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अग्र े च ज्ञानयोगस्य केवलस्यासाध्यत्वं भक्तियोगस्य तु सुखसाध्यत्व मानुषङ्गिक तथा ज्ञानजनकत्वं स्वयमपि पुरुषार्थत्वञ्चेति । यथा ( भा० ११।११।१७ ) –

“न कुर्य्यान्न वदेत् किश्चिन्न ध्यायेत् साध्वसाधु वा ।

आत्मारामोऽनया वृत्त्या विचरेज्जड़ वन्मुनिः ॥ ११४ ॥

इत्यन्तेन ग्रन्थेन ज्ञानयोगमुक्त्वा भक्तियोग मुद्भावयितुमाह (भा० ११।११।१८) -

PEP (६७) “शब्दब्रह्मणि निष्णातो न निष्णायात् परे यदि ।

अत्र परब्रह्म- पदेन

श्रमस्तस्य श्रमफलो ह्यधेनुमिव रक्षतः ॥ ११५॥

परतत्त्वमात्रमुच्यते, न तु ब्रह्मत्व- भगवत्त्वादि-विवेकेनेति ज्ञेयम्, सर्व्वत्र तत्सामान्यात् । तदेवं शब्दब्रह्माभ्यासस्य परब्रह्माभ्यासः प्रयोजनमित्युक्तम् । तत्र सर्वेष्वेवांशेषु,

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अग्रिम ग्रन्थ भा० ११।११।१७ में भक्ति शून्य ज्ञान योग का निष्फलत्व अर्थात् मुक्ति प्रदान में असामर्थ्य, एवं भक्ति योग का सुख साध्यत्व तथा आनुषङ्गिक विशुद्ध ज्ञान जनकत्व हेतु भक्ति योग का स्वयं ही परमपुरुषार्थता का वर्णन श्रीभगवान् ने किया है ।

अर्थात् भक्ति विहीन स्वरूपानुसन्धानात्मक ज्ञान मुक्ति दान में अक्षम है । किन्तु भक्तियोगानुष्ठान जिस प्रकार सुखमय है, उस प्रकार ही अननुसन्धान से भी विशुद्ध ज्ञान प्रदायक है । अथच भक्ति योग स्वयं ही साधन, एवं स्वयं ही साध्य हैं। भक्तियोग भिन्न, भक्ति योग का अपर कोई साध्य नहीं है । यह सब उपदेश के द्वारा भक्ति योग का अवश्य कर्त्तव्यत्व प्रदर्शित हुआ है ।

" न कुर्य्यान्नवदेत् किञ्चिन्न ध्यायेत् साध्वस धुवा ।

आत्मारामोऽनया वृत्त्या विचरेज्जड़वन्मुनिः ॥’ ११४ ॥

टीका - अपि च न कुर्य्यादिति । यो दैहिकेऽपि कर्मण्युदासीनः स मुक्तः । इतरोबद्ध इत्यर्थः । एतान्येव सर्वाणि मुमुक्षोः साधनानि ज्ञातव्यानि ॥ १७॥ ।”

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जो व्यक्ति दैहिककर्म में भी उदासीन होकर सत् असत् कुछ भी नहीं कहता है, मन में भी सत् असत् की चिन्ता नहीं करता है । सर्वदा निज स्वरूपानन्द में निमग्न होकर अकर्म्मण्य जड़ के समान सतत आत्मतत्त्व चिन्ताशील होता है, वह मुक्ति पथ में प्रविष्ट हो सकता है। यहाँ तक ज्ञान योग का वर्णन करके भक्ति योग की कथा का उद्भावन करने के निमित्त भा० ११।११।१८ में कहते हैं-

(६७) " शब्द ब्रह्मणि निष्णातो न निष्णायात् परे यदि ।

श्रमस्तस्य श्रमफलो ह्यधेनुमिव रक्षतः ॥” ११५॥

टीका - यस्तु केवलं शब्द ब्रह्मणि अभिज्ञः पाण्डित्यमात्र श्लाघी न तूक्तैः साधनै स्तदर्थ निष्ठो भवेत् तं निन्दति । शब्द ब्रह्मणि निष्णातोऽध्ययनादिना पारं गतोऽपि परे ब्रह्मणि, न निष्णायात्, ध्यानाद्यभियोगं न कुर्य्यात्, तस्य शास्त्रश्रमः, श्रमकफलो न तु पुरुषार्थ पर्य्यवसायी । अधेनु - चिर प्रसूताम् ॥ १८ ॥

यदि कोई व्यक्तिः शब्द ब्रह्म वेद एवं वेदार्थ विचार में निपुण होते हैं, अर्थात् ‘मैं पण्डित हूँ’ इस प्रकार आत्मश्लाघी होते हैं, अथच पर ब्रह्म के ध्यानादि नहीं करते हैं, तो उनके वह शास्त्राध्ययन पण्ड श्रममात्र ही है । अर्थात् वह पुरुषार्थ साधन में असमर्थ है, उक्त शास्त्राध्ययन के द्वारा आत्यन्तिक दुःख निवृत्ति एवं परमानन्दलाभ नहीं होता है । जिस प्रकार चिर प्रसूता धेनु पालन करने से उस से दुग्ध प्राप्त करने की कोई आशा नहीं रहती है, उस प्रकार शास्त्रविचार में निपुण होकर भी यदि श्रीभगवदुपासना

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विशेषत उपनिषद्द्भागे शब्दब्रह्मणस्तत्प्रतिपादकत्वे स्थितेऽपि तद्विचारकोटिभिरपि परन्ह- निष्ठा न जायते, किन्तु तस्य यस्मिन्नंशे श्रीभगवदाकार परब्रह्मलीलादिकं प्रतिपाद्यते, तदभ्यासेनैव भगवदाकारे ब्रह्माकारे च निष्ठा जायते । तदुक्तम् (भा० ११।४।४०)

“संसार सिन्धुमतिदुस्तरमुत्तितीर्षो नान्यः प्लवो भगवतः पुरुषोत्तमस्य । लीलाकथारसनिषेवणमन्तरेण, पुसो भवेद्विविधदुःखदवाद्दितस्य ॥”११६॥

(भा० १०।१४१४) - P

“श्रेयः सृति भक्तिमुदस्य ते विभो, क्लिश्यन्ति ये केवलबोधलब्धये ।

तेषामसौ क्लेशल एव शिष्यते, नान्यद्यथा स्थूलतुषावघातिनाम् ॥ ११७॥

नहीं करते हैं तो उनका शास्त्राध्ययन केवल भेक कोलाहल में पर्य्यवसित होता है ।

उक्त श्लोक में लिखित “न निष्णायात् परे यदि” ‘पर’ शब्द का अर्थ परतत्त्व मात्र है । किन्तु ब्रह्मत्व अथवा भगवत्तत्त्वादि का बोध उस पर शब्द से नहीं होता है । सर्वत्र सामान्य पर तत्त्व का बोध ही उक्त ‘पर’ शब्द से होता है । किन्तु पर ब्रह्म शब्द ब्रह्म अथवा भगवत् स्वरूप को लक्ष्य कर प्रयुक्त होता है । अतएव, शब्द ब्रह्म वेद, एवं तदनुगत शास्त्राध्ययन का मुख्य फल ही पर ब्रह्म की उपासना करना । यदि शास्त्राध्यनकरके भी परमेश्वर की उपासना नहीं करते हैं, तो शास्त्राध्ययन, वृथाश्रम में ही पर्य्यवसित होता है ।

यद्यपि शब्द ब्रह्म के द्वारा सर्वत्रः विशेषतः उपनिषद् भाग में पर तत्त्व का प्रति पादन हुआ है, तथापि उपनिषद् भाग में पुङ्खानुपुङ्ग रूप में असंख्य वार पर तत्त्व का विचार करने पर भी पर ब्रह्म में निष्ठा का उदय नहीं होता है । किन्तु शब्द ब्रह्म रूप वेद के जिस अंश में श्रीभगवत् स्वरूप पर ब्रह्म के रूप गुण लीलादि का प्रतिपादन हुआ है उस अंश का अनुशीलन से ही श्रीभगवत् स्वरूप में एवं निविशेष ब्रह्म स्वरूप में निष्टा होती है। उसका विवरण ही भा० १२।४।४० में इस प्रकार है-

“संसार सिन्धुमतिदुस्तरमुत्तितीर्षो-, र्नान्यः प्लवो भगवतः पुरुषोत्तमस्य ।

लीला कथा रस निषेवणमन्तरेण, पुंसो भवेद्विविधदुःखदवाद्दितस्य ॥ " ११६॥

टीका- ननु यदि साकल्येनाभिधातुं न शक्यन्ते तहि किं तदभिध्यानेन तत्राह संसारेति । विविधं दुःखमेव दवो दावानलस्तेन अदितस्य पीड़ितस्य अत उत्तितीर्षोः पुंसः भगवतो या लीलास्तासां कथारतासा रस स्तन्निषेवण मन्तरेण अन्यः प्लवस्तरण साधनं न भवेत् । उपायान्तरासम्भवात् तत् कथा श्रवणमेव यथाशक्ति निषेव्यमित्यर्थः ॥

हे राजन् ! अति दुस्तर यह संसार सिन्धु उत्तीर्ण होने के इच्छ ुक व्यक्ति के पक्ष में एकमात्र पुरुषोत्तम श्रीभगवान् की लीला का आसक्ति पूर्व अनुशीलन करना छोड़कर अपर कोई भी सरल साधन सरणि नहीं हैं । कारण, विविध दुःख दावानल दग्ध जीव के पक्ष में श्रीभगवान् को लीला कथादि का श्रवण, कीर्तन, एवं स्मरण ही एक मात्र सुख मय उपाय है ।

भा० १०।१४।४ में श्रीब्रह्माने भी कहा है-

“श्रेयः सृति भक्तिमुदस्य ते विभो, क्लिश्यन्ति ये केवलबोधलब्धये । तेषामसौ क्लेशल एव शिष्यते, नान्यद्यथा स्थूलतुषावघातिनाम् ॥ ११७ ॥

॥ " ॥

टीका-भक्त विना ज्ञानन्तु नैवसिद्धेत् — इत्याह-श्रेयः सृतिमिति । श्रेयसामभ्युदयापवर्गलक्षणानां

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