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तदेवं भक्तैधव ज्ञानं सिध्यतीत्युक्त्वा तश्च ज्ञानमार्गमुपसंहरति ( भा० ११।११।२१)
( ७० ) “एवं जिज्ञासयापोह्य नानात्व-भ्रममात्मनि ।
उपारमेत विरजं मनो मय्ययं सर्व्वगे ॥१२१॥
जिज्ञासया ( भा० ११।११।१) " बद्धो मुक्त इति व्याख्या गुणतो मे न वस्तुतः” इत्यादि-
विश्वं भगवान् इतर इव यः स जीवोऽपि भगवान्, चेतना चेतन प्रपञ्चस्तद्वयतिरेकेण नास्ति, स एवैक स्तत्त्वमित्यर्थः । हि शब्देन सर्वं खल्विदं ब्रह्मत्यादि श्रुति प्रमाणं सूचितम् । तद्धि स्वयमेव भवान् वेद । प्रादेशमात्र मेकदेशमात्रम् आचार्य वान् पुरुषो वेदेत्यादि श्रुत्यर्थ सम्पादनाय प्रदर्शितम् ॥ २० ॥
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उत्तम श्लोक श्रीकृष्ण के निरन्तर गुण वर्णन ही मानव मात्र की तपस्या का अध्ययन का यज्ञ का ज्ञान साधन एवं दान का नित्यफल रूप में निरूपित है । इत्यादि प्रमाण से श्रीहरि गुण कीर्तन की मुख्य कर्त्तव्यता का निर्देश दिया गया है । अतएव कलियुग पावनावतार भगवान् श्रीश्री कृष्णचैतन्य देव ने भी कहा है-
“श्रुतमप्यौपनिषदं दूरे हरिकथामृतात् ।
यन्न सन्ति द्रवच्चित्त कम्पाश्रुपुलकादयः ॥ १२० ॥
उपनिषद् प्रतिपाद्य ब्रह्म, श्रुत होने पर भी हरिकथामृत से बहु दूर में अवस्थित हैं । कारण, अनवरत ब्रह्म स्वरूप की कथा श्रवण करने पर भी चित्त विगलित नहीं होता है, जिसका श्रवण से हृदय विगलित नहीं होता है, उस प्रकार कथाश्रवण से क्या जीवों का मङ्गल साधित हो सकता है ? ॥६॥
श्रीभगवान् की भक्ति के द्वारा ही स्वरूप बोधात्मक ज्ञान की प्राप्ति होती है, इस को कहकर भा० ११।११।२१ में वर्णित श्लोक के द्वारा ज्ञान मार्ग का उपसंहार करते हैं-
(७०) “ एवं जिज्ञासयापोह्य नानात्वभ्रममात्मनि ।
उपारमेत विरजं मनो मय्ययं सर्वगे ॥१२१॥
टीका-उक्तं ज्ञान मार्गमुपसंहरति । एवं निश्चित्य विचारेणात्मनि नानात्व भ्रमं देहाद्यध्यासं निरस्य निर्मलं मनो मयि सर्वगे परिपूर्णे समर्प्य सन्धार्य्य- उपारमेत न तु शास्त्रपाण्डित्यमात्रेणेत्यर्थः ।
हे उद्धव ! इस प्रकार आत्मतत्त्व जिज्ञासु होकर आत्म स्वरूप में स्थूलत्व, कृशत्व, ब्राह्मणत्व प्रभृति नानात्व भ्रम त्याग पूर्वकलयविक्षेप शून्य मन का अर्पण सर्वगत मुझ में करके शान्ति लाभ करे। उक्त इलोक में ‘जिज्ञासया’ पद का प्रयोग हुआ है, उस का अर्थ भा० ११।११।१ में वर्णित -
" बद्धोमुक्त इति व्याख्या गुणतो मे न वस्तुतः ।
गुणस्य मायामूलत्वात् न मे मोक्षो न बन्धनम् ॥”
टीका - नित्य बद्धोनित्य मुक्त एक एवेति मे भ्रम इति यदुक्तं तत् किं वस्तुतो विरोधः प्रतीतितो वा । नाद्यः । बन्धमोक्षयो वस्तिवत्वाभावादित्याह - बन्धो मुक्त इति द्वाभ्याम् । आत्मा बद्धो मुक्ता च मे गुणतो मदधीनसत्त्वादि गुणोपाधितो न तु वस्तुतः । ननु कथं सर्वशास्त्रविरुद्धमुच्यते तत्राह इति मे व्याख्येति ।
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पूर्वोक्त प्रकारक विचारेण, आत्मनि शुद्धजीवे, नानात्वं देवत्वमनुष्यत्वादिभेदमपोह्य । एवं मल्लीलादिश्रवणेन मनो मयि ब्रह्माकारे सर्व्वगे अयं धारयित्वा उपारमेत ॥