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भा० ११।२।३६ में लिखित “कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा श्लोक के अनुसार काय, वाक्य, मन एवं इन्द्रिय समूह के द्वारा अनुष्ठित शास्त्रीय एवं लौकिक कर्म समूह का अर्पण भगवान् को करने से वह भागवत धर्म होता है । इस में नैरन्तर्य भी सम्भव है, अर्थात् सर्वदा कर्म करना जीव का स्वभाव है । तथापि केवल श्रवण कीर्त्तन दि लक्षणा भक्ति का अनुष्ठान ही सर्वदा करे। इस में विरोध उपस्थित होता है । तज्जन्य श्रवण कीर्त्तनादि लक्षणा भक्ति का अव्यभिचारित्व, अर्थात् सार्वदिकत्व को कहते हैं, एवं केवल मात्र भगवद् भक्ति का ही अनुष्ठान करे- ज्ञान कर्मादि का अनुष्ठान न करे- इस को कहते हैं जिस प्रकार से सर्वदा भक्ति अनुष्ठान किया जा सकता है, एवं केवल मात्र भक्ति अनुष्ठान में रत होना सम्भव होता है, उसका उपाय, अग्रिम इलोकद्वय के द्वारा कहते हैं ।
उस के मध्य में सर्वदा भगवान् में चित्त स्थिर हो, अर्थात् लय, विक्षेपादि द्वारा भगवान् से चित्त विचलित न हो, उसका उपाय भा० ११२२३८ प्रथम श्लोक के द्वारा कहते हैं।
(६०)
" अविद्यमानोऽप्यवभाति हि द्वयो, ध्यातुधिया स्वप्न- मनोरथौ यथा । तत् कर्म्म सङ्कल्पविकल्पकं मनो, बुधो निरुन्ध्यादभयं ततः स्यात् ॥ ६७॥
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टीका - ननु विषय विक्षिप्त चित्तस्य कुतोऽव्यभिचारिणी भक्तिः सम्भवति कुतस्तरामभयं ? तत्र न तावद्विषयोनाम वास्तवोऽस्ति किन्तु मनोविलासोमात्रम्, अतो मनोनियमनेन भजनात् अभयं स्यादित्याह अविद्यमानोऽपीति । द्वयम् - द्वैत प्रपञ्च ध्यातुः पु’सोधिया - मनसा, स्वप्नश्च मनोरथञ्च यथेत्यर्थः । तत्- तस्मात् कर्माणि, सङ्कल्पयति विकल्पयति च यन्मनस्तन्निरुध्यात्- नियच्छेत् । ततश्चैकया भक्तचा भजनादभयं स्यादित्यर्थः ॥३८॥
जिस का चित्त, विषय वासना से विक्षिप्त है, उस के पक्ष में श्रीभगवान् में अव्यभिचारिणी भक्ति कैसे हो सकती है ? अर्थात् विक्षिप्त चित्त व्यक्ति, श्रीभगवान् को हृदय में कैसे स्थापन कर सकता है ?
[[८६]] ध्यातुर विद्यामयध्यानयुक्तस्य सतस्तस्य धिया अवभाति, तस्मिन् शुद्धेऽपि कल्प्यत एवेत्यर्थः, यथा स्वप्नो मनोरथश्च तथेत्यर्थः । ‘तत्’ तस्मात् कर्माणि सङ्कल्पयत विकल्पयति च यन्मनस्तन्नियच्छेत्, ततश्चाव्यभिचारिण्या भक्तचा भजनादभयं स्यादिति भावः ॥