५७

१०३ ५७

अग्रेळे च (भा० ७।७।३०) - “गुरुशुश्रूषया भक्तय।” इत्यादिभिस्तस्यैवोपायस्याङ्गान्युक्त्वाह (भा० ७७१३३) –

(५७) “एवं निर्जितषड़ वर्गः क्रियते भक्तिरीश्वरे ।

वासुदेवे भगवति यया संलभते रतिम् ॥ ६२॥

एवं पूर्वोक्त- गुरुशुश्रूषादि प्रकारेणैव, न तु तदर्थं पृथक् प्रयत्नेन, निर्जित- कर्मवीजलक्षण-

भगवान् में व्यवधान शून्य प्रीति का उदय होता है, उस उपाय को अवलम्बन करना ही जीव का अवश्य कर्तव्य है । अभिप्राय यह है कि जब तक श्रीभगवान् में भक्ति का उदय नहीं होता है, तब तक कर्म वासना विदूरित नहीं होगी । अथच अत्यन्त दुर्लभ है सत्सङ्ग अथवा महत् कृपा व्यतीत किसी भी उपायों से उस की प्राप्ति नहीं हो सकती है । किन्तु पवित्र अनुष्ठान में रत होने पर यदृच्छाक्रम से महत् सङ्ग लाभ की सम्भावना होती है । तज्जन्य ही गोस्वामि पाद ने कहा है “यैरुपाय सहस्रं : सिद्धात् " अर्थात् सहस्र सहस्र साधन को साधन स्थानीय रूप से कहा गया है, किन्तु अव्यवहिता एवं अहैतुकी साधन भक्ति से प्रीति भक्ति का आविर्भाव होता है । अतएव कर्म वीज नाश होना ही साधन भक्ति का मुख्य फल नहीं किन्तु अवान्तर फल है । भक्ति का मुख्य फल भगवत् प्रीति है ॥ ५६ ॥ ।

१०४ ५७

भ० ७७३० में

टीका

गुरुशुश्रूषया भक्तया सर्वलाभार्पणेन च ।

सङ्गेन साधुभक्तानामीश्वराधनेन च ॥

टीका ‘तत्रैवान्तरङ्ग धर्मानाह । गुरोः शुश्रूषया - भक्तया, प्रेम्ना, सर्वेषां श्रद्धानामर्पणेन ॥”

" श्रद्वया तत् कथायाञ्च कोत्तनंग णकर्मणाम् ।

तत् पादाम्बुरुह ध्यानात् तल्लिङ्गेक्षार्हणादिभिः ॥ ३१॥

हरिः सर्व भूतेषु भगवानस्ति ईश्वरः ।

इति भूतानि मनसा कामैस्तैः साधु मानयेत् ॥ ३२॥

ठोका - तस्य लिङ्गानां मूर्तीनाम् इक्षणञ्चार्हणञ्चा दियेषां वन्दनादीनां तैश्च । ३१–३२॥ उक्त श्लोक समूह के द्वारा अहैतुकी भक्ति रूप उपायों के अङ्ग समूह का वर्णन कर भा० ७७७ ३३ में कहते हैं ।

(५७) “एवं निजित षड् वर्गः क्रियते भक्तिरीश्वरे

वासुदेवे भगवति यथा संलभते रतिः ॥६२॥

टीका-निर्जितः षण्णां, काम क्रोध लोभ मोह मद मात्सर्याणाम् इन्द्रिय णां वा वर्गो यैः ॥ ३३॥

हे भ्र तृ वृन्द ! पूर्व वर्णित भक्ति के अङ्ग समूह का अनुष्टान करते करते काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सय्यं अथवा इन्द्रिय वर्ग जयी भक्तगण ईश्वर में भक्ति करते रहते हैं। जिस भक्ति के द्वारा भगवान् श्रीवासुदेव में सम्यक् प्रीति लाभ होता है ।

पूर्व वर्णित गुरु शुश्रूषादि के द्वारा निर्जित काम वासना की सत्ता का परिचायक, काम, क्रोध, लोभ मोह, मद् मात्सर्य्य प्रभृति को जय करके भक्तगण पुनर्वार श्रीभगवान् में भक्ति करते हैं । उक्त काम,

[[७८]]

काम-क्रोध-लोभ-मोह-मद-मात्सय्यैर्जनैः पुनरपि भक्तिः क्रियत एव ॥ श्रीप्रह्लादस्तान् ॥