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किञ्च, (भा० ४।३१।१४ ) -

(५२) “यथा तरोर्मूलनिषेचनेन, तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखाः ।

प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां तथैव सर्वार्हणमच्युते ज्या ॥ ८४ ॥

टीका च - “किञ्च, नानाकर्मभिस्तत्तदेवता-प्रीतिनिमित्तान्यपि फलानि हरिप्रीत्या भवन्ति । केवलं तत्तद्ददेवताराधनेन तु न किश्चिदिति सदृष्टान्तमाह-यथेति” इत्यादिका ॥ श्रीनारदः प्रचेतसः ॥

अर्थात् करुणापरवश होकर ही देही के समान प्रतिभात होते हैं ।

यहाँ माया शब्द का अर्थ - कृपा ही है । श्रर्थात् भक्तवृन्द की भक्त वृन्द में जिस प्रकार इच्छा होती है, तदनुरूप कृष्ण में इच्छादि का प्रकाश होता है, तज्जन्य ही मूल श्लोक में “इव” शब्द का प्रयोग हुआ है। देही जीव जिस प्रकार देह धर्म क्षुध दि युक्त होता है, तद्रूप श्रीकृष्ण, क्षुधादि धर्माक्रान्त नहीं हैं । किन्तु प्रेम वश्यता निबन्धन भक्ति की आकाङ्क्षा के अनुस र क्षुधा पिपासायुक्त होकर प्रकाशित होते हैं । यह श्रीकृष्ण का स्वरूपभूतधर्म है, आगन्तुक अथवा औपाधिक नहीं है । यह स्वरूप निष्ठु धर्म है, अतः आत्मारामवृन्द एवं प्रियभक्त वृन्द उस से अधिक तर सुखी होते हैं-आत्मा-जीव स्वरूप के सहित तादात्म्यापन्न ब्रह्म, एवं ईश्वर नामक स्वरूप दाता हैं । अर्थात् ज्ञानिवृन्द के हृदय में जो जीव स्वरूप के सहित भेद सहिष्णु अभेद भावापन्न निर्विशेष ब्रह्म स्वरूप को आविर्भाव करते हैं । एवं योगि वृन्द के हृदय में जीवात्मा स्वरूप के सहित भेद सहिष्णु अभेद भावापन्न परमात्म स्वरूप का आविर्भावक हैं । अर्थात् यथायथ रूप में जो ब्रह्म एवं परमात्म स्वरूप स्फूरित कराते हैं अर्थात् दर्श भूत कराते हैं। टीकाकार का अभिप्राय भी यह ही है ॥ ५१ ॥

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और भी मा० ४।३१११४ में उक्त है-

(५२) “यथा तरोमू लनिषेचनेन, तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखाः ।

प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां तथैव सर्वार्हणमच्युते ज्या ॥” ८४ ॥

टीका-किञ्च, नाना कर्मभिस्तत्तद् देवता प्रीति निमित्तान्यपि फलानि हरेः प्रीत्या भवन्ति, केवलं तत्तद् देवताराधनेन तु न किश्चिदिति स दृष्टान्तमाह यथेति । मूलात् प्रथम विभागाः स्कन्धाः, तद्विभागा भुजाः, तेषामपि – उपशाखाः उपलक्षण मेतत्ः पत्र पुष्पादयोऽपि तृप्यन्ति । न तु मूलसेकं विना ताः स्व स्व निषेचनेन । प्राणस्योपहारो भोजनं, तस्मादेव इन्द्रियाणां तृप्तिः, नतु तत्तदिन्द्रियेषु पृथक् पृथक् अन्नलेपनेन । तथा अच्युताराधनमेव सर्व देवताराधनं, न पृथगित्यर्थः ॥ र

जिस प्रकार वृक्ष के मूलदेश में जल सेचन करने पर उस वृक्ष के भुज, उपशाखा प्रभृति समस्त अङ्ग ही तृप्त होते हैं, अथवा प्राण को उपहार प्रदान करने पर अर्थात् पाकस्थली में आहार्य्य वस्तु देने पर जिस प्रकार इन्द्रिय वर्ग की तृप्ति होती है। उस प्रकार एकमात्र अच्युत नामा श्रीकृष्ण की आराधना करने से ही समस्त देवता की आराधना होती है । स्वतन्त्ररूप से देवतान्तर की आराधना की कोई आवश्यकता नहीं । अन्यान्य कर्मादि के द्वारा आराधित उन उन देवता के सन्तोष जनित भूरि भूरि फल भी श्री हरिसन्तुष्ट होने पर स्वतः ही होता है । विष्णु सन्तोष भिन्न केवल उन उन देवता की आराधना के द्वारा

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