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अग्रे च कर्म्मादीन् परिहरन् साक्षाद्भक्तिमेव विधत्ते (भा० ११।३।४४-४७) -
(६२) “परोक्षवादो वेदोऽयं बालानामनुशासनम् । (६२)
कर्म्ममोक्षाय कर्माणि विधत्ते ह्यगदं यथा ॥ ६६॥
नाचरेद्यस्तु वेदोक्तं स्वयमज्ञोऽजितेन्द्रियः । विकर्म्मणा ह्यधर्मेण मृत्योर्मृत्युमुपैति सः ॥ १०० ॥ वेदोक्तमेव कुर्वाणो निःसङ्गोऽपितमीश्वरे ।
गीतानि नामानि तदर्थकानि, गायन् विलज्जो विचरेदसङ्गः ॥ ६८ ॥
टीका - " एतदत्यन्ताशक्यमित्याशङ्कय सुगमं मार्गमाह - शृण्वन्निति । तदर्थकानि तान्येव जन्मानि कर्माणि च अर्थो येषां तानि । एतान्यपि साकल्येन ज्ञातुमशक्यानीत्याशङ्कय ह । यानि लोके गीतानि प्रसिद्धानि तानि शृण्वन् गायंश्च विचरेत् । असङ्गो निःस्पृहः ॥
हे राजन् ! चक्रपाणि श्रीकृष्ण के समस्त कर्म, एवं जो सब जन्म कर्म लौकिक भाषा में निबद्ध हैं, उन सब नामों का तात्पर्य श्रीभगवान् श्रीकृष्ण ही हैं, उन सब नाम का श्रवण एवं गान करते करते लोकापेक्षा रहित होकर सर्वत्र अनासक्त भाव से विचरण करे ।
श्लोकोक्त " तदर्थ कानि” शब्द का अभिप्राय यह है, जो सब नामों का तात्पर्य्य, शब्दार्थ मूलक कर्म में है, एवं भगवान् के उन सब जन्म में ही है, उनसब नामों का श्रवण, एवं गान करते करते निर्लज्ज होकर अर्थात् लोक मुझ को क्या कहेगा, इस प्रकार लोक समर्थन प्राप्त करने की अपेक्षा नहीं रहती है। इस अवस्था में विचरण करे । इस में संशय उपस्थित होता है कि-श्रीभगवान् के नाम, जन्म, कर्म, प्रभृति अनन्त हैं, अतएव परिपूर्ण रूप से श्रीकृष्ण के नाम, जन्म, कर्म्म को कोई नहीं जान सकते हैं ? इस प्रकार आशङ्का परिहार हेतु कहते हैं, - “यानि लोके गीतानि” अर्थात् भगवान् के जो जन्म, कर्म, नाम लोक में प्रसिद्ध हैं, उन सब नामों का श्रवण एवं गान करते करते विचरण करे। उक्त जन्म, कर्म, नाम समूह का श्रवण, गान करते करते ही सर्व वासना का क्षय होगा । “असङ्ग” शब्द का अर्थ निःस्पृह है । अर्थात् उक्तानुशीलन के द्वारा विनिमय पद्धति से जागतिक नश्वर वस्तु संग्रह की इच्छा को परित्याग करे । अन्यथा प्रसिद्ध रीति से त्याग के परिवर्त में लोक समर्थन प्राप्त होगा, ईश्वर प्रीति नहीं ।
श्रीकवि- विदेह को कहे थे ॥ ६१॥
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अग्रिम ग्रन्थ में काम्य कर्मादि का परि हार करते हुये साक्षात् भक्ति का ही प्रति पादन करते
हैं । भा० ११।३।४४-४७
(६२) “परोक्षवादो वेदोऽयं बालानामनुशासनम् ।
कर्म्ममोक्षाय कर्माणि विधत्ते ह्यगदं यथा ॥६६॥ नाचरेद्यस्तु वेदोक्तं स्वयमज्ञोऽजितेन्द्रियः । विकर्म्मणा ह्यधर्मेण मृत्योर्मृत्युमुपैति सः ॥ १००॥
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श्रीभक्ति सन्दर्भः
नैष्कर्म्यं लभते सिद्धि रोचनार्थी फलश्रुतिः ॥ १०१ ॥
आशु हृदयग्रन्थिं निजिहीर्षुः परात्मनः ।
क
विधिनोपचरेद्दवं तन्त्रोक्तेन च केशवम् ॥ १०२ ॥ इत्यादि ।
परोक्षेति टीका च - “यत्रान्यथा स्थितोऽर्थः संगोपयितुमन्यथा कृत्वोच्यते, स परोक्षवादः, तथा च श्रुति; (ऐत० १।३।१४ ) " तं वा एतं चतुहतं सन्तं चतुर्होतेत्याचक्षते परोक्षेण । परोक्षप्रिया इव हि देवाः” इति । परोक्षवादत्वमेवाह– कर्ममोक्षायेति । ननु स्वर्गाद्यर्थं कर्माणि विधत्ते, न कर्म्म मोक्षार्थम्, तत्राह–बालानामनुशासनं यथा तथा । अत्र दृष्टान्तः–
। वेदोक्तमेव कुर्वाणो निःसङ्गोऽपतमीश्वरे ।
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नष्क्रम्य लभते सिद्धि रोचनार्था फलश्रुतिः ॥ १०१ ॥ ॥
य आशु हृदयग्रन्थि निर्जिहीर्षुः परात्मनः ।
विधिनोपचरेद्दवं तन्त्रोक्तेन च केशवम् ॥” १०२ ॥ इत्यादि
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टीका - दुर्ज्ञेयं वेद तात्पर्य्यमाह - परोक्ष बाद इति । यत्त्रान्यथा स्थितोऽर्थः सङ्गोषयितुं मन्यथा कृत्वोच्यते स परोक्षवादः । तथा च श्रुतिः । तं वा एतं चतुर्हतं सन्तम् । चतुर्होते त्याचक्षते परोक्षेण । परोक्ष प्रिया इव हि देवा इति । परोक्षव दत्व मेवाह - कर्ममोक्षायेति । ननु स्वर्गाद्यथं कर्माणि विद्यते न कर्म- मोक्षार्थं तत्राह - बालानामनुश सनं यथा भवति तथा । अत्र दृष्टान्तः । अगदमौषधम् । यथा पिता बालम्, अगदं पाययन् खण्डलड्डुकादिभिः प्रलोभयन् पाययति ददाति च तानि । नैतावता अगदपानस्य तल्लाभः प्रयोजनम्, अपितु आरोग्यम् । तथा वेदोऽप्यवान्तर फलंः प्रलोभयन् कर्ममोक्षायैव कर्माणि विधत्ते ॥४४ ॥
।
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अन्य उद्देश्य से जो कुछ कहा जाता है, उसे परोक्षवाद कहते हैं, श्रुति का कथन भी उस प्रकार ही होता है । चार आहूति जिस में है, उस को चतुहोता कहते हैं । परोक्ष भाव से प्रसङ्ग करना ही परोक्ष प्रिय वेद का स्वभाव है । वह परोक्ष वाद क्या है ? अर्थात् वेद काम्य कर्म का कथन किस अभिप्राय से करते हैं—उसको कहते है, “कर्म मोक्षाय” अर्थात् कर्मापक्ति परित्याग हेतु कर्मानुष्ठान करने के निमित्त वेद आदेश करते हैं । कह सकते हैं कि- वेद, स्वर्गादि फल प्राप्ति हेतु भूरि भूरि काम्य कर्माचरण का उपदेश देते हैं, कर्मासक्ति त्याग हेतु वेद का कोई आदेश तो है ही नहीं है। इस प्रकार आक्षेप निरसन हेतु कहते हैं, ‘बालानां अनुशासन” अर्थात् पिता, जिस प्रकार बालक को औषध सेवन कराने के निमित्त खण्डलड्डुकादि द्वारा प्रलोभित करके औषध सेवन कराते हैं। उक्त खण्डलड्डुकादि प्रदान करना अथवा औषध सेवन कराना ही पिता का उद्देश्य नहीं है, किन्तु व्याधि से निर्मुक्त करना ही पिता का मुख्य तात् पर्य्य है, उस प्रकार वेद भी आनुषङ्गिक फल समूह की वार्त्तावली का उल्लेख द्वारा प्रलोभित करके कर्मासक्ति त्याग कराने के अभिप्राय से ही काम्य कर्मानुष्ठान करने का आदेश देते हैं । अनन्तर ‘नाच रेल् यस्तु” का अथ करते हैं । उक्त कथन से जिज्ञासा हो सकतो कि - काम्य कर्म परित्याग करना ही यदि पुरुषार्थ होता है तो, प्रथम अवस्था से ही कर्म त्याग का विधान क्यों नहीं देते हैं ? उत्तर में कहते हैं- “नाचरेत् यस्तु वेदोक्त”" मानव जब तक अज्ञ रहेगा, – अर्थात् श्रीभगवत् कथा श्रवण कीर्तनादि में दृढ़ विश्वास प्राप्त नहीं करेगा, तब तक उस को काम्य कर्म करना पड़ ेगा । श्लोकस्थ “अज्ञः " पद का अर्थ ज्ञा जिसका, नहीं है, अर्थात् श्रीहरि कथा में जिसका विश्वास नहीं है । इस प्रकार अर्थ किया गया है, अतएव श्रीहरि कथा श्रवणादि में श्रद्धा न होने के कारण भक्ति में प्रवृत्ति नहीं होता है । उस प्रकार ही अजितेन्द्रिय अर्थात् ब्रह्म जिज्ञासु होकर पारमेष्ठ्चसुख पर्यन्त योग में विरक्ति यदि नहीं होती है, तोश्रीभक्ति सन्दर्भः
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अगदमौषधम्, यथा पिता बालमगदं पाययन् खण्डलड्डुका दिभिः प्रलोभयन् पाययति ददाति च तानि खण्डलड्डुका दीनि, नैतावता अगदस्य तल्लाभः प्रयोजनमपि त्वारोग्यम्, तथा वेदो- ऽप्यवान्तर फलैः प्रलोभयन् कर्म्ममोक्षायैव कर्माणि विधत्ते" इत्येषा । नाचरेदिति टीका च - “ननु कर्म्ममोक्षश्चेत् पुरुषार्थस्तहि प्रथममेव कर्म्म त्यज्यताम्, अत आह– नाचरेदिति” इत्येषा । ‘अज्ञः’ न विद्यते ‘ज्ञा’ श्रीभगवतः कथाश्रवणादौ श्रद्धा-लक्षणा धीर्वृत्तिर्यस्य सः, अतएव तस्मिन् न प्रवर्त्तत इत्यर्थः । तथैवाजितेन्द्रियो ब्रह्मजिज्ञासुः सन् पारमेष्ठ्च- पर्यन्त- भोगे विरक्तो वा न भवतीत्यर्थः, (भा० १२/२०१६) “तावत् कर्माणि कुर्वीत” इत्यादौ परस्पर निरपेक्षयोः श्रद्धाविरक्तयोर्द्वयोरेव तत्तन्मय्यदात्वेनोक्तेः । विकर्म्मणा विहिताकरणरूपेण मृत्योरनन्तरं मृत्यु मरणतुल्यां यातनामुपैति, पुनः पुनर्भरणमुपेति यातनाञ्चोपतीत्यर्थः । अतस्तेषां विहित कर्मत्यागे कथञ्चिन्न निस्तारः । ईश्वरप्रयोजक कर्त्ती कस्य कर्म्मण ईश्वरार्पणलक्षण- यथार्थानुष्ठानेन तत्प्रसादे त्वसौ सुतरामेव स्यादित्याह - वेदोक्तमिति । तस्माद्-
मनुष्यमात्र का अवश्य कर्तव्य है कि वह वेदोक्त काम्य कर्मानुष्ठान अवश्य करे । कारण - भा० १०० २. 18 में उक्त है ।
“तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता ।
मत्कथा श्रवणादौवा श्रद्धा यावन्नजायते ॥”
टीका - “सार्वाध कर्मयोगमाह । तावदिति नवभिः । कर्माणि नित्य नैमित्तिकानि । यावता यावत्
॥”
हे उद्धव ! तावत् काल पय्यंन्त ज्ञानी को काम्यकर्म करना पड़ेगा, यावत् काल पर्य्यन्त पारमेष्ठ्य सुखादि में हेय बुद्धि नहीं होती । भक्त को भी तब तक काम्य कर्मानुष्ठान करना होगा जब तक श्रीभागवत् कथा श्रवण कीर्त्तनादि में दृढ़ विश्वास उत्पन्न नहीं होता है, उक्त श्लोक में लिखिल-श्रद्धा एवं विरक्ति पदद्वय - परस्पर निरपेक्ष हैं । अर्थात् श्रद्धा, विरक्ति की अपेक्षा नहीं रखती है, एवं विरक्ति भी श्रद्धा की अपेक्षा नहीं रखती है। श्रद्धा एवं विरक्ति को इस प्रकार सीमा निद्दिष्ट है । अर्थात् ऐहिक पारलौकिक समस्त सुख में विरक्ति जब तक नहीं होती है, तब तक ज्ञानी को काम्य कर्मानुष्ठान करने के निमित्त आदेश दिया है । श्रीहरि कथा श्रवणादि में जब तक श्रद्ध नहीं होती है, तब तक काम्य कर्मानुष्ठान करने के निमित्त भक्त को आदेशा दिया गया है। उक्त ज्ञानी एवं भक्त - यदि सीमा प्राप्त न कर अर्थात् ब्रह्म जिज्ञासु ज्ञानी, ऐहिक पारत्रिक सुखभोग में विरक्त न होकर काम्य कर्म त्याग करता है, एवं भक्त, श्रीहरि कथा श्रवण कीर्तनादि में श्रद्धा प्राप्त न कर काम्य कर्म परित्याग करता है तो, वेद विहित कर्म का अननुष्ठान वशतः विकर्मानुष्ठान दोष होता है, उस से मृत्यु के पश्चात् मृत्युरूप यातना भोगनी पड़ती है, अर्थात् पुनः पुनः मृत्यु एवं जन्म यातना मिलती रहती है। उक्त श्लोक का इस प्रकार अर्थ समझना होगा। अतएव कर्मत्याग विषय में अनधिकारी व्यक्ति वेद विहित कर्म परित्याग करने पर किसी प्रकार से निस्तार नहीं है । जिस कर्म का प्रयोजक कर्त्ता ईश्वर हैं, उस कर्म का अपण ईश्वर में करने से उस कर्म का अनुष्ठान यथार्थ होता है, अतएव श्रीभगवत् प्रसन्नता प्राप्त करने से मृत्यु यातना का भोग नहीं होता है। उक्त विवरण का कथन “वेदोक्तमेव कुर्वाणः’ श्लोक के द्वारा करते हैं । उस की व्याख्या करते हैं, अतएव वेदोक्त कर्माचरण ही करे। कभी भी वेद निषिद्ध कर्माचरण न करे । एवं उक्त वेद विहित कर्म फल भगवान् को अर्पण करने से कर्म बन्ध का अगोचर नैष्कर्म्म लाभ होता है । अर्थात् श्रीभगवान् में कर्मार्पण कर
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वेदोक्तमेव कुर्वाणो न तु निषिद्धम्, नैष्कर्म्या’ कर्मबन्धागोचरतारूपां सिद्धि लभते । ननु कर्मणि क्रियमाणे तस्मिन्नासक्तिस्तत् फलञ्च स्यात्, न तु नैष्कर्मरूपा सिद्धिरत आह- निःसङ्गोऽनभिनिवेशवान् । ईश्वरे तन्निमित्तमेव तत्रापितम्, न तु फलोद्देशेन । ननु फलग्य श्रुतत्वात् कर्मणि कृते फलं भवेदेव, न रोचनार्थेति कर्मणि रुच्युत्पादनार्था, अगदपाने खण्डलड्डुका दिवत् । ततश्च कर्माभिरुच्या वेदार्थं सम्यग्विचारयति । तदा च ( वृ० ३३८ १०) “यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात् प्रति स कृपणः” इत्यनेनाब्रह्मज्ञस्य कृपणताम्, ( वृ० ४।४।२२) " तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति ब्रह्मचर्येण" इत्यादिना यज्ञादीनां ज्ञानविशेषताञ्चावधाय्यं निष्कामेषु कर्मसु प्रवर्त्तते । ततः ‘स्वर्गकामो यजेत" इत्यादिभिः कामितस्यैव स्वर्गादेः फलत्वेनावगमादकामितोऽसौ न भवतीति नैष्कर्म्यसिद्धिः स्वतः एव भवतीति स्थिते किमुत श्रीमदीश्वरार्पणेन तत्प्रसादे सतीत्यर्थः । तदेवं विलम्बेनैव नैष्कर्म्य- कर्मानुष्ठान करने से कर्म बन्धन निवृत्त हो जाता है, एवं ऐहिक पारलौकिक सुख भोग में वितृष्णा होती
। संशय हो सकता है कि - कर्म करने से ही कर्म में आसक्ति अवश्य होती है एवं उक्त कर्मानुष्ठान जनित फललाभ भी अवश्यम्भावी है । अतः कर्म बन्ध निवृत्ति एवं विषय वितृष्णा रूप सिद्धि लाभ कैसे सम्भव होगा ? उत्तर में कहते हैं । “निःसङ्गोऽपितमीश्वरे” निःसङ्ग- अभिनिवेश शून्य होकर कर्म करे । एवं उक्त कर्म का फल ईश्वर सन्तोष ही है, इस प्रकार सङ्कल्प मन में रखना चाहिये । किन्तु अपर किसी प्रकार फल प्राप्ति की अभिसन्धि से कर्म न करे ।
कह सकते कि - शास्त्रोक्त कर्म फल समूह की प्राप्ति कर्मानुष्ठान कारी को अवश्य होगी कारण, शास्त्रोक्त कर्म फल कथन सत्य है । उत्तर में कहते हैं-नहीं, भगवत् सन्तोषार्थ कर्मानुष्ठान करने से उस कर्म का फल भगवत् सन्तोष ही होगा, अन्य फल नहीं होगा । तब शास्त्र में जो फल वर्णन है, वह अज्ञ व्यक्ति को कर्म में प्रवृत्त कराने के निमित्त है, औषध सेवन में बालक को खण्डलड्डुकादि से लुब्ध कराने के समान है । कर्मानुष्ठान में अभिरुचि उत्पन्न होने से वेद तात्पर्य का सम्यक् आलोचन करने की योग्यता होती है। उस समय “योवा कृपणः तमेतं” प्रभृति श्रुतिका अवलोकन होता है-अर्थात् हे गार्गी ! जो व्यक्ति परमात्मा को न जानकर इस लोक से चला जाता है वह कृपण है, अर्थात् आत्मवञ्चक है । इस प्रकार श्रुति के द्वारा विभु चैतन्य विषयक ज्ञान होन जन कृपण होता है। एवं ब्राह्मणगण’ उन परमात्मा को वेदानु वचन के द्वारा जानने की इच्छा करते हैं । ब्रह्मचर्य प्रभृति अनुष्ठान के द्वारा यथार्थतः परमात्म तत्त्व ज्ञान लाभ नहीं होता है, इस रीति से श्रुति की समालोचना करने पर बोध होता है कि-यज्ञादि कर्म का पर्यवसान ज्ञान में ही है । इस प्रकार विशेष उपलब्धि होने पर निष्काम कर्म में प्रवृत्ति होती है । अर्थात् कर्मानुष्ठान के निमित्त वैदिक आदेशों का तात्पर्य है, निष्काम भाव से कर्मानुष्ठान करना इस रीति से कर्मानुष्ठान करते करते ब्रह्म तत्त्व ज्ञात होने का अधिकार होता है।
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अतएव “स्वर्गकामो यजेत” अर्थात् स्वर्गलाभ हेतु कामना करके यज्ञ करे, इत्यादि श्रुति वाक्य के द्वारा स्वर्ग कामना का जो उल्लेख है, उसका तात्पर्य यह है कि जो स्वर्गप्राप्ति हेतु कामना करके कर्म करता है, उस की स्वर्ग प्राप्ति हो तो, किन्तु जो व्यक्ति स्वर्ग प्राप्ति की कामना नहीं करता है, उस के पक्ष में स्वर्ग फल रूप में उपस्थित नहीं होगा । एतज्जन्य निष्काम साधक, स्वभावतः ही नैष्कर्म्यसिद्धि सम्पन्न होता है, अर्थात् ऐहिक पारलौकिक सुख भोग के प्रति वितृष्ण होता है । इस प्रकार सिद्धान्तस्थिर होने पर
[[१]]सिद्धेर्हेतुमुक्त्वा, (भा० ४।६१।१४) “यथा तरोर्मू लनिषेचनेन” इति न्यायेन सर्व्वधर्मपर्याप्ति- हेतु नेष्कर्म्यसिद्धिसाध्य - हृदयग्रन्थिभेदनस्यापि शीघ्रोपायं स्वातन्त्र्येणाह-य आश्वितिः य आशु शीघ्रमेव देहद्वयात् परस्यात्मनो जीवस्य हृदयग्रन्थि देहाहङ्कारं निर्हतुमिच्छुर्भवति. स त्वन्यत् कर्मादिकं स्वरूपतः एव त्यक्त्वा तन्त्रोक्तेनागम-मार्गेण, च-काराद्वेदोत्तन च विधिना प्रकारेण केशवं देवमर्चयेत् ॥