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अत्रोत्तरं श्रीभगवानुवाच (भा० ११।१४१३) -

(७६) “कालेन नष्टा प्रलये वाणीयं वेदसंज्ञिता ।

मयादौ ब्रह्मणे प्रोक्ता धर्मो यस्यां मदात्मकः ॥ १२७॥

टीका - एवं तावद् भगवता भक्तया मोक्ष इत्युक्तम्, अन्ये तु अन्यानि साधनानि वदन्ति । तत्र विशेष निर्धारणां पृच्छति । वदन्तीति, श्रेयांसि श्रेयसाधनानि । कि विकल्पेन प्राधान्यम् ? उताहो किंवा एकस्यैव मुख्यता । (१) एकमुख्यता पक्षोत्थाने कारणं भवतेति । न अपेक्षितमपेक्षा यस्मिन् सोऽहैतुकः । अयमर्थः, भवता यो भक्तियोत उक्तः, अन्ये च यानि श्रेयः साधनाति वदन्ति तेषां कि साक्षात् फल साधनत्वेन प्राधान्यमेव सर्वषां, उत अङ्गाङ्गित्वम् ? प्राधान्येऽपि किं विकल्पेन सर्वेषां तुल्य फलत्वं यद्वा क्वचिदस्ति विशेष इति । (२)

श्रीउद्धव कृत प्रश्न यह है, - हे कृष्ण ! ब्रह्मवादी ? अर्थात् जो लोक वेद का प्रामाण्य मानकर कहते हैं, वे सब मह त्मावृन्द परम मङ्गल प्राप्ति हेतु विविधसाधन का वर्णन करते हैं । उक्त साधन समूह के मध्य में एक साधन मुख्य है, अपर साधन समूह गौण हैं, अथवा समस्त साधन ही मुख्य हैं । हे स्वामिन् ! आपने तो निरपेक्ष भक्तियोग का वर्णन ही किया है। जिस भक्ति योग के प्रभाव से अन्यसाधन एव अन्य साध्य के प्रति आसक्ति रहित होकर एकमात्र आप में मानसिकगाढ़ आवेश होता है ।

उक्त श्लोक द्वय की स्वामिकृत व्याख्या यह है - “श्रेयांसि” विविध प्रकार मङ्गल प्र पक साधना । “विकल्पेन प्राधान्यं” अर्थात् यह भी हो सकता है. वह भी हो सकता है, इस रीति से प्रत्येक साधन का प्राधान्य है । “उता हो” किंवा ‘एकमुख्यता’ एक साधन मुख्य है, अपर साधन समूह गौण हैं, अर्थात् अङ्गाङ्गिभाव से - अङ्गी-प्रधान, अङ्ग–सहाय कारी रूप में हैं एक मुख्यता पक्ष को पुष्ट करने के निमित्त कहते हैं-

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“भवतोदाहृतः स्वामिन् भक्ति योगोऽनपेक्षितः " आपने कहा है कि-भक्ति योग - अनपेक्षित है, अर्थात् भक्ति योग में अपर की अपेक्षा नहीं है । इस प्रकार अहैतुक भक्ति योग का वर्णन आपने किया इस प्रकार कहने का अभिप्राय यह है कि आपने भक्ति योग का वर्णन किया है, अपर समस्त मुनिगण-नित्य मङ्गल प्राप्ति हेतु अपर साधन समूह को कहते हैं । उस के मध्य में नित्यमङ्गल लाभ हेतु प्रत्येक साधन स्वतन्त्र है, अथवा एक अङ्गी अर्थात् प्रधान है, अथवा अपर साधन समूह अङ्ग हैं, अर्थात् पारस्परिक अङ्गाङ्गिभाव से प्रत्येक का मङ्गल प्रदान में प्राधान्य है । अर्थात् उक्त साधन समूह के मध्य में कुछ विशेष है ॥७५। ।

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श्रीउद्धव कृत प्रश्न के उत्तर में श्रीभगवान् बोले थे- ( भा० ११।१४।३) (७६) “कालेन नष्टा प्रलये वाणीयं वेदसंज्ञिता ।

मयादौ ब्रह्मणे प्रोक्ता धर्मो यस्यां मदात्मकः ॥ " १२७॥

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श्रीभक्तिसन्दभः

टीका च - “तत्र भक्तिरेव महाफलत्वेन मुख्या, अन्यानि तु स्व-स्व-प्रकृत्यनुसारेण खपुष्पस्थानीय स्वर्गादि - फलबुद्धिभिः प्राणिभिः प्राधान्येन परिकल्पितानि खुल्लक फलानीति विवेकुं प्रकृत्यनुसारेण बहुधा वेदार्थ प्रतिपत्तिमाह– कालेनेति सप्तभिः । मदात्मको मय्येवात्मा चित्तं येन सः” इत्येषा, यद्वा, मदात्मको मत्स्वरूपभूतः, निर्गुणत्वेन प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् ।