् गुण है, जिस प्रकार कंस का श्रीनारद समादर रूप महान् गुण था । वह यह है - एकमात्र श्रीकृष्णनाम कीर्तन से ही समस्त अ सक्ति बन्धन से निर्मुक्त होकर परमपद लाभ होता है । उक्त श्लोकों के द्वारा श्रीशुकदेव ने सुस्पष्ट रूप से ही श्रीभगवद्धान एवं कीर्त्तन का उपदेश प्रदान किया है । तन्मध्ये “केशवे अवहित” शब्द से ‘कृतानुसन्धान’ अर्थ जानना होगा । एवं “आत्मभाव” शब्द से आत्म भक्ति रूप अर्थ को जानना होगा । उस में भी अर्थात् ध्यान एवं कीर्त्तन के मध्य में भी श्रमसाध्य ध्यान से भी अनायास साध्य कीर्त्तन से समस्त बन्धन से मुक्त होकर परम पद लाभ होता है। कारण, कीर्तन की ही उस प्रकार विशेष महिमा है । इस प्रकार भा० २२३३ में उक्त है
" न ह्यतोऽन्यः शिवः पन्था विशतः संसृताविह।
वासुदेवे भगवति भक्ति योगो यतो भवेत् ॥”
टीका- सन्ति संसरतः पुंसो बहवो मोक्षमार्गास्तपोयोगादयः समीचीन स्त्वयमेवेत्याह- नहीति । यतोऽनुष्ठितः त् भक्तियोगो भवेत्, अतोऽन्यः शिवः सुख रूपो निर्विघ्नश्च नःस्त्येव । (३३)
हे महाराज ! इस से श्रेष्ठ अपर कोई भी मङ्गल मय पन्था है ही नहीं । उक्त श्लोक से आरम्भ कर भा० १२।३ । १ श्लोक पर्य्यन्त- विविध अङ्ग युक्त शुद्ध भक्ति का वर्णन करके श्रीपरीक्षित् कृत–“मुमुषु व्यक्ति
[[१२३]]
स्यात् (भा० २।८।२) “कृष्णे निवेश्य निःसङ्गं मनस्त्यक्ष्ये कलेवरम्” इति । तदेवं (भा० १२।५।१)
का कर्त्तव्य क्या है’। - इस प्रकार प्रश्न का उत्तर प्रदान श्रीशुकदेव किये थे । भा० २।३०१
“एवमेतन्निगदितं पृष्टवान् यद् भवान् मम ।
नृणां यत् त्रियमाणानां मनुष्येषु मनीषिणीम् ॥
टीका - इदानीमन्य देवता भजनस्यादि पुत्रापि भजनवदेव तुच्छ फलत्वेन हेयत्वं वक्त पूर्वोक्तमनु- वदति । एवमिति । ममेति-माम् । कदाचिद् दैवयोगेन मनुष्यत्वं प्राप्त षु जीवेषु ये मनीषिणस्तेषां तत्राषि ये म्रियमाणास्तेषां विशेषतः, एवम्, एतत् हरिकथा श्रवणादिकं निगदितं विहितमित्यर्थः । (१)
[[1]]
उस में भा० २।२।३७ में “साधुवृन्द के मुख से जो लोक श्रीकृष्ण लीला कथा श्रवण करते हैं " कह कर लीला कथा श्रवण में ही उपदेश का चरम पर्य्यवसान उन्होंने किया है ।
“पिवन्ति ये आत्मनः सतां कथामृतं श्रवण पुढेषु संभृतम् ।
पुनन्ति ते विषय विदूषिताशयं वृजन्ति तच्चरण सरोरुहान्तिकम् ॥”
टीका - श्रवणादि फलमभिनयेनाह– पिवन्तीति । सताम् आत्मनः आत्मत्वेन प्रकाशमानस्य । कथैव अमृतम् । विषयै विदूषितं मलिनीकृतमाशयं, पुनन्ति शोधयन्ति । तस्य चरण पद्मान्तिक – विष्णुपदं वूजन्ति ॥ ( ३७ )
“स्वन्तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि ।
न जातः प्रागभूतोऽद्य देहवत् त्वं न नङ्क्षयसि ॥ "
टीका-त्वं पुनः कृतार्थ एवेत्यनुस्मारयति त्वत्विति । पशुबुद्धिमविवेकम् । यस्मात् न नङ्क्ष्यसि । कुत इत्यत आह-न जात इति । यथा देहः प्रागभूत एवाद्य जातोनङ्क्ष्यति न चैवं त्वं पूर्वं नाभूर्न चाद्य जातोऽसि अतो न नङ्क्ष्यसि ।
“हे राजन् ! तुम मरोगे, इस प्रकार पशु बुद्धि त्याग करो।’ इस प्रकार श्रीशुक का कथन, परीक्षित् की भक्ति निष्ठापरीक्षा हेतु हुआ है । यह अति सुन्दर है । कारण, भक्ति में ही श्रीशुकोपदेश का तात्पर्य है । इस प्रकार व्याख्या न करने से श्रीपरीक्षित् कृत प्रश्न का उत्तर यथायथ रूप से नहीं होता है । कारण भा० २२८३ में उक्त है-
“कथयस्व महाभाग यथाहमखिलात्मनि ।
कृष्णे निवेश्य निःसङ्ग मनस्त्यक्ष्ये कलेवरम्
टीका - निःसङ्ग मनः, श्रीकृष्णे निवेश्येति-स्व प्रयत्नो दर्शितः ।
महाराज ने प्रश्न किया- “हे महाभाग ! आप यही कृपा करें, जैसे मैं अन्यवासना को छोड़कर निःसङ्ग मन को श्रीकृष्ण चरणों में निविष्ट करके देह त्याग कर सकूँ ।” जब भक्ति विषयक प्रश्न हुआ था, तब उत्तर भी तदनुरूप न होने से प्रश्न ही व्यर्थ होता । अतएव भा० १२।५।१ उपसंहार वाक्य के द्वारा सुष्ठु प्रतिपादन हुआ है कि-
“अत्रानुवर्ण्यतेऽभीक्ष्णं विश्वात्माभगवान् हरिः ।
यस्य प्रसादजो ब्रह्मा रुद्रः क्रोधसमुद्भवः ॥”
टीका - एतत् पुराणं श्रृण्वन्नभयं प्राप्नोतीत्यभिप्रेत्य पुराणार्थमनुस्मारयति, अत्रेति, अयं भावः । जगतः कर्त्ता ब्रह्मापि यस्य प्रसादजः । प्रसादोऽत्र रजो वृत्तिर्हर्षः । ततो जातत्वात्-परतन्त्रः । सर्व संहती रुद्रश्व यस्य क्रोध सम्भवो न तु स्वतन्त्रः । स विश्वस्यात्मा नियन्ता भगवान् अत्रानुवर्ण्यते । अत एवम्भूतं भागवतं शृण्वतः कुतोऽन्यस्माद् भयशङ्केति ॥
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“अत्रानुवर्ण्यतेऽभीक्ष्णम्” इत्याद्यनुसारेणापि साध्वेव स्थापितम् “संसार सिन्धुमतिदुस्तरम्” इत्यादि ॥ श्रीशुकः ॥