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अतएव मदीयलीलाशून्यां वैदिकीमपि वाचं नाभ्यसेदित्याह द्वाभ्याम्, ( भा० ११।११।१६) (६८) “गां दुग्धदोहामसतीञ्च भार्य्या, देहं पराधीनमसत्प्रजाश्च ।

वितं त्वतीर्थीकृतमङ्ग वाचं, हीनां मया रक्षति दुःखदुःखी ॥” ११८ ॥

मया श्रीभगवता, हीनां मम लीलादिशून्याम् ॥

सृतिः सरणं यस्याः सरस इवनिर्झराणाम्, तां ते, तव भक्तिमुदस्य त्यक्त्वा श्रेयसां मार्गभूतामिति वा । तेषां क्लेशलः क्लेश एवावशिष्यते । अयं भावः - यथा अल्प प्रमाणं धान्यं परित्यज्य अन्तः कण हीनान् स्थूल धान्याभ सांस्तुषानेव अवघ्नन्ति तेषां न किञ्चिद् फलं, एवं भक्त तुच्छीकृत्य ये केवलं बोधाय प्रयतन्ते तेषामपीति । (४)

हे विभो ! स्वरूपतः गुणतः आप अपरिच्छिन्न हैं । जो मानव, निखिल मङ्गल प्रसविनी भक्ति का अनादर कर केवल स्वरूप ज्ञान के निमित्त क्लेश करते हैं, उनको साधन जनित क्लेश लाभ ही होता है, अपर कोई फल लाभ नहीं होता है । जिस प्रकार स्वल्प परिमाण धान्य को परित्याग कर बलवान् व्यक्ति, स्तुपीकृत तुष का अवधातन में प्रवृत्त होता है, उसको उस से तण्डुल लाभ नहीं होता है, प्रत्युत अवहनन ज नत हस्त व्यथालाभ होता है, उस प्रकार भक्ति होन साधक का यम नियमादि के द्वारा आत्म बोध नहीं होता है, किन्तु सुदीर्घ साधना निवेश जनित क्लेश ही होता है । उस प्रकार ही जानना होगा ॥६७ ॥

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अतएव भा० ११।११।१६-२० श्लोक द्वय के द्वारा भगवान् कहते हैं- “मदीय लीला कथा शून्य वैदिक वाणी का श्रवण भी न करे ।”

(६८) “गां दुग्ध दोहामसतीञ्च भार्य्यां देहं पराधीनमसत् प्रजाञ्च ।

वित्तंत्वतीर्थीकृतमङ्गवाचं, हीनां मया रक्षति दुःखदुःखी ॥ ११८ ॥

टीका - एतदेवान्यार्थ निदर्शनैः प्रपञ्चयति गामिति । दुह्यत इति दोहः पयः । दुग्धो दोहो नोत्तरत्र दोहोऽस्ति यस्यास्तामर्थ शून्याम्, असतों भाय्य, कामशून्याम् । देहं पराधानाम्, प्रतिक्षणं दुःख हेतुम् । असत् प्रजां दृष्टादृष्ट साधनशून्यं पुत्रम् । अतीर्थोकृतम् - आगते पात्रे अदत्तं वित्तं दुष्कीत्तिदुरितापादकम् । अङ्ग हे उद्धव ! दुखानन्तर दुःखमेव स रक्षति ।

वह जिस हे उद्धव ! यदि कोई व्यक्ति दुग्ध होन धेनुका प्रति पालन दुग्धार्थी होकर करता है, तो प्रकार धेनु के निमित्त तृण जलादि संग्रहनिमित्त दुःख, एवं दुग्ध रूप अभीष्ट अप्राप्ति जनित दुःख को प्राप्त करता है । यह प्रथम दृष्टान्त - द्वितीय दृष्टान्त यह है- जो व्यक्ति, अपने के प्रति काम गन्ध होना अथच अन्य पुरुष के प्रति रति युक्ता स्त्री का पालन करता है, वह जिस प्रकार द्विविध दुःख प्राप्त प्राप्त करता है- एक स्वयं रति सुख प्राप्त नहीं कर सकता है, द्वितीय- उसका भरण पोषण निमित्त श्रम करना पड़ता है ।

तृतीय दृष्टान्त- जो व्यक्ति, दूसरे का अधीन है, अथच बेह व्याधिपीड़ित है, वह द्विविध दुःख प्राप्त करता है । पराधीनता जन्य एक दुःख, रोगाधीनता हेतु अपर दुःख

चतुर्थ दृष्टान्त -असत् पुत्र की रक्षा करने से जिस प्रकार द्विविध दुःख उपस्थित होते हैं । प्रथमदुःख जीवित अवस्था में पुत्र से किसी प्रकार आनुकूल्यलाभ की सम्भावना नहीं है, अथच भरण पोषण भी करना पड़ता है ।

पञ्चम दृष्टान्त - अपवित्र सम्पत्ति की रक्षा करना जिस प्रकार उभय विध दुःख का कारण है, अर्थात् जो वित्त श्रीभगवत् सेवाके उद्देश्य में व्ययित नहीं होता है, वह वित्त ही अपवित्र है । उस अपवित्र सम्पत्ति की रक्षा हेतु अनन्त क्लेश प्रथम दुःख । द्वितीयतः, उक्त सम्पत्ति से पारमार्थिक किसी प्रकार कल्याण लाभ

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