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पृथक् पृथग् ज्ञानादिफलेऽपि साध्ये नास्तीत्याह (भा० ११।२०।३२-३३) -
श्रेयः - श्रेयः साधनम् ॥३१॥
S
हे उद्धव ! अतएव मुझ में भक्ति युक्त, मद्गत चित्त, योगिवृन्द के पक्ष में ज्ञान एवं वैराग्य प्रायशः हो मङ्गल साधक नहीं होते हैं। इस विषय में कुछ भी संशय नहीं है ।
पूर्व वर्णित व्यवस्था के अनुसार त्रिविध अधिकारी का वर्णन हुआ है । अर्थात् जो व्यक्ति ऐहिक पार लौकिक विषय प्रतिष्ठा सुख समूह में विरक्तचित्त है, अतः ऐहिक पारलौकिक सुख प्राप्ति के साधन स्वरूप लौकिक वैदिक कर्मानुष्ठान का परित्याग भी उसने किया है, किन्तु भक्ति प्राप्त करने का अभिलाषी है, वह ही ज्ञान योग का अधिकारी है, द्वितीय जो व्यक्ति ऐहिक पारलौकिक सुख भोग में लालसान्दित है, एवं उक्त सुख प्राप्ति के निमित्त साधन समूह के अनुष्ठान में आग्रहान्वित है, वह ही काम्य कर्म साधन का अधिकारी है । तृतीय। जो व्यक्ति, महत्सङ्ग एवं महत् कृपा जनित सौभाग्य से श्रीभगवत् कथा श्रवण कीर्तनादि में श्रद्धायुक्त है, अथच विषय में अत्यन्त आसक्त भी नहीं है, विरक्त भी नहीं है, वह ही भक्ति योग का अधिकारी है । इस प्रकार ज्ञान, कर्म, भक्ति रूप साधन त्रय के त्रिविध अधिकारी की कथा कही गई है । उक्त साधन त्रय के मध्य में भक्ति योग ही अन्य निरपेक्ष है, कर्म एवं ज्ञान योग-भक्तिसापेक्ष है । अतएव कर्म, ज्ञान एवं भक्ति योग के मध्य में भक्तियोग ही श्रेष्ठ है । इस प्रकार " तस्मात् मत्भक्तियुक्तस्य" प्रभृति श्लोक त्रय के द्वारा प्रसङ्ग का उपसंहार करते हैं । श्लोकस्थ “मदात्मनः” पद का अर्थ है मुझ जिन के आत्मा अर्थात् चित्त है, उक्त भक्ति युक्त योगि पुरुष के पक्ष में ज्ञान एवं वैराग्य प्रायशः श्रेयः साधन अर्थात् मङ्गल के प्रति हेतु नहीं होते हैं । यहाँ तक टीका की व्याख्या है। श्लोक में " प्रायशः " पद प्रदान का अभिप्राय यह है- जो लोक, निष्काम भाव से विशुद्ध भजन करते हैं, उन के पक्ष में ज्ञान एवं वैराग्याभ्यास करने का प्रयोजन नहीं है । उस में भी कतिपय साधकों की इच्छा सद्योमुक्ति मार्ग का एवं क्रममुक्ति मार्ग में होती है । उस प्रकार गी० १८।५४ में उक्त है ।
“ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्त लभते पराम् ॥”
में
इस श्लोक के अनुसार प्रतीत होता है कि ब्रह्म स्वरूपानुभूति प्राप्त करने के पश्चात् श्रीभगवान् में पराभक्ति होती है । यहाँपर समझना होगा कि यह सद्योमुक्ति मार्ग नहीं है, किन्तु क्रम मुक्ति मार्ग है, क्रम मुक्ति मार्ग में ही इस प्रकार प्रसङ्ग होता है । इस प्रकार क्रम भक्ति मार्ग में यदि किसी की प्रवृत्ति होती है, तो उस साधक के पक्ष में कथञ्चित् ज्ञान वैराग्य की अपेक्षा रह सकती है। ऐसा होने पर निखिल फल समूह के राजास्वरूप श्रीभगवत् प्रेमलाभ में ही विशुद्ध भक्ति का तात्पर्य है । इस प्रकार विशुद्ध भक्ति साधन में ज्ञान वैराग्य की किसी पकार अपेक्षा है ही नहीं ॥८३॥
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ज्ञानादि साधन में जो फल निर्दिष्ट है, उक्त प्राप्ति हेतु ज्ञानादि पृथक् साधन करना भी निष्प्रयोजनीय है, कारण, विशुद्ध भक्ति साधन के द्वारा ही उक्त साधन समूह का मुख्य फल लाभ अनायास
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(८४) " यत् कर्म्मभिर्यतपसा ज्ञानवैराग्यतश्च यत् । योगेन दानधर्मेण श्रयोभिरितरैरपि ॥ १३५॥
सर्वं मद्भक्तियोगेन मद्भक्तो लभतेऽञ्जसा । स्वर्गापवर्ग मद्धाम कथञ्चिद्यदि वाञ्छति ॥ १३६॥
इतरस्तीर्थयात्रावृतादिभिरपि यद्भाव्यम्, तत् सर्वं मद्भक्तियोगेन मद्भक्तो लभते । तत्राप्यञ्जसा अनायासेनैव । किं तत् सर्वम् ? तदाह-स्वर्गापवर्गमिति । स्वर्गः प्रापञ्चिकसुखं सत्त्वशुद्धयादिक्रमेणापवर्गो मोक्षसुखञ्च । तदतिक्रमिसुखञ्च भवतीत्याह–मद्धाम कुष्ठञ्चेति से ही होता है। उस का वर्णन भा० ११।२०१३२-३३ में करते हैं।
(८४) “यत् कर्मभिर्यत्तपसा ज्ञान वैराग्यतश्च यत् ।
योगेन दानधर्मेण श्रेयोभिरित रैरपि ॥ १३५॥
सर्व
सर्वं मद्भक्तिय गेन मद्भक्तो लभतेऽञ्जसा ।
की स्वर्गापवर्ग मद्धाम कथञ्चिद्यदि वाञ्छति ॥ १३६॥
टीका-तत्र हेतुः, यत् कर्मभिरित्यादि । इतरैरपि तीर्थ यात्रावृतादिभिः श्रेयः स धनंर्यद्द्भाव्यं सत्त्व शुद्धयादि तत् सर्वमञ्जसा अनायासेनैव स्वर्गमपवर्गं मद्धाम वैकुण्ठंलभत एव । वाञ्छातु नास्तीत्युक्तं, - यदि वाञ्छनीति ॥३२।३३।
हे उद्धव ! असंख्य काम्य कर्मानुष्ठान के द्वारा जो फल लाभ होता है, चित्त की एकाग्रता, ज्ञान साधन, दानधर्म एवं अन्यान्य श्रेय. साधन से जी फल लाभ होता है । मदीय भक्त, भक्तियोग के प्रभाव से उक्त साधन समूह के फल समूह को अनायास प्राप्तकर सकते हैं, तदतिरिक्त, स्वर्ग, मोक्ष, एवं सुख मय बैकुण्ठ धाम की, इच्छा होने पर अनायास प्राप्तकर सकते हैं।
श्लोकस्थ “इतरैरपि” पद का अर्थ-तीर्थ यात्रा, व्रतादि अनुष्ठान के द्वारा जो फल लाभ होगा, मदीय भक्ति के प्रभाव से तत् समुदय फल को मद्भक्त प्राप्त कर सकते हैं। अथच उक्त फल लाभ अवलेश से ही होता है। उक्त साधनों के सर्व फल क्या है ? कहते हैं, “स्वर्गापवर्गं मद्धाम” अर्थात् स्वर्ग-प्रापचिक सुख । क्रमशः चित्त शुद्धि प्रभृति क्रम से मोक्षसुख लाभ भी हो सकता है । यहाँतक कि प्रापचिक सुख एवं मोक्ष सुख को तिरस्कार करता है इस प्रकार सुख लाभ भी होता है । अर्थात् “मद्धाम” वैकुण्ठ लोक में निवास जनित जो सुख है, उसको यदि चाहता है, तो भक्ति प्रभाव से मदीय भक्त अनायास उस सुख का अनुभव करने में सक्षम होंगे।
जिज्ञासा हो सकती है - कि–जो निष्काम भक्त है, उसकी इच्छा स्वर्ग, मोक्ष, वैकुण्ठ लोक के सुखास्वादन हेतु क्यों होगी ? उत्तर में कहते हैं, “कथञ्चित् यदि वाञ्छति” अर्थात् भक्ति के सहायक रूप में यदि भक्त की इच्छा होती है तो, उक्त वाञ्छात्रय के मध्य में श्रीचित्रकेतु प्रभृति के समान किसी भक्त की स्वर्गवाञ्छा होती है, श्रीचित्रकेतु महाराज की स्वर्गवाञ्छा भक्ति सहायक रूप में हुई थी। भा० ६।१७।२-३ में उसका उल्लेख है, – “स लक्षं वर्षाणामव्याहतबलेन्द्रियः, रेमे विद्याधर स्त्रीभि र्गापयन् हरि मीश्वरम् " । अर्थात् चित्रकेतु महाराज, अप्रतिहत बलक्रिया होकर लक्ष लक्ष वर्षपर्यन्त विद्याधर स्त्रीगण के द्वारा निज प्राण वल्लभ श्रीहरि का कीर्तन करवाकर विहार किये थे । यहाँपर उनकी स्वर्गीय सुखवा छा का उद्देश्य था, अति दीर्घकाल यावत् वार्द्धक्य रहित भाव से अवस्थित होकर सुकण्ठी विद्याधर रमणी वृन्द के सुकण्ठ से प्रिय श्रीहरि के गुण कीर्तन करवाना। मर जगत् में अवस्थित होने से गायक एवं श्रोता
श्रीभक्ति सन्दर्भः
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कथञ्चिद्भक्तुयपकरणत्वेनैव यदि वाञ्छति कश्चित्, तत्र श्रीचित्रकेत्वादिवत् स्वर्गवाच्छा, तस्य भक्तुयपकरणत्वञ्चोक्तम् (भा० ६।१७।२।३) – स लक्षं वर्षलक्षाणामव्याहत - बलेन्द्रियः " रेमे विद्याधरस्त्रीभिर्गापयत् हरिमीश्वरम्” इति । श्रीशुकादिवदपवर्गवाञ्छा, तत्प्रार्थनया श्रीकृष्णेन दूरीकृतायां मायायां मातृगर्भाद्वहिर्बभुवेति हि ब्रह्मवैवर्त्तीय-कथा । तत्र च भक्तुयष- करणत्वम् ( गी० १८।५४ ) - " ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा" इत्यादि-श्रीगीता-वचनात् । तथा प्राप्त- भगवत् पार्षदपद- तदीयवृन्दविशेषवद्व कुण्ठेच्छा । ते हि प्रेम्णा साक्षात् श्रीभगवच्चरणारविन्द- सेवेच्छयैव तत् प्रार्थ्यं प्राप्तवन्तः, (भा० ३।१४ २५) “यच्च व्रजन्त्यनिमिषामृषभ नुवृत्त्या” इत्यादिवत् ॥ श्रीभगवान् ॥
में वार्द्धक्य आने की सम्भावना रहती है । जिस से उक्त अनुष्ठान में बाधा उपस्थित होतो ।
कोई कोई भक्त निष्काम होकर भी श्रीशुकदेवादि के समान अपवर्ग की वाञ्छा करते हैं। ब्रह्म- वैवर्त पुराण में लिखित है, श्रीशुकदेव, श्रीकृष्ण के निकट मायानिवृत्ति हेतु प्रार्थना करने पर श्रीकृष्ण भी मायापसारित किये थे । उस से श्रीशुकदेव भूमिष्ठ हुए थे । इस प्रार्थना के अभ्यन्तर में पराभक्ति का सहकारित्व है। कारण, “ब्रह्मभूत प्रसन्नात्मा” श्रीभगवद् गीता के वचनानुसार लय विक्षेपादि शून्य पराभक्ति का सहकारित्व का संवाद सुस्पष्ट है । कोई कोई भक्त निष्काम होकर भी पार्षद वृन्द के समान वकुण्ठ लोक प्राप्ति की वाञ्छा करते हैं ।
यहाँ पर ‘पार्षद वृन्द’ शब्द के पश्चात् ‘विशेष’ शब्द का प्रयोग है । उस का अभिप्राय यह है, - स लं क्य, सामीप्य, स्वारूप्य, एवं साष्टि रूप चतुविध मुक्ति का अधिकारी भवत ही है । ज्ञानी अथवा योगी उक्त मुक्ति चतुष्टय के अधिकारो नहीं हो सकते हैं । सुखैश्वर्य्योत्तरा एवं प्रेमसेवोत्तरा भेद से उक्त मुक्ति चतुष्टय, द्विबिध होते हैं, जिस मुक्ति में सुख ऐश्वर्य्य भोग की लालसा रहती है, उसे सुखैश्वर्य्योत्तरा कहते हैं, ए जिस में प्रीति पूर्वक साक्षात् श्रीभगवान् के चरणारविन्द की सेवा प्राप्ति की इच्छा रहती है-उसे प्रेमसेवोत्तरामुक्ति कहते हैं । उक्त प्रेमसेवोत्तरा मुक्ति प्राप्ति के निमित्त निष्काम भक्त की लालसा होती है । उक्त निष्काम भक्त वृन्द, प्रीति पूर्वक श्रीभगवान् की साक्षात् सेवा प्राप्ति के निमित्त निज प्रार्थनीय श्रीवैकुण्ठ लोक लाभ करते हैं । जिस वैकुण्ठ लोक का परिचय, देवगण के निकट श्रीब्रह्माने प्रदान किया है । ( भा० ३।१५।२५ )
फ
“यच्च व्रजन्त्यनिमिषाभृषभानुवृत्त्या दूरे यमाह्य परि नः स्पृहणीय शिलाः ।
भर्त्ता मिथः सुयशसः कथनानुरागः वैक्लव्य वाष्प कलया पुलकीकृताङ्गाः ॥”
टीका - पुनः कथम्भूतम् ? यच्च नः उपरिस्थितं व्रजन्ति । अनिमिषां देवानाम्, ऋषभः श्रेष्ठो हरिः, तस्यानुवृत्त्या, दूरे यमो येषां यद्वा दूरीकृतयमनियमाः । दूरेऽहमाइति पाटे दूरीकृताहङ्कारा इत्यर्थः स्पृहणीयं करुणादि शीलं येषाम् । किञ्च भर्तु र्हरेर्यन् सुप्रशस्तस्य मिथकथने योऽनुरागस्तेन वैक्लव्यं वैवश्यं, तेन वाष्पकला, तथा सह पुलकीकृतमङ्गः येषाम् । यद्वा नः उपरोति वृजतां विशेषणं, निरहङ्कारत्वात् अस्मत्तोऽपि ये अधिकास्ते यद् व्रजन्तीत्यर्थः ॥
वैकुण्ठ लोक को निखिल देवाराध्य श्रीभगवान् के अनुकूल वृत्ति अवलम्बन कारी मृत्युक्षय रहित भक्त वृन्द ही प्राप्त करते हैं, जिन भक्त वृन्द के चरित्र लाभ करने के निमित्त मुनिवृन्द के हृदय में लालसा उत्पन्न होती है । कारण, वे सब श्रीभगवान् के समान परमैश्वर्य्यं मण्डित होने पर भी परस्पर निज प्रिय
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