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अग्रे च कर्म-ज्ञान-भक्तिलक्षणान् योगात् तत्तदधिकारितायां पृथक् हेतु श्चोत्वा ज्ञान-कर्मानादरेण भक्तेरेवाभिधेयत्वमाह पश्चभिः । तत्र ज्ञानाभ्यासानादरं वक्तुं तदधिकारहेतु- चैराग्याभ्यासानादरं विधत्त े (भा० १११२०/२) -
(८१) “प्रोकेन भक्तियोगेन भजतो माऽसकृन्मुने, ।
(८०) " यथा यथात्मा परिमृज्यतेऽसौ मत्पुण्यगाथाश्रवणाभिधानः ।
तथा तथा पश्यति वस्तु सूक्ष्मं चक्षुर्यथैवाञ्जन-संप्रयुक्तम् ॥ " १३१॥
ननु ब्रह्मविदाप्नोति परम् । तमेव विदित्वातिमृत्युमेहीत्यादि श्रुतिभ्यो ज्ञानदेव अविद्या निवृत्त्यात्वत् प्राप्तिरवगम्यते कुतो भक्तियोगेनेत्युच्यते तत्राह यथा यथेति । आत्मा चित्तं परिमृज्यते शोध्यते मत्पुष्य- कथानां श्रवणैरभिधानंश्च, भक्तेरेव अवान्तर व्यापारो ज्ञानं न पृथगित्यर्थः ॥
हे उद्धव ! मेरे जगत् पवित्र कारी नाम, रूप, गुण, लीला, के श्रवण कीर्तन, के द्वारा उस प्रकार चित्त शुद्ध होता है । जिस प्रकार दिव्याञ्जन युक्त नयन सूक्ष्मवस्तु दर्शन करने में सक्षम होता है । श्रवण कीर्त्तनात्मिका भक्तयनुष्ठान के द्वारा चित्त में उस प्रकार सूक्ष वस्तु दर्शन की सामर्थ्य आती है । यहाँपर प्रश्न यह हो सकता है कि- श्रुति में कथित है, “जो मानव, ब्रह्म स्वरूप वा अनुभव कर सकता है, वह ही परतत्त्व को प्राप्त कर सकता है, एवं उक्त परमात्म स्वरूप का अनुभव करके मृत्युग्रस्त संसार को अतिक्रम करने में सक्षम होता है।” यह सब प्रमाण से प्रमाणित होता है कि ज्ञान के द्वारा ही अविद्या निवृत्ति होती है, एवं परतत्त्व वस्तु को प्राप्ति होती है । अतएव भक्तियोग के द्वारा माया निवृत्ति होती इस प्रकार कथन का औचित्य क्या ?
है,
उत्तर में श्रीकृष्ण उद्धव को कहते हैं, – ‘यथा यथा इति’ आत्मा ‘चित्त’ मेरे पवित्र चरित्र समूह के श्रवण कीर्तन द्वारा जिस प्रकार परिमार्जित अर्थात् शोधित होता है, उस प्रकार दिव्य अञ्जनयुक्त नेत्र के समान वह सूक्ष्म वस्तु दर्शन कर सकता है । अत एव पाक कार्य के निमित्त चुल्ली में अनल प्रज्वालित होकर जिस प्रकार अन्धकारादि को विनष्ट करता है, किन्तु अन्धकार दि विनष्ट करना अग्नि प्रज्वलन का मुख्य उद्देश्य नहीं है, किन्तु वह कार्य्य आनुषङ्गिक रूप से हो जाता है, उस प्रकार भक्ति अनुष्ठान करने का श्री कृष्णचरणों में प्रेमलाभ ही मुख्य उद्देश्य है, परतत्त्वादि अनुभवात्मक ज्ञान का उदय, अवान्तर रूप से हो जाता है । तज्जन्य पृथक् रूप से ज्ञान साधनानुष्ठान की आवश्यकता है ही नहीं । श्रीभगवान् उद्धव कहे थे ॥८०॥
को
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भा० ११।२० में कर्म ज्ञान एवं भक्तियोग का उल्लेख करके एवं साधनत्रय के अधिकारी होने के निमित्त पृथक् पृथक् हेतु का विन्यास किया है। एवं ज्ञान कर्म के प्रति आदर परित्याग पूर्वक भक्तियोग की अवश्य कर्त्तव्यता का प्रतिपादन पाँच श्लोकों के द्वारा किये हैं।
अवश्य कर्त्तव्य भक्ति अनुष्ठान में ज्ञानयोगानुशीलन के प्रति अनादर प्रकट हेतु, ज्ञान साधनानुष्ठान के अधिकार के हेतुरूप वैराग्य अभ्यास के प्रति भी अनादर विधान करते हुये कहते हैं । भा० ११ २०२६
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मा माम् ॥
कामा हृदया नश्यन्ति सर्वे मयि हृदि स्थिते ॥ १३२ ॥
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ज्ञानाभ्यासानादरं विधत्ते (भा० ११/२०१३०) -
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क्षीयन्ते चास्य कर्माणि मयि दृष्टेऽखिलात्मनि ॥ १३३॥
(८२) “भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
भक्तंचव दृष्टे साक्षात्कृते ॥