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अग्रे च व्यतिरेक-मुखेन (भा० ११।५।१ ) -
सर्वशक्ति युक्त श्रीभगवान् में निखिल कर्म समर्पण द्वारा श्रीभगवान् सु प्रसन्न होने पर जो निष्काम भाव लाभ होगा, इस में सन्देह क्या है ?
निष्काम भाव प्राप्ति के हेतु का जो उल्लेख हुआ है, उस से बहु काल के पश्चात् निष्काम भाव का लाभ होता है । किन्तु भा० ४।३१०१४ में वर्णित है - “यथा तरोर्मूल निषेचनेन” अर्थात् वृक्ष मूल में जल सेचन करने पर शाखा पल्लवादिका सन्तोष होता है । इस नीति से स्वतन्त्र भाव से अतिसत्वर सर्वधर्म फल प्राप्ति का एकमात्र हेतु श्रीविष्णु सन्तोष है, एवं निष्काम भाव सिद्धिका फल स्वरूप हृदयस्थ जड़चेतन ग्रन्थिच्छेदन करने का निदुष्ट उपाय भी वही है । उस को ११।३।३७ में आविर्होत्र कहते हैं-
“य आशु हृदय ग्रन्थि निज्जिहषु परात्मनः । विधिनोपचरेद्देवं तन्त्रोक्तेन च केशवम् ।”
हे राजन् ! जो अतिसत्वर स्थूल सूक्ष्म देहद्वय से अतिरिक्त जीवात्मा की देहग्रन्थी, देहाहङ्कार को छेदन करने का अभिलाषी है । उसको चाहिये कि वह आगमशास्त्र वर्णित उपाय के द्वारा एवं “तन्त्रोक्तेन च केशवम्” ‘च’ कार प्रयोग से अर्थ होता है कि वेदोक्त विधि के द्वारा आराध्यतम श्रीकृष्ण की अर्चना करे। उक्त श्लोक केशव पद के विशेषण रूप में ‘देव’ पद का उल्लेख हुआ है, कारण- भा० १०।४।३६ में “मूलं हि विष्णुर्देवानाम् " श्रीविष्णु हो समस्त देवताओं का मूल हैं । उनकी उपासना करने से समस्त देवता की उपासनासम्पन्ना होती है । अन्य देवता के प्रति आराध्य बुद्धि न रखे ॥ ६२ ॥
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उपसंहार वाक्य में भी आविहोत्र ने कहा- हे राजन् ! मैंने जिस प्रकार वैदिक तान्त्रिक अर्चना की कथा कही है। उस प्रकार जो व्यक्ति, अग्नि, सूर्य्य जल, प्रभृति में एवं अतिथि में निज हृदय में परमात्मा स्वरूप श्रीभगवान् की उपासना करता है, वह सत्वर माया बन्धन से मुक्त हो जाता है, इस विषय में कोई संशय नहीं है । अन्यत्र उपास्य बुद्धि परित्याग पूर्वक ईश्वर, आत्मास्वरूप श्रीविष्णु की उपासना करे । भा० ११।३।५५
(६३) “एवमग्न्यर्कतोयादावतिथौ हृदये च यः ।
यजेदोश्वरमात्मानमचिरान्मुच्यते हि सः ॥” १०३॥ “आत्मानं " - शब्द का अर्थ–परमात्मा है । उनकी उपासना करे ।
श्रीमदाविर्होत्र विदेह को कहे थे ॥६३॥
ε२ ]
“भगवन्तं हरिं प्रायो न भजन्त्यात्मवित्तमाः । तेषामशान्तकामानां का निष्ठाऽविजितात्मनाम् ॥१०४॥
इत्येतत्प्रश्नोत्तरम् (भा० ११।५।२-३) -
(६४) “मुखबाहुरूपादेभ्यः पुरुषस्याश्रमैः सह
चत्वारो जज्ञिरे वर्णा गुणैवप्रादयः पृथक् ॥ १०५ ॥ ६३
य एषां पुरुषं साक्षादात्मप्रभवमीश्वरम् ।
न भजन्त्यवजानन्ति स्थानाभ्रष्टाः पतन्त्यधः ॥ १०६ ॥
पूर्वं श्रीदुमिलोपदेशेऽपि देवकृत - श्रीनारायणस्तुतौ (भा० १११४५१०) -
११८ ६४
अग्रिम ग्रन्थ भा० ११।५।१ में व्यतिरेक मुख से श्रीविष्णूप सना का प्रतिपादन किये हैं-
“भगवन्तं हरि प्रायो न भजन्त्यात्मवित्तमाः ।
टोका-
तेषामशान्त कामानां का निष्ठाऽविजितात्मनाम् ॥ १०४ ॥
पञ्चमे भक्ति हीनानां का निष्ठा को युगे युगे ।
पूजा विधिरिति प्रश्नद्वयस्योत्तरमुच्यते ।
त्वां सेवतां सुरकृता बहवोऽन्तराया इत्यनेन श्रीहरिभक्ता विघ्नमूनि पदं दत्त्वा परां गतिं यान्ति । अभक्तानां तु विघ्ना भवन्ति इत्युक्त े तर्हि तेषां का गतिर्भवतीति पृच्छति, भगवन्तमिति । हे आत्म वित्तमाः अविजितात्मनाम् अतएव सान्त कामानों का निष्ठा कि प्राप्यमित्यर्थः ॥ ६ ॥
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आविर्होत्र योगोन्द्र, जिस प्रकार वैदिक एवं तान्त्रिक विधि के अनुसार श्रीविष्णूपासना की वर्णना किये हैं, उस प्रकार भा० ११।५।१ में विदेह के प्रश्नोत्तर में व्यतिरेकमुख से अर्थात् जो लोक श्रीविष्णु भक्ति नहीं करते हैं, उनकी दुर्गति का वर्णन प्रसङ्ग में भी विष्णु भक्ति का अभिधेयत्वस्थापन किये हैं । हैं । प्रश्न का अभिप्राय यह है-
हे आत्मतत्त्वज्ञ चूड़ामणि वृन्द ! प्रायशः मानवगण, भगवान् हरि का भजन नहीं करते हैं, वे सब अजितेन्द्रिय अशान्तकास मानववृन्द की गति क्या होती है ? प्रश्नोत्तर में श्रीचमस योगीन्द्र कहते हैं भा० ११।५।२ – ३ में
(६४) “मुख बाहूरुपादेभ्यः पुरुषस्याश्रमैः सह ।
चत्वारो जज्ञिरे वर्णा गुणैविप्र दयः पृथक् ॥ १०५॥
य एषां पुरुषं साक्षादात्मप्रभव मीश्वरम् 1 नभजन्त्यवजानन्ति स्थानाद् भ्रष्टाः पतन्त्यधः ॥१०६ ॥
[[193]]
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टीका - स्वजनकस्य गुरोर्भगवतोऽनादराद् गुरुद्रोहेण दुर्गंत यान्तीति वक्तुं भगवतः सकाशाद्वर्णा- श्रमाणामुत्पत्तिमाह बुधेति । गुणैः- सत्त्वेनविप्रः । सत्त्वरजोभ्यां क्षत्रियः । रजस्तमोभ्यां वैश्यः,
।
तमसा शूद्र
इति । १। एषां मध्ये ये अज्ञात्वा न भजन्ति ये च ज्ञात्वापि अवजानन्ति । आत्मनः प्रभवोजन्म यस्मात् तम् । तदभजने कृतघ्नतामप्याह ईश्वरमिति । स्थानात् वर्णाश्रमाद् भ्रष्टाः ॥३॥
(GP)
द्वितीय पुरुष के मुख से सत्त्व गुण से ब्राह्मण, सत्त्व रजोगुण से बाहु द्वारा क्षत्रिय, रजस्तमो गुण
से उरुदेश से वेश्य, चरण से तमोगुण विशिष्ट शूद्र की उत्पत्ति हुई है, अर्थात् चारवर्ण की उत्पत्ति हुई है । एवं जघन देश से गृहाश्रम, हृदयदेश से ब्रह्मचर्य्य, वक्षःस्थल से वानप्रस्थ, मस्तक से सन्न्यास आश्रम की
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“त्वां सेवतां सुरकृता बहवोऽन्तरायाः
स्वौको विलङ्घय परमं व्रजतां पदं ते । नान्यस्य वर्हिषि बलीन् ददतः स्वभागान्
धत्त े पदं त्वमविता यदि विघ्नमूनि ॥।” १०७ ॥
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[[६३]]
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इत्युक्तम् । तत्र च यज्ञ े स्वभागान् ददतः सुरकृता विघ्ना न भवन्ति, त्वां सेवमानानां तु मात्सर्येण तत्कृतास्ते भवन्ति, किन्तु ‘यदि’ इति निश्चये - ‘यदि वेदाः प्रमाणम्’ इतिवत् निश्चितमेव त्वं तेषामवितेति त्वां सेवमानो विघ्नमूनि पदश्च धत्त े, प्रत्युत तमेव सोपानमिव उत्पत्ति हुई है । यह चार वर्ण एवं चार आश्रम के मध्य में जो मानव निज पिता एवं गुरु श्रीभगवान् श्रीविष्णु का भजन न करके अनादर करते हैं, वे सब पितृ द्रोही, ईश्वर द्रोही, एवं गुरुद्रोही पातकी होते हैं, उस पातक से वे सब निज निज वर्ण एवं आश्रम से अधः पतित होकर विविध प्रकार गर्भ यातना प्रभृति भोग करते रहते हैं । प्रागुक्त भा० ११।४ । १० में श्रीद्रुमिल कृत उपदेश में देवगणकृत श्रीनारायण की स्तुति प्रसङ्ग में निम्नोक्त विवरण है-
“त्वां सेवतां सुरकृताबहवोऽन्तरायाः
स्वौका विलङ्घय परमं व्रजतां पदं ते । नान्यस्य वर्हिषि बलीन् ददतः स्वभागान् ।
धत्ते पदं त्वमविता यदि विघ्नमूनिः ॥ १०७॥
टीका - अस्माकञ्च अपराधाचरणं स्वभावत्वात् न चित्रमित्याहुः, त्वामिति । त्वां सेवतां सेवमानां सुरैरिन्द्रादिभिः कृता अन्तराया विघ्ना भवन्ति । कस्मादित्यत आहुः स्वौक इति । स्वस्थानं-स्वर्गमतिक्रम्य परमं तब स्थानं व्रजताम् । नान्यस्य त्वामसेवमानस्य । कुतः बर्हिषि यज्ञे स्व भागान् पुरोडाशादीन् बलीन् करान् कृषक् इव राज्ञे इन्द्रादिभ्यो ददतः प्रयच्छतः । तर्हि कि मद् भक्तो विघ्नभ्रं श्यति नेत्याहुः, धत्ते - इति । यदीति निश्चये । यतस्त्वं सर्वसुराधं श्वरोऽदिता रक्षकः अतोऽसौ विघ्नानां मूनि पदमङ्घ्रि धत्ते । कुतः पुनस्त्वाय विघ्नशङ्क ेति भावः ॥ १० ॥ ॥
हे प्रभो ! जो लोक तुम्हारी सेवा करते हैं, दे गण उस में भूरि भूरि विघ्न उपस्थित करते रहते हैं । देवगण, तुम्हारे भक्त गण के प्रति विघ्न उपस्थित करते हैं - उसका कारण यह है, जो लोक तुम्हारे चरण कमल का भजन करते हैं, वे सब देवगण के निज निवास स्थल स्वर्ग लोक को अतिक्रम कर तुम्हारे परम स्थान श्रीवैकुण्ठ लोक गमन करेंगे । देव वृन्द के पक्ष में उक्ताचरण असहनीय है, अतः विघ्न उपस्थित करते हैं ।
किन्तु जो लोक यज्ञादि कर्माचरण करके देवगण के प्राप्य कर प्रदान करते हैं, उनके प्रति विघ्न उपस्थित देवगण नहीं करते हैं । केवल विष्णु भक्त गण के प्रति विघ्नाचरण करते हैं, उसका कारण है- परश्री कातरता रूप मात्स । किन्तु उक्त विद्याचरण से भक्तगण को क्षति नहीं होती है. कारण, भक्तप्रिय तुम हो, समस्त निष्काम भक्त की रक्षा तुम स्वयं करते हो, अतः देवगण कृत विघ्न के मस्तकोपरि पद धारण कर वे सब आनन्दमय वैकुण्ठारोहण करते हैं ।
“त्वमविता यदि विघ्नमूनि’ श्लोक में ‘यदि’ शब्द का प्रयोग निश्चयार्थ में हुआ है । “यदि वंदाः प्रमाणंस्युः” यहाँ जिस प्रकार यदि शब्द निश्चयार्थक है, उस प्रकार ही, यहाँ ‘यदि’ शब्द का प्रयोग निश्चयार्थ में द्वआ है। तुम्हारे भक्त वृन्द को देगगण कृत विघ्न से अनिष्ट नहीं होता है, प्रत्युत विघ्नसमूह,
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कृत्वा व्रजतीत्यर्थः । तदेवं श्रुत्वा संसार एव तिष्ठतां यत् पर्य्यवसानं भवेत्तत् पृष्ट’ ‘भगवन्तम्’ इत्यादिना । तत्रोत्तरयत् प्रथमं तेषां प्रत्यवायित्वमाह - मुख’ इति पादोनद्वयेन, पर्यवसानमाह–‘स्थानात्’ इति पादेन ॥ श्रीचमसो विदेहम् ॥