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तदेवं सति तस्यामेवानेकविध श्र योवदने हेतुमाह (भा० ११।१४।६)

(७७) “मन्मायामोहितधियः पुरुषाः पुरुषर्षभ ।

श्रयो वदन्त्यनेकान्तं यथाकर्म यथारुचि ॥ १२८ ॥

(३)

तत्प्रकृतीनां मायागुणमूलत्वात् मन्मायामोहितधियः, अनेकान्तं नानाविधं श्रेयः पुरुषार्थं टीका- तत्र भक्तिरेव महाफलत्वेन मुख्या अन्यानि तु स्वस्व प्रकृत्यनुसारेण पुष्पस्थानीय स्वर्गादि फल बुद्धिभिः प्राणिभिः प्राधान्येन परिकल्पितानि क्षुल्लक फलानीति विवेक्तुं प्रकृत्यनुसारेण बहुधा वेदार्थ प्रतिपत्तिमाह कालेनेति, सप्तभिः, मदात्मकः, मय्येवात्मा चित्तं येन सः ॥ ( ३ )

हे उद्धव ! प्रलय के समय भक्ति उपदेश ग्रहण करने के निमित्त, मानव न रहने से यह वेद वाणी लुप्त हो गई थी। कारण, उस समय जगद् गत साधक भक्तवृन्द, अनुबुद्ध संस्काराक्रान्त होकर प्रकृति में लीन होकर रहते हैं । वह प्रकृति, भगवान् में लीन होती है, अतएव जो सब भक्ति साधन करेंगे, उनके इन्द्रिय समूह सुस्पष्ट रूप में न होने से ही प्रापचिक जगत् में भक्ति साधन का अभाव स्पष्टतः ही रहा । इस अभिप्राय से ही कहते हैं, - वेद जो भक्ति का संवाद प्रदान करते हैं, वह भक्ति, प्रलय काल में विनष्ट हो गई थी। किन्तु उस समय भी अपर ब्रह्माण्ड में एवं श्रीवैकुण्ठ में समस्त साधन सिद्ध भक्त वृन्द, एवं प्राप्त पार्षद देह तथा नित्यसिद्ध पार्षदवृन्द, श्रीभगवान् में भक्ति करते थे । तृतीयस्कन्ध में श्रीविदुर, मैत्रेय को प्रश्न किया थे- ‘तवेमं क उपासीरण क उ खिदनुशेरते’ हे प्रभो ! महाप्रलय के समय श्रीभगवान् जब शयन करते हैं, उस समय कितने संख्यक् जीव, श्रीभगवान् की सेवा करते हैं, एवं कितने संख्यक मानव, उक्त प्रलय के समय अनुबुद्ध संस्कारापन्न होकर प्रकृति में निद्रित होकर रहते हैं ? अर्थात् जीव- नित्यमुक्त एवं नित्यबद्ध रूप में द्विविध हैं, उस के मध्य में नित्यमुक्त जीव, अनादि काल से श्रीकृष्ण सेवा अनुभव करते हैं, महाप्रलय के समय भी श्रीकृष्ण सेवा सुखानुभव का विराम नहीं है,

नित्य बद्ध जीव समूह, साधु सङ्ग एवं साधुकृपा से श्रीभगवान् में भक्ति करने के निमित्त उन्मुख होने पर यदि सिद्धि प्राप्त करने के पहले ही ब्रह्माण्ड ध्वंस हो जाता है तो वे सब उक्त भजन संस्कार के सहित भक्ति में लीन होकर रहते हैं । ब्रह्माण्ड का सृजन होने पर वे सब श्री भगवद् भजन में प्रवृत्त होते हैं । यह सब भक्तों की उपयुक्त इन्द्रियादि की अभिव्यक्त करने के निमित्त श्रीभगवान् में सृष्टि करने का सङ्कल्प उदित होता है । कारण, भक्त सम्बन्ध व्यतीत श्रीभगवान् की कार्य में प्रवृत्ति स्वतन्त्र रूप से नहीं होती है । श्लोक के शेषार्द्धका अर्थ यह है- हे उद्धव ! मैंने सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्मा को भक्ति का संवाद प्रदान किया था ॥७६॥

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इस प्रकार स्थिति होने पर भी सृष्टि में समय अनेक विध श्रेयो का कथन होता है, भा० ११।१४।६ में उसका कारण निर्देश करते हैं।

(७७) " मन्मायामोहितधियः पुरुषाः पुरुषर्षभ ।

श्रेयो वदन्त्यनेकान्तं यथाकर्म यथारुचि ॥ " १२८ ॥

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तत् साधनञ्च ॥