१३४ ७५
अग्रे च भक्तियोगस्यैव प्राक् सिद्धता साक्षात् श्रीभगवत्प्रवत्तितता स्वयमेव मुख्यता, परेषान्त्वर्वाचीनता यथारुचि नानाजनप्रवत्तितता तुच्छता चेति, यथा श्रीउद्धव उवाच
( भा० ११११४११-२ ) -
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" वदन्ति कृष्ण श्रेयांसि बहूनि ब्रह्मवादिनः ; तेषां विकल्प प्राधान्यमुताहो एकमुख्यता ॥ १२५॥ भवतोदाहृतः स्वामिन् भक्तियोगोऽनपेक्षितः । निरस्य सर्वतः सङ्ग येन त्वय्याविशेन्मनः ॥" १२६॥
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हे उद्धव ! एकमात्र सत्सङ्ग से ही विशुद्ध भक्ति अनुष्ठान में रुचि होती है । एवं रुचि लक्षणा भक्ति के द्वारा मेरी उपासना करने के निमित्त निष्ठा होती है ।
उक्त श्लोक में “सत्सङ्गलब्धया भक्तचा " पद का उल्लेख है, उसका अर्थ यह है- सत्सङ्ग से जो भजनानुष्ठान करने की रुचि मिलती है, उस रुचि के द्वारा वह भक्त मेरी उपासना करता रहता है । उस भक्त का, मेरा निर्विशेष ब्रह्म स्वरूप का एवं भगवत्तत्त्व का तथा स्वरूप तत्त्व का सर्व प्रकार अनुभव अनायास से ही होता है। उसका विवरण उक्त श्लोक के द्वितीय अंश के द्वारा कहते हैं-
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(७४) “स वै मे दर्शितं सद्भिरञ्जसा विन्दते पदम् ॥
वह भक्त, साधुगण कर्त्तृक प्रदर्शित मेरा स्वरूप का निश्चितरूप से अनायास अनुभव करता है । अर्थात् भक्ति के आनुषङ्गिक रूप से अनुभव कर सकता है। “पद” शब्द का अर्थ- स्वरूप है । श्रीभगवान् श्रीउद्धव को कहे थे ॥७३-७४॥
जगत्
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अग्रिम ग्रन्थ भा० ११।१४ में श्रीकृष्ण, श्रीउद्धव को समस्त साधन के पहले श्रीभक्तियोग की सत्ता को कहेंगे । अर्थात् सृष्टि के प्रारम्भ में ही श्रीभगवान् श्रीब्रह्मा को “एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्व जिज्ञासुनात्मनः ।” श्लोक में भक्ति योग का ही उपदेश प्रदान किये थे । अतएव कर्मादि साधन का संवाद में प्रचारित होने के पहले ही भक्तियोग का संवाद प्रचारित हुआ था । काल क्रमसे भक्ति योग कर्म साधन के द्वारा आवृत हो जाने से पुनर्वार भगवान् श्रीकृष्ण ने उसका प्रवर्त्तन जगत् में किया । दूसरी बात यह है कि वह भक्ति योग, ज्ञान कर्म प्रभृति निरपेक्ष होने से स्वयं ही मुख्य है, अन्य समस्त साधन ही भक्ति योग के मुखापेक्षी है । भक्ति योग व्यतीत अन्य समस्त साधन ही आधुनिक है, एवं निज निज रुचि के अनुसार यक्ष, रक्षः, एवं विभिन्न वासना क्रान्त मुनिगण के द्वारा प्रवर्तित हैं । एवं उक्त साधन समूह का फल भी अतितुच्छ है । यह सब कहकर भक्ति की ही अवश्य कर्त्तव्यता का वर्णन भा० ११ १४।१–२॥ में करेंगे ।
(७५) " वदन्ति कृष्ण श्रेयांसि बहूनि ब्रह्मवादिनः ।
तेषां विकल्प प्राधान्यमुताहो एकमुख्यता ॥ १२५ ॥ भवतोदाहृतः स्वामिन् भक्तियोगोऽनपेक्षितः । निरस्य सर्वतः सङ्गः येन त्वय्याविशेश्मनः ॥ १२६ ॥
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टीका च - “श्रयांसि श्रयःसाधनानि । किं विकल्पेन प्राधान्यम, उताहो किंवा एकस्यैव मुख्यता ? एकमुख्यता-पक्षोत्थापने कारणम्-भवतेति । नापेक्षितमपेक्षा यस्मिन् सोऽहैतुकः । अयमर्थः - भवता यो भक्तियोग उक्तः, अन्ये च यानि निःश्रेयसः- साधनानि वदन्ति तेषां कि फलसाधनत्वेन प्राधान्यमेव सर्वेषाम्, उत अङ्गाङ्गित्वम् ? प्राधान्येऽपि किं विकल्पेन सर्वेषां तुल्यफलत्वम् ? यद्वा, कश्चिद्विशेषः ? इत्येषा ॥