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अग्रे च (भा० ७७२६)-

(५६) " तत्रोपायसहस्राणामयं भगवतोदितः ।

यदीश्वरे भगवति यथा रञ्जसा रतिः ॥ ६१ ॥

POSTE

तत्र पूर्वोक्ते त्रिगुणात्मक - कर्म्मणां वीजनिर्हरणेऽपि उपायसहस्राणां मध्ये अयमेवोपायो भगवता श्रीनारदेन मां प्रत्युपदिष्टं । यैरुपायसहस्रः सिद्धाद्यद्यस्मादुपायाद् यथा

क्यों करते हैं, उत्तर में कहते हैं-धर्म, अर्थ, काम यह त्रिवर्ग नाम से अभिहित है । ईक्षा-आत्मविद्या, त्रयी - कर्म विद्या, नय, तर्कनीति एवं विविध जीविका यह सब वेदोक्त ही हैं। मैं उक्त विषयों पर दोषारोपण नहीं कर रहा हूँ । अधिकारी विशेष के निमित्त वेदोक्त उक्त उपदेश समूह सत्य हितकारी होते हैं । इस अभिप्राय से ही भगवान् पद्मनाम ने श्रीगीता में कहा है

“वैगुण्य विषयावेदा निस्त्रैगुण्य भवार्जुन ॥'

किन्तु उक्त उपदेश समूह की सत्यता तब ही प्रतिपन्न होगी, जब परम पुरुष, निरुपाधि हितकारी श्रीभगवान् में आत्म समर्पण होगा। अर्थात् निखिल साधन एवं निखिल साध्य के मुख्य फलरूप श्रीभगवान् में आत्म समर्पण अर्थात् तदीयत्व रूप में अभिमान नहीं होता है, अर्थात् मैं आप का दास हूँ, आप मेरे प्रभु हैं, अथवा मैं आपका नित्य सेवक हूँ, आप मेरा नित्य सेव्य हैं, इस प्रकार सम्बन्ध का उद्बोधन नहीं होता है, तब तक समझना पड़ेगा कि - वेद का मुख्य उपदेश प्रति पालित नहीं हो रहा है । वेदों का मुख्य आदेश, - भगवान् में भक्ति करना है, उसका प्रतिपालन न करके अन्यान्य सब कुछ करने पर भी वेद एवं वेदानुगत शास्त्र साधक के प्रति प्रसन्न नहीं होते हैं। ईक्षा - शब्द का अर्थ - अत्मतत्त्व ज्ञान है, पूर्वोक्त वेदों के उपदेश समूह तब ही सत्यरूप में होंगे, यदि निज हितकारी बान्धव, अन्तर्थ्यामी परम पुरुष में आत्म समर्पण होता है । कारण, भगवान् में अत्म समर्पण ही निखिल साधनों का पारमार्थिक सत्य है । श्री भगवान् में आत्म समर्पण व्यतीत अपर जो कुछ फल है, वे सब अपारमार्थिक होने के कारण असत्य हैं । श्रीप्रह्लाद, असुर बालक वृन्द को कहे थे । ५५॥

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अग्रिम ग्रन्थ भा० ७७ २६ में और भी उक्त है-

(५६) “तत्रोपायसहस्राणामयं भगवतोदितः ।

यदीश्वरे भगवति यथा यैरञ्जसा रतिः ॥ ६१ ॥

टीका - तथैवं ज्ञान प्रकार मुक्त्वा तत् साधनं धर्मस्य तत्त्वं नारदोक्तमेवाह–तत्वेति पञ्चभिः । यै र्धमैं यथानुष्ठितैः रतिरिति यत् अयमुपायो भगवतोक्तः । तथापि गीतासु । यत् करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । यत् तप्स्यसि कौन्तेय ! तत् कुरुष्व मदर्पणमिति । भक्तचा मामभिजानाति यावान् यश्चास्मि तत्त्वतः ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥”

हे बालक वृन्द ! जिस भजन समूह के द्वारा ईश्वर, भगवान् में अवलेश से यथा योग्य प्रीति का उदय होता है, वे सब भजन ही कर्म वीज परिहार के प्रकृष्ट उपाय हैं । तत्र - पूर्वोक्त विषय में । सत्त्व, रजः, एवं तमोगुणात्मक कर्मसमूह को वीज नाश के सम्बन्ध में सहस्र सहस्र उपायों के मध्य में मुझ को श्रीनारद महाशय यह उपदेश किये थे - जिस उपाय सहस्र के द्वारा सिद्ध उपाय से यथायोग्य ईश्वर श्री

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यथावदीश्वरे भगवति अञ्जसा व्यवधानान्तरं विनैव रतिः प्रीतिर्भवति, अतः कर्म्मवीज- निर्हरणमपि तस्यानुषङ्गिकमेव फलमिति भावः ॥