१३२ ७२
ततश्च (भा० ११।११।२३-२४)
(७२) “श्रद्धालुर्मत्कथाः शृण्वन् सुभद्रा लोकपावनीः ।
गायन्ननुस्मरन् जन्म कर्म चाभिनयत् मुहुः ॥ १२३॥ मदर्थे धर्मकामार्थानाचरन् मदपाश्रयः ।
लभते निश्चलां भक्त मय्युद्धव सनातने ॥ " १२४ ॥
टोका च – “मदर्पणेन कर्मभिविशुद्धसत्त्वस्यान्तरङ्गां भक्तमाह-श्रद्धालुरिति” इत्येषा । अभिनयत् जन्मकर्मलीलयोर्मध्ये येऽशा निजाभीष्ट-भावभक्तगतास्तान् स्वयमनुकुर्वन् भगवद्-
तेषामसौ क्लेशल एव शिष्यते नान्यद् यथा स्थूलतुषावधातिनाम् ॥"
ब्रह्माकृत स्तुति में उक्त है, जो मानव, निखिल मङ्गल जननी तुम्हारी भक्ति का अनादर करके केवल ज्ञान का आदर करता है, उस को केबल क्लेश ही मिलता है । इस के अनुसार ज्ञान मार्ग के द्वारा निर्विशेष ब्रह्म में मनो धारण करना असम्भव होगा । तज्जन्य स्वभावसिद्ध ज्ञानादि गुण गण सेवित भक्ति मार्ग का आश्रय ग्रहण करो, इस अभिप्राय से ही कहते हैं-’ मयि सर्वाणि कर्माणि” अर्थात् मद्विषयक सर्वकर्मानुष्ठान करो। इस प्रकार अर्थ सङ्गति करनी होगी । अथवा “यद्यनीशो धारयितु" श्लोक में “निरपेक्षः समाचर” पदद्वय का प्रयोग है, तत्तत्य समाचर" क्रियापद का अर्थ–अर्पण करना, निरपेक्ष पद का अर्थ है–कामनान्तर रहित होना । अर्थात् मेरे ही सन्तोषार्थ निखिल कर्म का अर्पण मुझ को करो ॥७१॥
१३३ ७१
अनन्तर भा० ११।११।२३-२४ में कहते हैं -
(७२) “श्रद्धालु मंत् कथाः शृण्वन् सुभद्रा लोकपावनीः ।
गायन्ननुस्मरन् जन्म कर्म चाभिनयन् मुहुः ॥ १२३॥
मदर्थे धर्मकामार्थानाचरन् मदपाश्रयः ।
लभते निश्चलां भक्त मय्युद्धव सनातने ॥” १२४ । ।
टीका -मदर्पणेन कर्मणा विशुद्धसत्त्वस्यान्तरङ्गां भक्तिमाह श्रद्धालुरिति द्वाभ्याम् । अभिनयन्- स्वय- मनुकुर्वन् ।२३। आचरन् - सेवमानः । २४॥
हे उद्धव ! उस प्रकार अनुष्ठान करते करते ऐहिक पारलौकिक सुख भोग में वितृष्णा होती है, अनन्तर सुदृढ़ विश्वासयुक्त हृदय से जगत् पवित्र कारिणी सर्व प्रकार मङ्गलदायिनी मेरा चरित्र श्रवण, गान, एवं निरन्तर स्मरण तथा जन्म कर्म समूह का बारम्बार अभिनय करते करते एवं मदीय सुखार्थ धर्म विषय भोग एवं अर्थोपार्जन करतः एक मात्र मुझ को दृढ़ रूप में अवलम्बन करने से, नित्य आनन्द स्वरूप मुझ में निश्चला भक्ति होती है ।
[[१०४]]
श्रीभक्ति सन्दर्भः गतान् भक्तान्तरगतांश्च तानन्यद्वारानुकुर्वन्नित्यर्थः । किश्व, यो धर्मो गोदानादि-लक्षणस्तमपि मदर्थे मदीयजन्मादिमहोत्सवाङ्गत्वेनैव यश्च कामो महाप्रासादवासादि लक्षणस्तमपि मदर्थे मदीय सेवाद्यर्थ मन्मन्दिर - वासादिलक्षणत्वेनैव, यश्चार्थो धनसंग्रहस्तमपि मदर्थे मत्सेवामात्रोप– योगित्वेनैवाचरन् सेवमानः, मदपाश्रय आश्रयान्त र शून्यचेताश्च सन् तामेव कथा श्रवणादि- लक्षणां भक्ति मयि निश्चलां सर्वदाव्यभिचारिणों लभते, तत्-सुखेन कैवत्यादावप्यनादरात् । न च भजनीयस्य चलतया वा सा चलिष्यतीति मन्तव्यमित्याह - सनातन इति ॥
७३-७४ । नन्वेवम्भूत-भक्तिमार्गे प्रवृत्तिनिष्ठा वा कथं स्यादित्याशङ्कय तत्र हेतुमाह ( भा० ११।११।२५) -
(co)
(७३) “सत्सङ्गलब्धया भक्तया मयि मांस उपासिता” इति ।
भक्तया भक्तिरुच्या स भक्तो मामुपासिता भजमानो भवति । तस्य च भक्तस्य मदीयं ब्रह्माकारं भगवदाकारञ्च सर्वमपि स्वरूपविज्ञानमनायासेनैव भवतीत्याह-
विविध निष्काम कर्मानुष्ठान के द्वारा विशुद्ध चित्त साधक के सम्बन्ध में “श्रद्धालुः” इत्यादि श्लोक में अन्तरङ्गा भक्ति का वर्णन किया गया है। श्लोकस्थ ‘अभिनयन’ पद की व्याख्या करते हैं । श्रीभगवान् की जन्म, कर्म लोला के मध्य में जो अंश निज अभीष्ट भ व विशिष्ट भक्तगत है, उस अंश का अभिनय स्वयं करे । एवं जो अंश भगवत् गत है, उस अंश का अभिनय अपर के द्वारा कराना चाहिये । लीलाभिनय का अर्थ इस प्रकार ही जानना होगा । और भी कहते हैं, गो दानादि स्वरूप जो धर्म, उसका अनुष्ठ न भी मदीय जन्मोत्सव के अङ्ग रूप में करना चाहिये । श्लोकस्थ - काम शब्द से महा अट्टालिका में निवास स्वरूप विषय भोग भी मेरी सेवा के निमित्त मेरा मन्दिर में निवास रूप से ही जानना होगा । श्लोक में धन संग्रह की जो कथा कही गई है, - उसका व्यव्हार भी मदीय सेवामात्र उपयोगि रूप में ही करना चाहिये । अर्थात् जितने परिमाण में धन संग्रह करने पर मदीय सेवा परिपाटो की रक्षा सुन्दर रूप होती है, उस प्रकार अर्थ संग्रह करे । निज इन्द्रिय चरितार्थ करने की लालसा से अत्यधिक धन संग्रह का प्रयास न करे । एवं अर्थ सञ्चय बुद्धि का पोषण भी न करे । श्लोक में उक्त “मदपाश्रय’ पद की व्याख्या करते हैं। मुझ को छोड़ कर अपर किसी भी देव अथवा देवी का आश्रय ग्रहण न करे ।
मेरी चरितकथा श्रवण करते करते जिस भक्ति लाभ होती है, उस के आस्वादन सुख से मुक्ति प्रभृति में अनादर बुद्धि स्वतः ही होती है, एवं मेरे प्रति निश्चला अर्थात् अव्यभिचारिणी भक्ति होती है । यहाँ संशय हो सकता कि - श्रीभगवान् चञ्चल है, अतएव मन्दिर प्रभृति नश्वर हैं, चिरस्थायी नहीं हैं, इस प्रकार कूट तर्क निरास निबन्धन कहते हैं। मैं ‘सनातन’ हूँ, अर्थात् कालत्रय मैं एक रूप में ही विद्यमान् रहता हूँ । अतएव मेरी अस्थिरता नहीं है, एवं मत् कर्त्ती के प्रदत्त वैभवादि की भी अस्थिरता नहीं है ॥७२ ७३-७४ । उस प्रकार भक्ति मार्ग में प्रवृत्ति एवं निष्ठा किस प्रकार से हो सकती है ? इस प्रकार संशय अपनोदन करने के निमित्त भा० ११।११।२५ में कहते हैं-
(७३) “सत्सङ्ग लब्धय भक्तया मयि मां स उपासिता ।
स वै मे दर्शितं सद्भिरञ्जसा विन्दते पदम् ॥
टीका - “ततश्च अनेन प्रकारेण मयि सत्सङ्गेन लब्धया भक्तया स भक्तो मामू उपासिता - ध्याता भवति । स च ध्यानशीलः सद्भिर्दशितं वैनिश्चितं सुखेनैव मे पदं स्वरूपं प्राप्नोति ।’
(७४) “स वे मे दर्शितं सद्भिरञ्जसा विन्दते पदम्” इति । अञ्जसा भक्त्यनुषङ्गेणैव, पदं स्वरूपम् ॥ श्रीभगवान् ॥
[[१०५]]