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‘मया होनां वाचम्’ इत्युक्तं विवृणोति (भा० ११।११।२० )

(६६) “यस्यां न मे पावनमङ्ग कर्म्म, स्थित्युद्भवप्राण-निरोधमस्य ।

लीलावतारेप्सितजन्म वा स्याद्, बन्ध्यां गिरन्तां विभृयान्न धीरः ॥ ११६ यस्यां मे जगतः शोधकं चरितं न स्यात्, किन्तु ? अस्य विश्वस्य स्थित्यादिरूपं तद्धेतुरित्यर्थः । ततोऽप्युत्कृष्टतमत्वेन विमृश्याह- लीलावतारे वीप्सितं जगतः प्रेमास्पदं

की सम्भावना भी नहीं है । उसी प्रकार श्रीभगवान् की लीला कथा शून्य वेदवाणी का आदर कर श्रवण कीर्तन करने से - शास्त्रानु शीलन जनित एक प्रकार दुःख, पारमार्थिक किसी प्रकार आस्वादन प्राप्त करने की सम्भावना न होने से द्वितीय दुःख उपस्थित होता है । श्लोकस्थ ‘माया’ शब्द का अर्थ है- भगवता एवं ‘होना’ शब्द का अर्थ है - मम लीलादिशून्याम् । अर्थात् श्रीभगवान् जो मैं हूँ, मेरी लीलाकथा शून्या वाणी का श्रवण आदर पूर्वक करने से दुःख के ऊपर दुःख उपस्थित होता है ॥ ६८ ॥

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मेरी ल.ला कथा शून्या वाणी का श्रवण करने से जो दुःख के ऊपर दुःख उपस्थित होता है,

। इस कथन का विवरण भा० ११।११।२० में प्रदान करते हैं-

(६६) “यस्यां न मे पावनमङ्ग कर्म्म, स्थित्युद्भवप्र ण-निरोधमस्य ।

लीलावतारेप्सितजन्म वा स्याद्, बन्ध्यां गिरन्तां विभृयान्न धीरः ॥ ११६ ॥

टीका - मया हीनां वाचमित्युक्तं विवृणोति । यस्यां वाचि मे जगत शोधकंचरित्रंनस्यात् । कि तत् ! अस्य विश्वस्य स्थित्यादि रूपम् । तद्धेतुरित्यर्थः । लीलावतारेषु ईप्सितं जगतः प्रेमास्पदं श्रीराम कृष्णादि जन्म वा न स्यात् तां निष्फलां गिरं धीरो धोमात् न धारयेत् ॥ २० ॥ ॥

वेद की जिस कथा में जगत् पवित्र कारी मेरा चरित्र वर्णित नहीं है । उसका श्रवण न करे । वह कथा, - ऐश्वर्य्यं एवं ऐश्वर्य्यमिश्रित माधुर्य भेद से द्विविध हैं । तन्मध्ये दृश्यमान जगत् के सृष्टि स्थिति संहार सम्पादन रूप चरित्र - केवल ऐश्वर्य मय है, द्वितीय, - लीलावतार के अभीप्सित जन्मादि मय चरित्र - ऐश्वर्य मिश्रित - माधुय्र्यमय है । उक्त उभय विध चरित्र वेद के जिस अंश में वर्णित नहीं है, वह अंश - पारमार्थिक आस्व दन प्रदान में असमर्थ होने के कारण बन्ध्या रमणी के तुल्य अनादरणीय है ।

में

वेद की जिस वाणी में जगत् पवित्र कारी मदोय चरित्र का उल्लेख नहीं है, वह किस प्रकार है, उसका वर्णन करते हैं, विश्व के सृष्टि स्थिति विनाश रूप कार्य का वर्णन, अर्थात् विश्व के स्थिति प्रभृति के हेतु स्वरूप । इस प्रकार अर्थ समझना होगा। उक्त विश्व-सृष्ट्यादिमय चरित्र से उत्कृष्टतमरूप विचार कर कहते हैं, - लीलावतारवृन्द के मध्य में जगत् से जो अत्यन्त प्रीत्यास्पद श्रीराम कृष्णादि, स्वरूप का जन्म वृत्तान्त जिस में वर्णित नहीं है । उस निष्फला वेद वाणी का धारण धीमान् व्यक्ति न करे । भा० १।५।२२ में श्रीनारद महाशयने कहा है

“इदं हि पुंसस्तपसः श्रुतस्य वा । स्विष्टस्य सूक्तस्य बुद्धदत्तयोः । अविच्युतोऽर्थः कविभि निरूपितो ।

यदुत्तमः श्लोक गुणानु वर्णनम् ॥ " २२॥

टीका - तदेवं भगवल्लीलां प्राधान्येनानुवर्णय - इत्युक्तं, तत्र को भगवान्, का च तस्य लीला इत्यपेक्षायामाह – इदं विश्वं भगवानेव, स तु अस्मादितरः । ईश्वरात् प्रपञ्च न पृथक् ईश्वरस्तु प्रपञ्चात् पृथगित्यर्थः । तत्र हेतुः, यतोभगवतो होतो जंगतः स्थित्यादयो भवन्ति, अनेनैव लीलादि दर्शिता । यद्वा इदं

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श्रीकृष्णरामादिजन्म वा न स्यात्तां निष्फलां गिरं वेदलक्षणामपि धोरो धीमान् न धारयेत् । तदुक्तं श्रीनारदेन ( भा० ११५१२२ ) - “इदं हि पुंसरतपसः श्रुतस्य या” इत्यादि । अतएव गीतं कलियुगपावनावतारेण श्रीभगवता —

“श्रुतमयोपनिषदं दूरे हरिकथामृतात् । यन्न सन्ति द्रवच्चित्त कम्पाश्रुपुल कादयः ॥ १२० ॥