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श्री ऋषभदेव कृत- स्वपुत्र शिक्षणेऽपि ( भा० ५।५३३ ) - “ये वा मयीशे” इत्यादिकम्, (भा० ५।५।२५) “मत्तोऽप्यनन्तात्" इत्यादिकञ्चाग्र दर्शनीयम् । ब्राह्मण रहूगण-संवादान्ते- ऽपीदमस्ति (भा० ५।१३।२० ) -

(५३) “रह गण त्वमपि ह्यध्वनोऽस्य, संन्यस्तदण्डः कृतभूतमंत्रः । (*)

18 असज्जितात्मा हरिसेवया शितं ज्ञानासिमादाय तरातिपारम् ॥ ८५॥ ज्ञानमत्र भक्ताश्रयत्वमेव

॥ ५४ । यथोक्तमेतदनन्तरं श्रीरह गणेनैव (भा० ५१३।११-२२)-

(५४) “अहो नृजन्मा खिलजन्मशोभनं किं जन्मभिस्त्वपरैरप्य मुष्मिन् ।

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न यद्धृषीकेश-यशः कृतात्मनां महात्मनां वः प्रचुरः समागमः ॥ ८६ ॥ कुछ भी फल लाभ नहीं होता है । सदृष्टान्त उसका वर्णन हो ’ ययातरोर्मूल निषेचनेन” श्लोक में हुआ

श्रीनारद प्रचेतागण को कहे थे ॥ ५२ ॥

है ।

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भा० ५।५।३ में श्रीऋषभदेवने भी निज पुत्र को शिक्षार्थ कथा था । ये वा मयोशेकृत सौहृदार्था जनेषु देहाम्भर वातिकेषु ।

गृहेषु जायात्मजरातिमत्सु न प्रीति युक्ता यावदर्थाश्च लोके ॥ "

टीका - मयि ईशे कृतं सौहृदमेवार्थः पुरुषार्थो येषाम् । वा शब्दे नान्य निरपेक्षस्यैवास्य लक्षणक दर्शयति । देहं विभर्तीति देहम्भरा विषया वात्तव न धर्म विषया, येषु तेषु जनेषु जायादि युक्तेषु गृहेषु च ।” भा० ५।५।२५ में उक्त है-

“मत्तोऽप्यनन्तात् परतः परस्मात् स्वर्गापवर्गाधिपतेर्न किञ्चित् ।

"

येषां किमुस्यादितरेण तेषामकिञ्चनानां मयिभक्ति भाजाम् ॥ "

टीका - निःस्पृहत्वमाह । मत्तोऽपि येषां न किञ्चित् प्रार्थनीयमस्ति तेषामितरेण राज्यादिना किमुस्यात् ? न किमपि ॥ २५ ॥

इत्यादि श्लोक व्याख्या के समय अग्रिम ग्रन्थ में भक्ति की अवश्य कर्त्तव्यता प्रदर्शित होगी । ब्राह्मण एवं रहूगण के संवाद में भी भक्ति का अभिधेयत्व प्रकाशित है । (भा० ५।१३०२०)

(५३) “रहूगण त्वमपि ह्यध्वनोऽस्य, संन्यस्तदण्डः कृतभूतमंत्रः

असज्जितात्मा हरिसेवया शितं, ज्ञानासिमादाय तरातिपारम् ॥” ८५॥

हे रहूगण ! तुम भी संसार पथ को अतिक्रम करो, किस प्रकार से संसार को अतिक्रम करोगे, उस का उपाय को कहता हूँ। सब के प्रति दण्ड धारण त्याग करो, अर्थात् मैं ही सब के शासन कर्ता हूँ, यह सब मेरे शास्य हैं, इस प्रकार बुद्धि को परित्याग करो, सर्व भूत में बन्धुभाव प्राप्त करो। सर्वत्र चित्त की अनासक्ति स्थापन कर हरि सेवा से प्राप्त तीक्ष्णीभूत ज्ञानरूप खड़ग धारण कर समस्त आसक्ति धारा को छेदन करो। इस श्लोक में जो ज्ञान की बात है, वह भक्ति आश्रय रूप ज्ञान है । अर्थात् भक्तयङ्ग साधन करते करते जो ज्ञान लाभ होगा । यहाँपर उस को ही जानना होगा ॥५३॥