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ननु तथापि मनो निरोधरूपेण योगाभ्यासेन भक्तिकैवल्य व्यभिचारः स्यादित्याशङ्कय भक्तैयव क्रियमाणया तदासक्तत्वेन स्वत एव मनोनिरोधोऽपि स्यादिति तन्मात्रतोपायमाह द्वितीयेन ( भा० ११॥३९) -

(६१) “शृण्वन् सुभद्राणि रथाङ्गपाणे, जंग्माणि कर्माणि च यानि लोके ।

अथच सर्वदा भगवान् को हृदय में स्थापन न करने से अभय लाभ भी नहीं होगा ? उत्तर में कवि योगीन्द्र कहते हैं । विषय नामक कोई वास्तव वस्तु नहीं है । किन्तु जड़ीय पदार्थ के सहित मानस सङ्कल्प स्थापन ही विषय है । अतएव जड़ीय पदार्थ के सहित मानस सङ्कल्प निरोध कर श्रीभगवान् का भजन करने से ही अभय प्राप्ति होती है । यद्यपि द्वैत पदार्थ की स्थिति आत्मा में नहीं है, तथापि अनवरत जड़ीय पदार्थ की सङ्कल्प कारिणी बुद्धि के द्वारा ही विषय, हृदय में प्रकाशित होता है ।

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जिस प्रकार स्वप्न में व्याघ्र, सर्प, रथ, प्रभृति विद्यमान न होने पर भी मानस सङ्कल्प में प्रतिभात होते हैं, अथवा जाग्रत् अवस्था में मानस अभिनिवेश होने पर विषयान्तर का ध्यान करते करते यथावस्थित देहानुसन्धान नहीं रहता है, एवं विषयान्तर में मन आविष्ट हो जाता है । व्यवहारिक विषय समूह में हो इस रीति को जानना होगा । अतएव जो सतत जड़ीय विषय का सङ्कल्प एवं विकल्प कर रहा है, उस सन को निरोध करने से ही हृदय में अव्यभिचारिणी भक्ति होती है, अर्थात् हृदय में श्रीहरि भिन्न अपर वस्तु की स्फूर्ति न होने के कारण, भक्ति का उदय हो सकता है, एवं उस अव्यभिचारिणी भक्ति से अभय लाभ भी होता है।

मूल श्लोकस्थ “द्वयः” शब्द का अर्थ प्रधानादि द्वैत प्रपञ्च है । यद्यपि अविद्यमान अर्थात् विशुद्ध आत्मस्वरूप में द्वैत प्रपञ्च नहीं है, इस प्रकार अर्थ जानना पड़ेगा, तथापि अविद्यामय ध्यान युक्त ध्यान कारी का सङ्कल्प सत्य रूप से प्रकाशित होता है । अर्थात् वह विशुद्ध जीव चैतन्य भी कल्पित ही हो जाता है। इस प्रकार अर्थ ही सुसङ्गत है । जिस प्रकार स्वप्न में एवं मनोरथ में वस्तुतः केवल मानस सङ्कल्प के आवेश से असत् पदार्थ सत् रूप में प्रतिभात होकर मन प्रभाव विस्तार करता है, यहाँपर भी उस प्रकार जानना होगा । अतएव विविध कर्म का सङ्कल्प कारी एवं विकल्प कारी मनको नियन्त्रित करे । मन को संयत करने में समर्थ होने पर अव्यभिचारिणी भक्ति के द्वारा भगवान् का भजन करने से अभय उपस्थित होता है । उक्त श्लोक का यह अभिप्राय है ॥६०॥

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इस प्रकार कथन से सन्देह उपस्थित होता है कि-योगाभ्यास का लक्ष्य है, मनोनिरोध, उक्त योगाभ्यास का अनुशीलन करने से अव्यभिचारिणी भक्ति नहीं होगी। कारण, केवलाभक्ति, विलीन होकर योगमिश्रा भक्ति में पर्य्यवसित होगी। इस प्रकार संशय करके कहते हैं-, अनुष्ठित भक्ति के द्वारह श्रीभगवान् में आसक्ति होने से अथवा भजनानुष्ठान में आसक्ति होने से उस से ही स्वभावतः मनोनिरोध होता है । इस अभिप्राय से ही केवल भक्ति मात्र को ही उपाय मान कर भा० ११।२।३६ में श्रीकवियोगीन्द्र ने कहा-

(६१) “शृण्वन् सुभद्राणिरथाङ्गपाणे, जन्मानि कर्माणि च यानि लोके 150

भोभक्तिसन्दर्भः

गीतानि नामानि तदर्थकानि, गायन् विलज्जो विचरेदसङ्गः ॥ ६८ ॥

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टीका च - " तदर्थकानि तानि जम्मानि कर्माणि चार्थो येषां तानि नामानि । एतान्यपि साकल्येन ज्ञातुमशक्यानीत्याशङ्कयाह – यानि लोके गीतानि प्रसिद्धानि तानि शृण्वन् गायंश्च विचरेत् । असङ्गो निस्पृहः” इत्येषा ॥ श्रीकविर्विदेहम् ॥