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अग्रे च पूर्वोक्तप्रकारेण भक्तेरेवाभिहितत्वे, भवेत्तस्य तद्विशेषप्रश्नोऽपि युक्तः, (भा० ११।५।१६) “कस्मिन् काले” इत्यादिना तथैवोत्तरितम् (भा० ११।५।२०) –

(६५) “कृतं त्रेता द्वापरञ्च कलिरित्येषु केशवः ।

नानावर्णाभिधाकारो नानैव विधिनेज्यते ॥ १०८ ॥

नानैव विधिना विविधेन मार्गेण ॥ श्रीकरभाजनो विदेहम् ॥

उच्चतमस्थान वैकुण्ठारोहण हेतु सोपान का कार्य करते हैं। विदेह महाराज, श्रीब्रुमिल के उत्तर को सुनकर श्रीचमस योगीन्द्र के निकट इस प्रकार प्रश्न की अवतारणा किये थे- “जो लोक सांसारिक सुख भोग में आविष्ट हैं, वे सब श्रीभगवान का भजन नहीं करते हैं, वे सब अशान्त काम मनुष्यों की दुरवस्था किस प्रकार होती है, उसका वर्णन करें,” प्रश्नोत्तर में योगीन्द्र ने प्रथम कहा, अभजनकारी चारवर्णी, एवं चार आश्रमी को गुरुतर प्रत्यवाय होता है, इस का वर्णन “मुखबाहूरुपादेभ्यः” श्लोक के द्वारा आप ने कहा है । अवशेष एक चरण के द्वारा किस प्रकार दुर्गति होती है, उसका वर्णन ‘स्थानाद भ्रष्टाः पतन्त्यधः " के दारा करते हैं, अर्थात् वे सब निज निज वर्ण एवं आश्रम से भ्रष्ट होकर अध. पतित होते हैं । इस प्रकार दुर्गति का वर्णन उक्त श्लोक पाद के द्वारा आपने किया है ।

श्रीचमस योगीन्द्र विदेह को कहे थे ॥ ६४॥

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अग्रिम अध्याय भा० ११।५।१६ में पूर्व वर्णित प्रकार से भक्ति का ही अभिधेयत्व वर्णित होगा । इस अभिप्राय से उक्त भक्ति का ही प्रकार विशेष को जानने के निमित्त प्रश्न करना भी युक्ति युक्त

" कस्मिन् काले स भगवान् किं वर्णः कीदृशोनृभिः ।

नाम्ना वाकेन विधिना पूज्यते तदिहोच्यताम् ॥ १६॥

टीका - " तदेवं भगवद् भक्तिरेव कर्त्तव्येति स्थिते तत्र विशेषं पृच्छति, कस्मिन् काल इति । किंवर्णः, कीटक वर्णवान् । कीदृशः - कीडगाकारः । केन वा नाम्ना । केन वा विधिना ।”

‘किस युग में भगवान् किस आकार में, किस नाम से पूजित होते हैं, उसका वर्णन आप करें।’ इस प्रकार प्रश्न करने पर श्रीकर भाजन योगीन्द्र ने उसका अनुरूप उत्तर प्रदान किया ॥ भा० ११०५/२०

(६५) “कृतं त्रेता द्वापरञ्च कलिरित्येषु केशवः ।

नानावर्णाभिधाकारो नानैव विधिनेज्यते ॥ १०८ ॥

टीका- ‘एषु कृतादि कालेषु । नाना प्रकारा वर्णाभिधाकारा यस्य सः । नानैव विधिना, विविधेनैव मार्गेण ॥ २० ॥

हे राजन् ! भगवान् श्रीकेशव, सत्य वेता द्वापर एवं कलि, यह चतुर्युग में, विविध वर्ण, विविध आकार, एवं विविध नाम से अभिहित होकर विविध मार्ग के द्वारा उस युगानुवर्ती मनुष्यगण कर्ता क आराधित होते रहते हैं। नानैव विधिना - शब्द का अर्थ है-विविध मार्ग के द्वारा श्रीहरि आराधित होते हैं ।

श्रीकर भाजन - विदेह को कहे थे ॥ ६५ ॥

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श्रीभक्ति सन्दर्भः

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