०९९ ५५
तथा चित्रकेतु ं प्रति श्रीसङ्कर्षणोपदेशान्तेऽपि (भा० ६।१६।६२) “दृष्टश्रुताभिर्मात्राभिः " इत्यादो “मद्भक्तः पुरुषो भवेत्” इत्यग्रत उदाहाय्र्यम् । असुरबालकानुशासनेऽपि (भा० ७७६२१-२)
“कौमार आचरेत् प्राज्ञो धर्म्मान भागवतानिह । दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम् ॥८८॥ यथा हि पुरुषस्येह विष्णोः पादोपसर्पणम् । यदेष सर्वभूतानां प्रिय आत्मेश्वरः सुहृत् ॥” ८६ ॥
न ह्यद्भुतं त्वच्चरणाब्जरेणुभि-, र्हतांहसो भक्तिर धोक्षजेऽमला।
"
मौहूतिकाद्यस्य समागमाच्च मे, दुस्तर्कमूलोऽपहतोऽविवेकः ॥ ८७ ॥ इति ।
टीका - अखिल जन्मसु शोभनं नृजन्मैव । न परं श्रेष्ठ येभ्यो देवादि जन्मभ्यस्तैरपि किम् ? अमुष्मिन् स्वर्गेऽपि जन्मभिः किम् ? न किञ्चित् । यत् येषु जन्मसु, यत्र स्वर्गे वा, महात्मनां समागमः प्रचुरो न भवति । हृषीकेशस्य यशसा कृतः शोधित आत्मा यैस्तेषाम् ॥
इस में भी भक्ति योग का अभिधेयत्व उल्लिखित है। अखिल जन्मों के मध्य में मनुष्य जन्म ही सुन्दर है। अपर देवादि जन्म में लाभ क्या होता है ? स्वर्गादि में जन्म ग्रहण का भी फल क्या ? जिस जन्म में हृषीकेश श्रीकृष्ण की यशोराशि के श्रवण कीर्त्तन से शोधितचित्त महानुभव भगवद् भक्तों का प्रचुर समागम होता है । अतः स्वर्गादि लोक में जन्म ग्रहण करने का फल क्या है ?
तुम्हारे चरण कमल में स्थित रेणु समूह की उपासना के द्वारा जिन के सर्वविध पाप एवं अपराध विनष्ट हुए हैं। उनके पक्ष में अधोक्षज श्रीकृष्ण के चरणों में अहैतुकी भक्ति का उदय होना कुछ भी आश्चर्य नहीं है । कारण, तुम्हारे मुहूर्त्त काल मात्र समागम के प्रभाव से ही दुष्ट तर्काश्रित मेरा अविवेक विनष्ट हो गया। ब्राह्मण-रहूगण को कहे थे ॥ ५ ४१ ।
१०० ५५
उस प्रकार चित्र केतु के प्रति श्रीसङ्कर्षण देव के उपदेश के अन्त में (भा० ६।१६६२) वर्णित है –
दृष्ट श्रुताभिर्मात्राभि निम्मुक्तः खेन तेजसा ।
ज्ञान विज्ञान संतृप्तो मद्भक्तः पुरुषो भवेत् ॥”
टीका - “दृष्ट श्रुताभिर्मात्राभिरंकामुष्मिकै विषयैः, स्वेन तेजसा, विवेक बलेन ॥”
क
पुरुष, दृष्ट एवं श्रुत, ऐहिक एवं पारलौकिक विषय से निम्मुक्त होकर, निज विवेक के द्वारा परोक्ष एवं अपरोक्ष अनुभव से सम्यक तृप्त होकर मुझ में भक्ति सम्पन्न होता है। ( भा० ७ ६।१-२) असुरबालकों के प्रति श्रीप्रह्लाद महाशय का अनु शासन में भी भक्ति का अभिधेयत्व उक्त है ।
“कौमार आचरेत् प्राज्ञो धर्मान् भागवतानिह ।
दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम् ॥८८॥ यथा हि पुरुषस्येह विष्णोः पादोपसर्पणम् । यदेष सर्वभूतानां प्रिय आत्मेश्वरः सुहृत् ॥ ८६ ॥
देवा’ द जन्मनि
[[७४]]
इहैव मानुष जन्मनि भागवतान् धर्म्मानाचरेत्, यतोऽर्थदमेत् ज्जन्म, - महाविषयावेशात् पश्वादि-जन्मनि विवेकाभावाच्च । मानुषजन्म प्राप्य च न विलम्बेतेत्य ह- कौमारे कौमारमारभ्येत्यर्थः । यतस्तदपि जन्माधवं पुनर्दुर्लभश्च, शास्त्रस्य च प्राधान्येन मनुष्यमधिकृत्य प्रवृत्तत्वात्तदनुवादेनोक्तिरियम्, तद्बुद्ध्यादि-साम्येन मानुषत्वमारोप्यैवेति ज्ञेयम् । तत्र भागवत धर्माचरणस्यैव युक्तत्वं दर्शयति- ‘यथा हि’ इत्यादि । इह पुरुषस्य विष्णोः पादोपसर्पणमेव यथा अनुरूपं योग्यमित्यर्थः । यद्यस्मादेष भूतानां स्वभावत एवं प्रियः प्रीति विषयः प्रेमकर्ता च । तत्र हेतुः –आत्मा परमात्मा, पादोपसर्पणे हेत्वन्तरम् —- हेतुः–आत्मा
टीका — कौमार इत्यादिना इहैव मानुष जन्मनि धर्मानाचरेत् । यतोऽर्थदमेतत्, तत्र च कौमार एव, यतस्तदप्यध्र ुवम् । न चैवम्भूते जन्मान्तरे यतो दुर्लभम् । तत्र च धर्मानेवाचरेत् । न सुखार्थ प्रयासान् । तत्र च भागवतानेव न काम्यान् । (१)sing
इह भागवतानेव धर्मानाचरेदित्येततुपपादयति– यदादीत चतुभिः । इह पुरुषस्य पादोपसर्पणमेव यथानुरूपं योग्यमित्यर्थः । यद् यस्मात् एव प्रिय इत्यादि (२)
विज्ञ मानव, कौमार समय से ही भागवत धर्माचरण करे । कारण, मनुष्य जन्म अतीवदुर्लभ, अथ मनुष्य च परमार्थप्रद है । किन्तु मनुष्य जन्म, क्षण भङ्गुर है । जिस प्रकार समस्त जन्मों के मध्य में जन्म श्रेष्ठ है, उस प्रकार समस्त उपास्य तत्त्वों के मध्य में श्रीविष्णु हो श्रेष्ठ है । ‘वेवेष्टीत विष्णुः " अर्थात् जो व्यापक रूप में सर्वत्र अवस्थित हैं, वह ही विष्णु हैं । उनकी उपासना करने से सब की उपासना होती है । उस प्रकार समस्त साधनों के फल प्रदाता भक्ति साधन है, उस भक्ति साधन करना ही विज्ञजन का एकमात्र कर्त्तव्य है । उपाग्य में जो सब गुण विद्यमान होने पर उपासक उपासना करके सर्व प्रकार आत्म प्रसाद लाभ कर सकते हैं, श्रीविष्णु, उक्त समुदय गुण राशि से विभूषित हैं । कारण, श्रीविष्णु हो सकल भूतात्मा हैं, अर्थात् अन्तर्य्यामी हैं, अतएव जब के प्रिय है, अथच हित कारी सुहृत् एवं सर्व समर्थ ईश्वर हैं ।
[[1]]
इस मनुष्य जन्म में ही भागवत धर्म समूह का आचरण करे। “आचरेत्” विधिलिङ् प्रयोग के द्वारा भागवत धर्म की अवश्य कर्त्तव्यता सूचित हुई है, एवं अकरण से प्रत्यवाय भी सूचित हुआ है। कारण, यह मनुष्य जन्म अर्थद अर्थात् परमार्थ फल दाता है। मनुष्य जन्म ही श्री भगवद् भजनका एकमात्र उपयोगी है। कारण, देवादि जन्म में महाविषयाशक्ति के कारण, एवं पशु प्रभृति जन्म में कर्त्तव्य अकर्त्तव्य विचार करने की अक्षमता के कारण, भागवत धर्माचरण की योग्यता नहीं है । एकमात्र मनुष्य जन्म ही त्याग एवं विवेक पूर्ण होने का उपयोगी है । अतएव मनुष्य जन्म प्राप्तकर भगवद् भजन विषयक अनुष्ठानारम्भ करने में बिलम्ब करना उचित नहीं है । इस अभिप्राय से ही कहते हैं, “कौमारे” अर्थात् कौमार वयस से ही आरम्भकर भागवत धर्माचरण करे । यहाँ आरम्भ अर्थ में हो सप्तमी विभक्ति का प्रयोग हुआ है । कारण, उक्त विवेक एवं त्याग करने की शक्ति युक्त, यह मनुष्य जन्म, अध्र ुव है, अर्थात् क्षण भङ्ग ुर है, अथच दुर्लभ है, अनेकानेक साधन से भी मनुष्य जन्म प्राप्त करना सम्भव नहीं है ।
यद्यपि पशु
योनि में भी भगवद् भक्ति का अनुष्ठान दृष्ट होता है, जिस प्रकार श्रीमद् हनुमान् गरुड़ प्रभृति में भगवद् भक्ति की सत्ता विद्यमान है, तथापि यहाँ केवल मात्र मनुष्य को लक्ष्य करके ही भगवद् भजन का उपदेश करने का तातपर्य यह है कि- मनुष्य में सर्व प्रकार से भगवद् भजन करने की योग्यता है, अतः निखिल शास्त्र, प्रधान रूप से मनुष्य को अधिकार करके ही कर्त्तव्य एवं अकर्त्तव्य का उपदेश प्रदान हेतु प्रवृत्त हुए हैं । अन्यत्र पशु प्रभृति योनि में भगवद् भजन दृष्ट होने पर भी समझना होगा कि,
BE
[[७५]]
यस्माच्चैष ईश्वरः कर्तुं मकतु मन्यथाकत्तुं समर्थः, सुहृत् सर्व्वेषां हितं चिकीर्षुश्चेति । तदेतदुपक्रम्योपसंहरति (भा० ७१६१२६) -
(५५) " धर्मार्थकाम इति योऽभिहितस्त्रिवर्ग, ईक्षा त्रयी नय-दमौ विविधा च वार्त्ता ।
मन्ये तदेतदखिलं निगमस्य सत्यं, स्वात्मार्पणं स्वसुहृदः परमस्य पुंसः ॥ ६०॥ ईक्षा आत्मविद्या, तदेतत् सर्व्वं निगमस्यार्थजातं स्वसुहृदः स्वान्तर्यामिणः परमस्य उक्त पशु प्रभृति में मनुष्य के समान बुद्धि एवं त्याग की क्षमता है, अतः अश्वादि में भी मनुष्यत्व आरोप करके ही उक्त उक्ति की गई है ।
इस मनुष्य जन्म में ही भागवत धर्म आचरण की उपयोगिता है, इस का प्रदर्शन ‘यथाहि पुरुषस्येह " इत्यादि श्लोक द्वारा हुआ है । इस उपासना मार्ग में पुरुष के पक्ष में अर्थात् मानव के पक्ष में श्रीविष्णु चरणोपसमर्पण ही अर्थात् श्रीविष्णु चरण की शरणागति ही अनुरूप है, अर्थात् योग्य है । कारण, श्रीविष्णु समस्त प्राणियों का स्वभावतः ही प्रिय हैं, अर्थात् प्रीति का विषय हैं । कारण, आनन्द ही निरुपाधि प्रीति का विषय होता है । श्रीविष्णु, अखण्ड आनन्द स्वरूप होने के कारण, निखिल जीवों का प्रीति करने क योग्य वह विषय हैं, अथच जीव, जिस प्रकार श्रीविष्णु प्रीति करेगा, श्रीविष्णु भी उस प्रकार जीव को प्रीति करेगा, श्रीविष्णु भी उस प्रकार जोव को प्रीति करते हैं । कारण, आप परमात्मा हैं । उन के चरणों में शरणागत होने के विषय में और एक हेतु का विन्यास करते हैं । यह श्रीविष्णु ईश्वर हैं, अर्थात् करने में न करने में एवं अन्यथा करने में समर्थ हैं दूसरी बात है–आप सब के सुहृत हैं, अर्थात् सब के हित साधन करते रहते हैं। इस प्रकार सद् गुण गण निधि श्रीविष्णु की उपासना करना मनुष्य मात्र का एकमात्र कर्त्तव्य है । इस प्रकार उपदेश का प्रारम्भ कर उपसंहार में भी भगवद् भक्ति का ही अभिधेयत्व प्रतिपादन किये हैं- (भा० ७।६।२६)
।
(५५) " धर्मार्थकाम इति योऽभिहितस्त्रिवर्ग,
ईक्षा त्रयी नय दमौ विविधा च वार्ता ।
मन्ये तदेतदखिलं निगमस्य सत्यं,
स्वात्मार्पणं स्वसुहृदः परमस्य पुंसः ॥ ६० ॥ ॥
टीका - ननु च धर्मादेव पुरुषार्थत्वे किमित्याचाय्र्याभ्यां वेदोक्तेन सत्य एवाभिहितः तत्राह । धर्मार्थ काम इति, यस्त्रिवर्गस्तदर्थञ्च ये ईक्षाद्या अभिहिताः । ईक्षा, आत्मविद्या, वयी, कर्म विद्या, नय दमौ तक । दण्डनीतिश्च विविधा च वार्त्ता, जीविका, तदेतत् सर्वं निगमस्यार्थ जातं, स्वसुहृदः स्वान्तर्यामिणः, परमस्य पुंसः, स्वात्मार्पण साधनञ्चेत् तहिसर्वं सत्यं मन्ये सत्यपरत्वात्, अन्यथा तदसत्यमेव । यद्वा, तदेतदखिलं निगमस्य त्रैगुण्य विषयस्य प्रतिपाद्यंमन्ये । सत्यं पुनर्निरवैगुण्य लक्षणं परमस्य पु ंसः स्वात्मार्पण मेवेत्यर्थः । तदुक्तं भगवता । वैगुण्य विषया वेदा निस्त्रगुण्योभवार्जुनेति ।
उपक्रम - उपसंहार, अभ्यास - पुनः पुनः उल्लेख, अपूर्व फल, अर्थवाद - (प्रशंसावाक्य) एवं उपपत्ति- युक्ति, यह छं हेतु के द्वारा शास्त्रों का तात्पर्य्य निर्णय करना पड़ता है । यहाँपर श्रीप्रह्लाद के उपदेश में उपक्रम उपसंहार द्वारा भगवद् भक्ति का अभिधेयत्व प्रदर्शन के निमित्त उपक्रम श्लोक का उल्लेख करने के पश्चात् उपसंहार श्लोक का उल्लेख करते हैं।
हे बालकवृन्द ! तुम सब मन में यह कर सकते हों कि - धर्म, अर्थ, काम, यदि पुरुषार्थ नहीं होते तो, षण्ड तमर्क गुरु पुत्रद्वय वेदोक्त प्रमाण के द्वारा प्रमाणित करके हम सब को उक्त धर्मादि का उपदेश
[[17]]
[[७६]]
पुंसः, तस्मै स्वात्मार्पणसाधनञ्चर्त्ताहि सत्यं मन्ये, सत्य फलत्वात्, यद्वा, सत्यमर्थक्रियः कारकं सफलमिति यावत्, अन्यथा धर्म्मादीनां निष्फलत्वमेवेति भावः ॥ श्रीप्रह्लादोऽसुरब लकान् ॥