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वर्णाश्रमाचारकथनारम्भे नरमात्र धर्मकथनेऽपि ( भा० ७।११।७) -
(५८) “धर्म्ममूलं हि भगवान् सर्ववेदमयो हरिः ।
स्मृतञ्च तद्विदां राजन् येन चात्मा प्रसीदति ॥ ६३ ॥ धर्मस्य मूलं प्रमाणं भगवान्, यतः सर्व्ववेदमयः स्मृतं स्मृतिश्च तद्विदां वेदमय- भगवद्विदां तस्य प्रमाणम् । आभ्यां तद्बहिर्मुखधर्मस्यापार्थत्वं भगवद्धस्यैवावश्यकत्वञ्चोक्तम् । अतएव ( मनु० १-६ ) –
कोध प्रभृति को जय करने के निमित्त, भक्तवृन्द, कभी भी भक्तयङ्गरूप गुरु शुश्रूषा प्रभृति को परित्याग करके उपायान्तर का अवलम्बन नहीं करते हैं। भक्ति का स्वभाव यह है कि-भक्ति के द्वारा काम, क्रोध प्रभृति वासना वीज का परिचायक राजस, तामस भाव विनष्ट होने पर भी भक्ति साधन के प्रति आवेश में शैथिल्य नहीं होता है । कारण, निरुपाधि भक्ति-भक्ति में आविष्ट करा देती है, फलान्तरानु सन्धान करने नहीं देती । कारण, भक्त, श्रीभगवान् को छोड़कर नहीं रह सकता, भक्त का भक्ति के सहित साक्षात् सम्बन्ध है । एवं भक्ति का सक्षात् सम्बन्ध श्रीभगवान् के सहित है । एतज्जन्य, भक्तगण, भक्ति करके ही सुखी होते हैं ।
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श्रीप्रह्लाद - असुर बालक वृन्द को कहे थे । ५७ ॥
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भा० ७।११।७ के वर्णाश्रमाचार कथन प्रसङ्ग में श्रीयुधिष्ठिर को देवर्षि नारद, मनुष्य मात्र
के पक्ष में अवश्य आचरणीय धर्म का वर्णन किये हैं ।
(५८) “धर्ममूलं हि भगवान् सर्ववेदमयो हरिः ।upay स्मृतञ्च तद्विदां राजन् येन चात्मा प्रसीदति ॥ ६३ ॥
टीका - प्रथमं तावद्धर्मे प्रमाणमाह धर्मेति । धर्मस्य मूलं प्रमाणं, स्मृतञ्च स्मृतिः, तहि दां वेदविदां, येन धर्मेण च आत्मा, मनः प्रसीदति तुष्यति । तथाच याज्ञवल्क्यः, श्रुतिः स्मृतिः सदाचार स्वस्य च प्रिय मात्मनः । सम्यक् सङ्कल्पजः कामो धर्म मूलमिदं स्मृतमिति । मनुश्च वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम् । आचारश्चैव साधूनाम्, आत्मनस्तुष्टिरेव चेति ॥७॥
हे राजन् ! जिस धर्माचरण के द्वारा आत्म प्रसाद लाभ है, उस धर्म समूह का मूल प्रमाण ही श्री- भगवान् हैं, एवं साक्षात् सकल वेदमूत्ति हैं, भगवत्तत्त्वाभिज्ञ व्यक्ति इस रीति से कर्त्तव्या कर्त्तव्य निर्णय विषय में स्मृति को भी प्रमाण रूप से अङ्गीकार करते हैं।
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श्रुति एवं स्मृति के द्वारा भगवद्बहिर्मुख धर्म का मिथ्यात्व एवं भगवद् धर्म का अवश्य कर्त्तव्यत्व कीर्तित हुआ है । अतएव वेद, अखिल धर्म का मूल है। भगवत् तत्त्वाभिज्ञजन गण की स्मृति, सौशील्य, साधुवृन्द का आचरण, एवं आत्म प्रसाद भी वेदानुगत होने के कारण प्रमाण है, मनुस्मृति वाक्य से एवं देवर्षि नारद कर्त्तृक श्रीयुधिष्ठिर महाराज को वर्णाश्रमोचित आचार वर्णन प्रसङ्ग में उक्त विषय प्रति हुआ है। वह सत्य है, कारण- सर्ववेद मूल श्रीभगवान् ही धर्म उक्तका मूल प्रमाण हैं । भा० १।१।२ में
“धर्मः प्रोज्झित कैतवोऽत्रपरमो निर्मत्सराणां सतां ।
प्रादित हुआ
वेद्यं वास्तवमत्रवस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् ।
श्रीमद् भागवते महामुनिकृते किं वा पररीश्वरः,
सद्यो ह्यद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत् क्षणात्
““श्रीभक्ति सन्दर्भः
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“वेदोऽखिलो धर्म्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम् । आचारश्चैव साधुनामात्मनस्तुष्टिरेव च ॥ ६४ ॥ इति मनुस्मृतिवाक्यादप्यत्र विशिष्टतयोपदिष्टम् । तच्च युक्तम्, (भा० ११११२) " धर्मः प्रोज्जित- कैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां, वेद्य वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् " इत्युक्तत्वात् । येनैव धर्मेण आत्मा मनः प्रसीदतीत्यनेन (भा० ११२२६) “ययात्मा सुप्रसीदति” इतिवत् ‘सु’ शब्द विशिष्टतयानुक्तत्वात्तच्छ्रवणादिलक्षणसाक्षाद्भक्तेरेव प्रशस्तत्वच बोधितम् । तत्तत् सर्व्वधर्मकथनान्ते तु स्वयमेव स्वस्य प्रथमे गन्धर्व्वजातौ जन्मन्यानुषङ्गिकं भगवद्गान- ‘मात्रं सत्कर्मोक्त्वा द्वितीये च शूद्रजातौ जन्मनि सत्सङ्गज-श्रवणादिमात्रं तदुक्त्वा स्वस्य तादृश-भगवत् पार्षदत्व पर्य्यन्तफलप्राप्तथाविधमपि स्वधर्मलक्षणं करणान्तरं नादृतवान् ।
निर्मत्सर साधुवृन्द के धर्मार्थकाममोक्षवाञ्छारूप ६ पटता शून्य धर्म का वर्णन है । इस प्रकार उल्लेख होने के कारण, जिस धर्म के द्वारा मनः प्रसन्न होता है, “येन चात्मा प्रसीदति” इस प्रकार उपदेश होने के कारण एवं श्रीमद् भागवत के १।१।११ श्लोक में “ब्रू हि भद्राय भूतानां येनात्मा सुप्रसीदति” प्रश्न हुआ है, उस के उत्तर भा० १।२।६ में है-
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सवै पुंसां परोधर्म यतो भक्तिरधोक्षजे । अहैतुक्य प्रतिहता ययात्मा सु प्रसीदति ॥
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श्रीसूत की इस उक्ति में ‘सु प्रसीदति’ शब्द का प्रयोग हुआ है । ‘प्रसीदति’ क्रिया के पहले सु शब्द का प्रयोग हुआ है । इस से सुस्पष्ट प्रतीति होती है कि - देवर्षि नारद ने महाराज युधिष्ठिर को वर्णाश्रम धर्म का उपदेश किया था । उस उपदेश से चित्त प्रसन्न तो होता है, किन्तु सुन्दर रूप से नहीं होता है । तज्जन्य श्रीशौनक कृत प्रश्न में भी ‘जिस से आत्मप्रसन्नता मिलती है । इस प्रकार उल्लेख हुआ है । श्रीसूत के प्रत्युत्तर मे भी “सु प्रसीदति " का प्रयोग हुआ है । इस का तात्पर्थ्य यह है कि केवल वर्ण एवं आश्रम धर्म का अनुष्ठान से चित्त प्रसन्न होता है, किन्तु श्रवण कीर्त्तनादि लक्षणा भगवद् भक्ति का अनुष्ठान से आत्मा की सुप्रसन्नता होती है। अतएव देवर्षि नारद ने ‘सु प्रसीदति” इस प्रकार न कहकर भगवत् श्रवण कीर्त्तनादि लक्षणा साक्षात् भक्ति का श्रेतृत्व प्रतिपादन किया है। वर्णाश्रम धर्मानुष्ठान करते करते यदि चित्त सु प्रसन्न होता तो देवष, “येन चात्मा प्रसीदति” श्लोकस्थित प्रसीदति” क्रिया के पहले ‘तु’ इस अव्यय पद का प्रयोग करते । अतः साक्षात् भगवत् भक्ति अनुष्ठान के विना अपर किसी भी साधन से चित्त वासना शून्य नहीं हो सकता है ।
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देवष ने निज जीवन वृत्तान्त का वर्णन भी किया है, उस में ‘वर्णाश्रमोचित सत् कर्म्मका अनुष्ठान मैंने किया था, इस प्रकार उल्लेख नहीं है, द्वितीय शूद्रजन्म में मुनि गण के समीप में श्रीहरि कथा श्रवण का उल्लेख किया है। इस से प्रतिपन्न होता है कि- देवर्षि के तृतीय जन्म में भक्ति का आभास से, एवं द्वितीय जन्म में भक्ति का अनुष्ठान से श्रीभगवान् के समीप में रह कर सेवा सौभाग्य लाभ हेतु सच्चिदानन्द मय भगवद् भावभावित पार्षद देह लाभ देवर्षि ने किया था । अतएव श्रीहरि कथा श्रवणात्मक भक्ति अनुष्ठान वर्णन उन्होंने बारम्बार किया है, किन्तु किसी जन्म में वर्णाश्रमोचित धर्म का अनुष्ठान किया था । जिस के फल स्वरूप पार्षद देह मिला- इन प्रकार नहीं कहा ।
विशेषतः भा० ७।१५।६८ में कहा है ।
" यथा हि यूयं नृपदेव दुस्त्यजादापद् गणादुत्तरतात्मनः प्रभोः । यत् पादपङ्केरुह सेवया भवानहारषीनिर्जित दिग्गजः क्रतून् ॥”
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श्रीभक्तिस दर्भः तथाहि तत्रैव (भा० १।१५।६८) “यथा हि यूयम्” इत्यस्य टीका च - “एतच्च सर्व्वसाधारण- मुक्तम्, भक्तस्य तु भक्तिरेव सर्वपुरुषार्थहेतुदिति पाण्डवानेव लक्ष्यीकृत्याह– “यथा हि " इत्येषा । तस्मादत्रापि साक्षाद्भक्तावेव तात्पर्य्यम् । अथात्र (भा० ११५११७) त्यक्त्वा स्वधर्मं चरणाम्बुजं हरेर्भजन्नपक्वोऽथ पतेत्ततो यदि’ इत्यादौ भक्तेर्धम्र्म्मातिरिक्तत्वेऽपि (भा० ७।११।११) “श्रवणं कीर्त्तनं चास्य स्मरणं महतां गतेः” इत्यादिनोत्तर ग्रन्थे धर्मत्वविधानं सर्वेष्वपि प्राणिष्वा- वश्यकत्वापेक्षया परमश्रेयोरूपत्वाद्यपेक्षया च लाक्षणिकमेव । वस्तुतस्तु पचमे ( भा० ५।६।२) “तत्रापि” इत्यादि- गद्य “भगवतः कर्म्मबन्धविध्वंसन श्रवण-स्मरण-” इत्यादिना श्रीजड़भरतस्य या भक्तिनिष्ठोक्ता, तस्याः (भा० शहाद) “पितर्युपरते” इत्यादि गद्य (भा० ५६८) “थ्यां
टीका- ‘एतच्च सर्वसाध रणमुक्तम्, भक्तस्य तु भक्तिरेव सर्वपुरुषार्थ हेतुरिति पाण्डवानेव लक्ष्यी- कृत्याह-यथाहीति । हे नृपदेव ! नृपैर्देवैश्च सहाये दुस्त्यजादिति वा आत्मनः, श्रीकृष्णादेव प्रभो र्हेतोः । अडभाव आर्षः, उत्कर्षेण अतरतेत्यर्थः । यथा यथावत् तमेव भजतेति शेषः । यद्वा यथा आपद्गणादुत्तीर्ण स्त्वं यथा च क्रतूनहार्षीत्, तथा श्रीकृष्णादेव तारकात् संसारादायुत्तरतेत्यर्थः ।
भी वह ही है “भक्ति ही सर्व
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मैंने वर्ण एवं आश्रम धर्म का वर्णन जो कुछ किया है, वह सर्व साधारण के निमिक्त हैं । किन्तु भक्त का पुरुषार्थं भक्ति ही है, एवं सवं पुरुषार्थ लाभ का हेतु भक्ति ही है। स्वामिपाद की टीका का तात्पर्य पुरुषार्थ साधिका शब्द से बोध होता है, कि-भक्त के पक्ष में भक्ति भिन्न अपर साधन के प्रति आदर न रख कर भक्ति ही करना कर्त्तव्य है । इस प्रकार “धर्ममूलं हि भगवान् " प्रसङ्ग में भी नारद का निर्भर, साक्षात् भक्ति में ही है, इस का प्रकाश हुआ है ।
इस प्रसङ्ग में आशङ्का हो सकती है, उसका उद्भावन करके कहते हैं- भा० १।५।१७ में श्रीनारद श्रीकृष्णद्वैपायन कहे थे, - वर्णाश्रम रूप स्वधर्म त्याग करतः श्रीहरि के चरण कमल का भजन करते करते अपक्वावस्था में यदि पतित होता है, अथवा मृत्यु हो जाती है, तथापि भक्ति अनुष्ठानकारी व्यक्ति का नाश अथवा किसी प्रकार अनर्थ उपस्थित नहीं हो सकता है, - इस प्रकार उक्ति की विद्यमानता के कारण, वर्णाश्रमादि धर्म से भिन्न हो भक्ति है, इसका प्रदर्शन हुआ है ।
ऐसा होने पर देवर्षि ने वर्णाश्रम धर्म कथन प्रसङ्ग में श्रीहरि के श्रवण, कीर्त्तन स्मरण प्रभृति को ७।११।११ श्लोक के द्वारा वर्णाश्रम धर्म के मध्य में अन्तर्भुक्त क्यों किया है ? उत्तर में कहते हैं- यद्यपि श्रवण कीर्त्तनादि लक्षणाभक्ति, वर्णाश्रम धर्म से पृथक हैं. तथापि, श्रीहरि कथा श्रवण, कीर्तन एवं स्मरण करना समस्त मानवों का एकमात्र कर्त्तव्य है, इस को दर्शाने के निमित्त वर्णाश्रम धर्म कथन प्रसङ्ग में भी श्रीहरि कथा श्रवण कीर्त्तनादि का उल्लेख हुआ है । कारण, श्रीहरि कथा श्रवण कीर्तन प्रभृति–परम मङ्गल स्वरूप हैं । भक्ति भिन्न किसी भी साधन के द्वारा मङ्गल अर्थात् फल लाभ नहीं होता है ! तज्जन्य कर्माङ्ग श्रवण कीर्तनादि लाक्षणिकी है, किन्तु स्वरूप सिद्ध नहीं है ।
वस्तुतः भा० ५।२।३ के गद्य में भी श्रीभरत की भक्ति निष्ठा वर्णित हुई है । श्रीभरत-निज तृतीय जन्म में स्वजन सङ्ग से अत्यन्त उद्विग्न होकर श्रीभगवन्नाम श्रवण, स्मरण एवं कीर्त्तन करने लगे थे, उस से उनका कर्मबन्ध विध्वंस हो गया, श्रीभगवच्चरण युगल हृदय में धारण कर कालातिपात करने लगे थे, श्रीभगवान् के अनुग्रह से निज पूर्व जन्म वृत्तान्त स्मृति पटल में उदित हुआ। उस से प्रतिघात आशङ्का से व्यवहारिक लोक के निकट स्वयं उन्मत्त, जड़, अन्ध एवं बधिर रूप में दृष्ट हुए
दृष्ट हुए थे । इत्यादि
थे । इत्यादि प्रसङ्ग के द्वारा
श्री भक्ति सन्दर्भः
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विद्यायामेव पर्य्यवसितमतयो न परविद्यायाम्” इत्यादिना तदवज्ञातृ णामज्ञत्वबोधनेन धर्मातिरिक्तत्वं परविद्यात्वञ्च बोधितम् । अतएवोक्तं श्रीनारसिंहे-
सम
“सनकादयो निवृत्तचाख्ये तेन धर्मे नियोजिताः । प्रवृत्तयाख्ये मरीच्याद्या भक्त्यैकं नारदं मुनिम् ॥ ६५॥ इति ।
1-38
‘तेन’ ब्रह्मणेति प्राकरणिकम् । तथा लक्षणामय–कष्टकल्पनया श्रवणादीनां स्वधम्मन्तिर्गणना
श्रीजड़ भरत महाशय की भक्ति निष्ठा सुव्यक्त हुई है I
भा० ५६८ में गद्य में भी वर्णित है - श्रीभरत महाशय के पिता का देहान्त होने पर, भ्रातृवर्ग उनका अलौकिक प्रभाव को अवगत होने में अक्षम रहें, कारण, भ्रातृवर्ग की चित्त वृत्ति, त्रिगुणमयी कर्म विद्या में परिवेष्टित थी, अतः परतत्त्व परिज्ञान में जड़मति थे, तज्जन्य उनके भ्रातृवृन्द, भरत के अनुशासन से निवृत्त हो गये थे । इस पद्य के द्वारा भरत महाशय का अनादर कारी भ्रातृवृन्द का अज्ञत्व वर्णन करके त्रिगुणात्मक धर्म से भक्ति का अतिरिक्तत्व एवं पर विद्यात्व दर्शया गया है। अतएव नृसिंह पुराण में कथित है-
“सनकादयो निवृत्त्याख्ये तेनधर्मे नियोजिताः ।
प्रवृत्त्याख्ये मरीच्याद्या भक्तचं कं नारदं मुनिम् ॥ ६५ ॥
।
ब्रह्मा, सनकादि ऋषिगण को निवृत्त्याख्य धर्म में एवं श्रीनारद भिन्न मरीचि प्रभृति प्रजाप्रतिगण को प्रवृत्त्य ख्य धर्म में नियुक्त किये थे । यहाँपर नियुक्त करने के कर्त्ता रूप में ब्रह्मा का उल्लेख हुआ है । बहिर्मुख जनगण की प्रवृत्ति, भक्ति अनुष्ठान में हो, तज्जन्य लक्षणामय कष्ट कल्पना के द्वारा श्रवणादि भक्तयङ्ग समूह को भी वर्णाश्रम धर्म के मध्य में गणना की गई है। यह अभिप्राय यह है कि देवर्षि नारद, धर्मराज युधिष्ठिर के निकट जिस वर्णाश्रम धर्म का वर्णन किये हैं, उस में श्रीहरि कथा श्रवणादि का उल्लेख है, उस में सशय हो सकता कि - श्रीहरि कथा श्रवण कीर्त्तनादि वर्णाश्रमधर्म के ही अङ्ग हैं। आशङ्का निरसन हेतु श्रीजीवगोस्वामी पाद उक्त सिद्धान्त समूह की अवतारणा किये हैं । उक्त सिधान्त समूह का सार र्थ यह है-वर्णाश्रमधर्म त्रिगुणमय कर्म विद्या है, श्रवण कीर्तनादि लक्षणाभक्ति किन्तु त्रिगुणातीत गुह्य विद्या है। अतएव, कर्म विद्या एवं गुह्य विद्या के मध्य में स्वरूपगंत पार्थक्य विद्यमान होने पर भी वर्णाश्रम धर्म प्रसङ्ग में श्रवण कीर्तनादि लक्षणा भक्ति का जो उल्लेख हुआ है, उस से भगवद् वहिर्मुख मानवों की रुचि सङ्गसिद्धा भक्ति अनुष्ठान में होगी, उस से क्रम पन्था में श्रीहरि कथा श्रवण कीर्त्तनादि में रुचि की सम्भवना है, एवं उस रुचिलक्षणाभक्ति से क्रमशः विशुद्ध भक्ति में प्रदेश की योग्यता हो सकती है । इस अभिप्राय से ही वर्णाश्रम धर्म प्रसङ्ग में भी हरि कथा श्रवण कीर्त्तनादि भक्ति का उल्लेख इस प्रकार श्रीमद् भागवत के अन्यस्थान में भी, कर्म, ज्ञान, योगमिश्र भक्ति का उपदेश विद्यमान, उक्त उपदेश समूह का तात्पर्य भी उक्त रोति से जानना होगा । अर्थात् सङ्ग सिद्धा एवं आरोप सिद्धा भक्ति का अनुष्ठान करते करते विशुद्ध भक्ति में प्रवेश की सम्भावना हो सकती है, इस अभिप्राय से ही श्रीमद् भागवत के स्थल विशेष में उपदेश वाक्य में अन्यमिश्राभक्ति की वार्ता भी उल्लिखित है । वस्तुतः श्रीमद् भागवत में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष वाञ्छारूप कष्टता शून्य परमधर्म वर्णित है, उक्त परम धर्म का विवरण श्री सूत के वाक्य के द्वारा प्रकाशित हुआ है ।
“सबै पूसां परोधर्मी यतोभक्तिरधोक्षजे ।
अहैतुक्य प्रतिहता ययात्मा सुप्रसीदति ॥”
हुआ है
अर्थात् मानव मात्र का वह ही परम धर्म है, जो धर्म अनुष्ठित होने पर श्रीहरि में अहैतुकी अप्रतिहता
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च वहिर्मुखानामपि साक्षाद्भक्तिप्रवर्त्तनायैव । एवमन्यत्रापि अन्यमिश्रभक्त्युपदेश-वावयेषु ज्ञेयम् । तस्मादपि भक्तावेव तात्पर्य्यमिति । श्रीनारदो युधिष्ठिरम् ॥
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