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भक्ति भिन्न अपर साधन समूह के द्वारा चित्त शुद्ध नहीं हो सकता है–उसका वर्णन भा० ११।१४।२२ में करते हैं-

(७६) “धर्म्मः सत्य-दयोपेतो विद्या वा तपसान्विता ।

मद्भक्तचापेतमात्मानं न सम्यक् प्रपुनाति हि ॥ १३० ॥

टीका–भक्तयभावे अन्यत् साधनं व्यर्थ मित्याह–धर्म इति द्वाभ्याम् ॥

उद्धव ! भक्ति हीन चित्त को सत्य दया युक्त धर्म एवं चित्त एकाग्रता युक्त शास्त्रीय ज्ञान, सम्यक् रूप से चित्त शोधन करने में अक्षम है । यहाँ धर्म शब्द से निष्काम धर्म को जानना होगा, विद्या शब्द से शास्त्रीय ब्रह्म ज्ञान, तपः शब्द से ब्रह्म प्रति पादक शास्त्रानुशीलन, अथवा ब्रह्म स्वरूपानुसन्धान से चित्तैकाग्ररूप अर्थ को जानना होगा ॥७६॥

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