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श्रीभगवदुद्धव-संवादेऽपि (भा० ११/७/६)–
(६६) “त्वन्तु सर्वं परित्यज्य स्नेहं स्वजन-बन्धुषु ।
मय्यावेश्य मनः सम्यक् समदृग् विचरस्व गाम् ॥। १०६ ॥
(भा० ३।४१३१) “नोद्धवोऽण्वपि मन्न्यूनः " इत्यादिभिः श्रीमदृद्धवस्य सिद्धत्वेनैव प्रसिद्धत्वात् तं लक्ष्यीकृत्य तद्द्द्वारान्येभ्य एवोपदेशोऽयम् । एवमन्यत्र च ज्ञेयम् । ततश्च जहल्लक्षणया त्वं त्वदीयमार्गानुगतो भक्तो विचरस्व विचरत्वित्येवार्थः । समदृक्त्वञ्च, मां विनान्यत्र हेयोपादेयत्वाभावात् । ‘तु’ शब्दो वहिर्मुखनिवृत्यर्थः । तेनापि पूर्वमिदमभिप्रेत्म् (भा० ११।६।४६-४६ )
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भा० ११।७।६ में वर्णित श्रीभगवदुद्धव संवाद में भी वर्णित है ॥
क्रमसन्दर्भ-
(६६) “त्वन्तु सर्वं परित्यज्य स्नेहं स्वजन बन्धुषु ।
मय्यावेश्य मनः सम्यक् समदृग् विचरस्व गाम् ॥ १०६॥
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“अतस्तमुपलक्ष्य तदुपदेश्यान् प्रत्येवाह, त्वत्विति । (भा० ३।४।३१) “नोद्धवोऽण्वपि मन्यूनः " इत्यादिभिः श्रीमदुद्धवस्य सिद्धत्वेनैव प्रसिद्धत्वात्तं लक्ष्मीकृत्य तद् द्वारान्येभ्य एवोपदेशोऽयम् । एवमन्यत्र च ज्ञेयम् । ततश्च जहल्लक्षणया त्वं-त्वं तदीय- मार्गानुगतो भक्तो विचरस्व- विचरत्वित्येवार्थः । समहत्वञ्च मां विनान्यत्र हेयोपादेयत्वाभावात् । तु शब्दो वहिर्मुखत्व निवृत्यर्थः ॥ "
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हे उद्धव ! तुम, स्वजन बन्धु बान्धव के प्रति सर्व प्रकार स्नेह परित्याग कर मुझ में मनोनिवेश करतः सर्वत्र समदृष्टि सम्पन्न होकर पृथिवी में विचरण करो ॥ यहाँ पर अनुसन्धेय यह है कि, - श्रीभगवान् उद्धव की महिमा के प्रसङ्ग में कहे हैं कि-‘श्रीउद्धव मुझ से किसी भी अंश में न्यून नहीं है। उद्धव सम्बन्ध में श्रीभगवदुक्ति उस प्रकार होने के कारण, श्रीमान् उद्धव जो भगवान् के नित्यसिद्ध परिकर हैं । इस में सन्देह नहीं है । विशेष भा० ११।१७ अध्याय के विभूति प्रसङ्ग में कथित है- “त्वन्तु भागवतेष्वहम्
उद्धव ! ‘तुम, किन्तु निखिल भागवतगण के मध्य में मैं हूँ।’ इस प्रकार विशेष उक्ति हो श्रीमन् उद्धव के नित्य सिद्धत्व के प्रति अभ्रान्त प्रमाण है । अतएव उस प्रकार उद्धव के प्रति सर्वत्याग मार्ग का उपदेश नहीं हो सकता है, किन्तु श्रीउद्धव को लक्ष्य करके विषयाविष्ट जीव समूह के प्रति उस प्रकार उपदेश किया गया है। इस प्रकार ही अन्यत्र जहाँपर नित्यसिद्ध परिकर को अन्य आवेश त्याग एवं भगवद् भक्ति करने के निमित्त उपदेश दिया गया है, वहाँपर भी समझना होगा कि - नित्यसिद्ध पार्षद को लक्ष्य करके अन्य जीव समूह को उपदेश दिया गया है। अतएव " जहल्लक्षणा के द्वारा अर्थात् " गङ्गायां घोषः प्रतिवसति स्म’ गङ्गा में घोष का निवास है । यहाँ जिस प्रकार जल प्रवाह रूप गङ्गा में आभीर पल्ली की स्थिति असम्भव होने के कारण गङ्गा शब्द का जल प्रवाहमय मुख्यार्थ को परित्याग कर गङ्गातीर में निवास अर्थ को समझना पड़ता है, उस प्रकार ही यहाँपर उद्धव की सर्व विषय में आवेश शून्यता एवं श्रीभगवान में नित्य आविष्टता विद्यमान होने के कारण ही उन के प्रति सर्वस्नेह त्याग पूर्वक श्रीभगवान् में गाढ़ आविष्ट होने का उपदेश प्रदान अनुपपन्न ही होता है । तज्जन्य इस श्लोक में “त्वं” इस पद का अर्थ है - तुम्हारी कथा का अनुसरण कर जो जन भक्त होगा, वह जन, सर्वत्र स्नेह शून्य होकर विचरण करे । ‘विचरस्व’ विचरण करो, स्थल में ‘विचरण करे, इस प्रकार अर्थ समझना होगा । ‘समडक्, शब्द का अर्थ भी यहाँ मुझ को
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“त्वयोप मुक्त - त्रग्गन्धवा पोऽलङ्कार - चच्चिता : उच्छिष्टभोजिनो दासास्तव मायां जयेम हि ॥११०॥ वातवसना मुनयो श्रमणा ऊर्ध्व मन्थिनः ।
ब्रह्माख्यं धाम ते यान्ति शान्ताः सन्न्यासिनोऽमलाः ॥ १११ ॥ वह महायोगिन् भ्रमन्तः कर्मवर्त्मसु । त्वद्वार्त्तया तरिष्यामस्तावकैर्दुस्तरं तमः ॥ ११२॥ स्मरन्तः कीर्तयन्तश्च कृतानि गदितानि च ।
गत्यु स्मितेक्षितक्ष्वेलि यन्नृलोक विडम्बनम् ॥ ११३ ॥ इति । श्रीभगवानुद्धवम् ॥
छोड़कर अन्यत्र हेय बुद्धि सम्पन्न होना अथवा उपादेय बुद्धि शून्य होना जानना होगा । “त्वन्तु” तुकार का अर्थ “वहिर्मुख भाव निवृत्ति” को जानना होगा ।
भा० ११।६।४६–४९ में उद्धव भी स्वाभिप्राय को व्यक्त किये थे
त्वयोपभुक्त-स्त्रग्गन्धवासोऽलङ्कार- चच्चिताः । उच्छिष्टभोजिनो दासस्तव मायां जयेम हि ॥११०॥
वातवसना मुनयः श्रमणा ऊर्ध्वमन्थिनः
ब्रह्माख्यं धाम ते यान्ति शान्ताः सन्न्यासिनोऽमलाः । १११॥
वयन्त्विह महायोगिन् भ्रमन्तः कर्म्मवर्त्मसु ।
त्वद्वर्त्तया तरिष्यामस्ताव कैर्दुस्तरं तमः ॥११२
स्मरन्तः कीर्त्तयन्तश्च कृतानि गदितानि च ।
गत्युतुस्मितेक्षितक्ष्वेलि यन्नृलोकविडम्बनम् ॥ ११३॥
टीका - त्यक्तुमशक्नुवन् प्रार्थये न माया भयादित्याह त्वयेति । चचिताः– अलङ्कृताः हि - निश्चितं जयेम ॥४६ ॥ सन्न्यासिनो हि ब्रह्मचर्य्यादि क्लेशः कथञ्चित् तरन्ति, वयन्तु अनाय सेनेव तरिष्याम इत्याह वातरशना इति । ऊर्ध्वमन्थिन ऊर्ध्वरेतसः ॥४७॥ तावकैर्भक्तः सह त्वद्वार्त्तया दुस्तरं तमः संसारम् । ४८ । क्ष्वेली -परिहासः । द्वन्द्वैकत्वम् ॥४६॥
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हे प्रभो ! तुम्हारे दास हम सब तुम्हारे द्वारा स्वीकृत माल्य, गन्ध, वसन अलङ्कार से विभूषित होकर एवं तुम्हारी उच्छिष्ट भोजन कर अनायास तुम्हारी माया को जय कर सकते हैं। मुनीश्वर गण, दिगम्बर एवं ऊर्ध्वरेताः, आत्मतत्वानुशीलन परायण, विषय तृष्णात्यागशील एवं अन्तः करण संयम विशिष्ट, तथा रागादि मल शून्य होकर तुम्हारी निर्विशेष नामक अङ्गज्योति में लीन होते हैं । किन्तु हम सब दास हैं, उस आदर्श को दूर से प्रणाम करेंगे। हे महायोगीन्द्रगण सेवित पदारविन्द ! हम सब किन्तु कर्ममय संसार में भ्रमण करते करते तुम्हारे प्रियजन के सहित मिलित होकर, तुम्हारी कथा के प्रसङ्ग का कीर्तन करते करते अनायास दुस्तर संसार उत्तीर्ण हो जायेंगे । माया उत्तीर्ण होने के निमित्त हम सब को प्रयास नहीं करना पड़ेगा। तुम्हारी गति, तुम्हारा हास्य, मधुर दृष्टि, परिहास वचन, तुम्हारे मनुष्योचित आचरण समूह का कीर्त्तन करते करते अनायास मायामय संस र उत्तीर्ण हो जायेंगे ।
श्रीभगवान् उत्तव को कहे थे । ६६ ॥
श्रीभक्ति सन्दर्भः
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