७१

१३० ७१

तदेवं ज्ञानमिश्रां भक्तिमुपदिश्य तदनादरेणानुषङ्ग सिद्धज्ञानगुणां शुद्धामेव भक्ति- मुपदिशति चतुभिः (भा० १११११।२२) -

(७१) “यद्यनीशो धारयितुं मनो ब्रह्मणि निश्चलम् ।

मयि सर्वाणि कर्माणि निरपेक्षः समाचर ॥ १२२ ॥

" यदीति निश्चये" - टीकायां (भा० ११।४।१०) “धत्ते पदं त्वमविता यदि विघ्नमूनि " इतिवत् अन खलु ज्ञानेच्छुरेव प्रकृतः । श्रीमबुद्धवं प्रति तादृशत्वमारोप्येवेदमुच्यते । ततश्च (भा० १०।१४१४) “श्रयः सृतिं भक्तिमुदस्य ते विभो, क्लिश्यन्ति ये केवलबोध - लब्धये । एवं मत्कृतो निर्णयः, अलमतिकुतर्कैरित्यर्थः । अथवा, एवमन्वयः, आत्मा बद्धो मुक्त इति या व्याख्या उक्तिः, सा मे गुणतो मद् गुण फार तन्त्र्यात् । अत्र हेतुत्वेन गुणनियन्तरि तस्मिस्तद्व्यतिरेकमाह । अतएव न मे बन्धनं मोक्षोवेति । अभ्यत् समानम् ॥

पद्य के अनुसार विचार करके शुद्ध जीवात्मा में देवत्व मनुष्यत्व प्रभृति भेदज्ञान शून्य होकर मदीय लीला कथा श्रवण द्वारा सर्वगत ब्रह्म स्वरूप मुझ में मनोधारण कर साधनानुष्ठान से निवृत्त होना चाहिये ॥ ७० ॥

१३१ ७१

इस रीति से ज्ञानमिश्रा भक्ति का उपदेश प्रदान कर उक्त ज्ञान का अनादर करतः शुद्धाभक्ति का अनुष्ठान करते करते स्वतः ही जड़ एवं चैतन्य का विवेक रूप ज्ञानोदय होता है । इसका वर्णन चार श्लोकों के द्वारा करते हैं । (भा० ११।११।२२ )

(७१) " यद्यनीशो धारयितुं मनो ब्रह्मणि निश्चलम् ।

मथि सर्वाणि कर्माणि निरपेक्षः समाचर ॥ " २२॥

टीका- यद्यनीशोऽशत श्चेतहि आस्तामिदं मद्भक्तैयवकृतार्थो भविष्यसीत्याह मयीति ।

हे उद्धव ! निश्चय ही तुम निर्विशेष ब्रह्म स्वरूप में मन धारण कर नहीं सकोगे : अतएव मोक्षपर्य्यन्त कामना शून्य होकर मद्विषयक सर्वकर्मनुष्ठान करो ।

[[1]]

उक्त श्लोक “यद्यनीशो धारयितुं” में ‘यदि’ शब्द का प्रयोग हुआ है, उसका अर्थ ‘निश्चय है । कारण (भा० ११।४।१० ) धत्ते पदं त्वमविता यदिविघ्न मूद्धि” यहाँ के ‘यदि’ शब्द का अर्थ श्रीधरस्वामि- पादने ‘निश्चय’ अर्थ ही किया है। प्रस्तुत स्थल में भी यदि शब्द का उस प्रकार निश्चय अर्थ करना चाहिये । कारण, ज्ञानमार्ग में निर्विशेष ब्रह्म स्वरूप में मनोधारण करना अत्यन्त दुःखद है। श्रीमद् भगवद् गीता में उक्त है, “क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्त चेतसां " अर्थात् निर्विशेष ब्रह्म स्वरूप में चित्त आविष्ट करना अत्यन्त दुरूह कार्य है।

यहाँ संशय हो सकता है कि-श्रीभागवत का अभिधेय यदि भगवद् भक्ति ही है, तब उद्धव को श्रीकृष्ण ने ज्ञान मार्ग का उपदेश क्यों दिया ? समाधान हेतु कहते हैं–ज्ञान मार्ग में अभिरुचि सम्पन्न व्यक्ति का अभिलाष पूर्ण करने के निमित्त उद्धव में ज्ञानेच्छ का धर्म आरोप कर यह ज्ञान उपदेश उन्होंने किया है । तज्जन्य ही भा० १०।१०।४ में–

[[७]]

“श्रेयः सृति भक्तिमुदस्य ते विभो, क्लिश्लन्ति ये केवलबोधलब्धये ।

[[१०३]]तेषामसौ” इत्यादि- प्रमाणेन भक्त विना केवल ज्ञानमार्गेण ब्रह्मणि मनो धारयितुं निश्चित- तत् मेवानीशो भवसि ततोऽपि स्वतो ज्ञानादि-सर्वगुणसेवितं भक्तिमार्गमेवाश्रयेतेति सोपानमुपदिशति — मयोत्यादिना । अथवा, प्राक्तनभक्ति बलाभावाद्ब्रह्मज्ञानेच्छुर्यदि तत्र मनो धारयितुमनीशः स्यात्तदाधुनाप्येवं कुविति योज्यम् । समाचर अर्पय, निरपेक्षो वाञ्छान्तर- रहितः ॥