५०

०९२ ५१

एतदेव श्रीनारदेनापि स्फुटीकरिष्यते, अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यथाह

(भा० ४१३११६-३१)

ने श्रीभगवान् का भजन किये थे ।

प्रवक्ता श्रीमैत्रेय हैं । (४९)

०९३ ५०

(भा० ४१२४६६ ) रुद्र गीत में भी भक्ति का अभिधेयत्व प्रतिपादित हुआ है ।

“इदं जपत भद्रं वो विशुद्धा नृपनन्दनाः ।

स्वधर्ममनुतिष्ठन्ती भगवत्यपिताशयाः ॥ २७५॥

श्रीरुद्र, प्रचेतागण को कहे थे - हे नृपनन्दन गण ! तुम सब श्रीभगवान् में अर्पित चित्त होकर स्वधर्मानुष्ठान करतः इसका जप करो, तुम सब का मङ्गल हो, इस प्रकार कहने के पश्चात् भा० ४।२४ ॥७० में कहा है-

(५०) " तमेवात्मानमात्मस्थं सर्वभूतेष्ववस्थितम् ।

पूजयध्वं गृणन्तच ध्यायन्तश्वासकृद्धरिम् ॥७६॥

सर्वभूत में अवस्थित परमात्मा उन श्रीहरि को हृदय में धारण पूर्वक असकृत् पुनः पुनः करो, उनका कीर्त्तन करो, एवं ध्यान करो ।

उनकी पूजा

उनकी पूजा ही करो, किन्तु स्वधर्मानुष्ठान के प्रति आग्रह न रखें। श्लोकस्थ “तमेव” पदस्थित एव कार का अर्थ यह ही है । “आत्मस्थं” वह हरि जिस प्रकार तुम सब के हृदय में अवस्थित हैं, उस प्रकार ही भूत समूह के हृदय में भी अन्तर्थ्यामि रूप में अवस्थित हैं। “आत्मा श्रीहरि का कीर्तन करते करते, एवं ध्यान करते करते अन्यत्र मनोनिवेश नहीं करना चाहिये । श्लोक में ‘असकृत्’ शब्द प्रयोग के द्वारा उक्ताभिप्राय को व्यक्त किये हैं। एक पूजा सम्पन्न होते ही अन्य पूजा का प्रारम्भ कर देना चाहिये । किन्तु काम्यकर्मादि के आग्रह से भगवद् भक्तयङ्ग का विच्छेद नहीं करना चाहिये । उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि- अत्यल्प समय भी भक्ति अनुष्ठान व्यतीत नहीं रहना चाहिये ।

श्रीरुद्र, प्रचेतागण को कहे थे ॥५०॥ श्रीभगवद् भक्ति का अभिधेयत्व का कथन श्रीदेवर्षिनारद ने भी विधिनिषेध मुख से भा० ४०३१।६-

१३ में कहा है ।

[[६८]]

(५१) " तज्जन्म तानि कर्माणि तदायुस्तन्मनो वचः ।

नृणां येन हि विश्वात्मा सेव्यते हररीश्वरः ॥७७॥ कि जन्मभिस्त्रिभिर्वेह शौक - सावित्र याज्ञिकैः । कर्म्मभिर्वा त्रयोप्रोक्तः पुंसोऽपि विबुधायुषा ॥ ७८ ॥ श्रुतेन तपसा वा किं वचोभिश्चित्तवृत्तिभिः । बुद्धया वा कि निपुणया बलेनेन्द्रिय- राधसा ॥७८॥ कि वा योगेन सांख्येन न्यास- स्वाध्याययोरपि । बैंक वा श्रयोभिरन्यैश्च न यत्रात्मप्रदो हरिः ॥ ८० ॥

श्रेयसामपि सर्वेषामात्मा ह्य्वधिरर्थतः

सर्वेषामपि भूतानां हरिरात्मात्मदः प्रियः ॥ ८१ ॥

॥ “यतो जन्मादेर्हरिसेवैव फलम्, अतस्तद्विहीनं सर्वं व्यर्थमित्यर्थः । शुक्रसम्बन्धि जन्म विशुद्धमाता- पितृभ्यामुत्पत्तिः, सावित्रमुपनयनेन, याज्ञिकं दीक्षया, विबुधानामिव दीर्घायुषापि

(५१) " तज्जन्म तानि कर्माणि तदायुस्तन्मनो वचः । (3) नृणां येन हि विश्वात्मा सेव्यते हरिरीश्वरः ॥७७॥

कि जन्मभिस्त्रिभिवेह शौक़-सावित्र- याज्ञिकैः । (FIN OT)-1 of कर्मभिर्वा त्रयोप्रोक्तः पुंसोऽपि विबुधायुषा ।७८

श्रुतेन तपसा वा किं वचोभिश्चित्तवृत्तिभिः ।

बुद्धया वा कि निपुणया बलेनेन्द्रिय–राधसा ७६

कि वा योगेन सांख्येन न्यास-स्वाध्याययोरपि । कि वा श्रेयोभिरन्यैश्च न यत्रात्मप्रदो हरिः ।८०। श्रेयसामपि सर्वेषामात्मा वधिरर्थतः । सर्वेषामपि भूतानां हरिरात्मात्मदः प्रियः ॥ ६१ ॥

(०)

टीका-अहो गृह प्रसक्तचा हरि सेवां विना सर्व जन्म कर्मादिकं व्यर्थीकृतमिति ताननुशोचन्नाह, तज्जन्मे तिचतुभिः । यतो जन्मादे र्हरिसेवेव फलम्, अतस्तद्विहीनं सर्वं व्यर्थमित्यर्थ । (8)

[[975]]

शुक्ल सम्बन्धि जन्म, विशुद्ध माता पितृभ्यामुत्पत्तिः, सावित्रमुपनयनन, याज्ञिक दीक्षया, विबुधानामिव दीर्घायुषापि तन्त्र वचोभि र्वाग्विलासः । चित्त वृत्तिभिः - नानावधान सामथ्र्यैः इन्द्रियानां राधसा पाटवेन ।११। योगेन, प्राणायामादिना । सांख्येन

सांख्येन देहादिव्यतिरिक्तात्मज्ञानमात्रेण । सन्न्यास वेदाध्ययनाभ्यामपि । अन्यैरपि कृत वैराग्यादिभिः श्रेयः स धनैः ॥ १२ ॥ ननु एषां नाना फलसाधनानां हरि सेवाभावमात्रेण कुतोवैयर्थ्यम् ? तत्राह । श्रेयसां फलानाम्, आत्मैवावधिः पराकाष्ठा । अर्थतः परमार्थतः, आत्मार्थत्वेनैवान्येषां प्रियत्वादित्यर्थः । भवतु आत्मा अवधिः, हरेः किमायातम् ? तत्राह, सर्वेषामपीति । आत्मा, आत्मदश्व, अविद्यानिरासेन स्यरूपाभिव्यञ्जकः, ऐश्वरेणापि रूपेण बलि प्रभृतिभ्य इवात्मप्रदः । प्रियश्च परमानन्दरूपत्वात् ॥१३॥

हे प्रचेतागण ! वही जन्म, वही कर्म, वही यथार्थ परमायुः, वही मन, एवं वही वाणी है, जिस जन्म[ ६६

श्रीभक्ति सन्दर्भः वचोभिर्वाग्-विलासैः चित्तवृत्तिभिनानावधानसामर्थः, इन्द्रिय- राधसा तत्पाटवेन, योगेन प्राणायामादिना, सांख्येन देहादिव्यतिरिक्तात्मज्ञानमात्र ेण, अन्यैरपि व्रतवैराग्यादिभिः श्रयः साधनंः” इति टीका । अथ ‘श्रेयसाम्’ इत्यादि-टीका च - “नन्वेषां नानाफलसाधनानां हरि सेवनाभावमात्रेण कुतो वैयर्थ्यम् ? तत्राह श्रेयसां फलानामात्मैवावधिः पराकाष्ठा । अर्थतः परमार्थतः, आत्मार्थत्वेनैवान्येषां प्रियत्वादित्यर्थः । भवतु, आत्मावधिः, हरेः के द्वारा कर्मद्वारा, परमायु के द्वारा, मन के द्वारा वचन के द्वारा ईश्वर श्रीहरि सेवित होते हैं। जन्मादि का मुख्य फल, श्रीहरि सेवा ही है, श्रीहरिसेवा विहीन जन्मादि समस्त ही विफल है । शौक, सावित्र एवं याज्ञिक भेद से त्रिविध जन्म प्राप्त कर भी क्या लाभ है ? वेदोक्त कर्मानुष्ठान का भी क्या फल है ? देवगण के समान सुदीर्घ आयुः प्राप्त करने का भी फल क्या है ? साङ्ग वेदाध्ययन का भी क्या फल है ? दुःख बहुल तपस्या का भी क्या फल है ? वचन शक्ति का यथेष्ट प्रयोग से क्या लाभ है ? चिन्ताशील चित्त वृत्ति के द्वारा भी क्या हो सकता हैं ? सदसत् विचार निपुणा बुद्धि वृत्ति के द्वारा भी क्या होगा ? इन्द्रिय नैपुण्य युक्त शरीर प्राप्त कर पर भी क्या होगा ? प्राणायामादि योगाङ्गानुष्टान से क्या लाभ है ? देहादि व्यतिरिक्त आत्मज्ञान अनुशीलन का भी क्या फल है ? सन्न्यास एवं वेदाभ्यास का क्या फल है ? व्रत, वैराग्य प्रभृति भूरि भूरि पुण्यात्मक अनुष्ठान से भी क्या फल है ? जिस के अनुष्ठान से श्रीहरि, आत्मदान नहीं करते हैं । कहा जा सकतः कि उक्त साधन समूह के विविध फल वर्णन शास्त्र में सुप्रसिद्ध हैं, अतएव श्रीहरिसेवा प्राप्ति के अभाव से वे सब साधन विफल क्यों होंगे ? उत्तर में कहते हैं, - माङ्गलिक फल समूह की पराकाष्ठा- आत्मा ही है । अर्थात् अन्तर एवं बाहर में श्रीहरि की स्फूत्ति ही निखिल साधनों का मुख्यफल है । भूरि

। भूरि साधनानुष्ठान से भी अन्तर-बाहर में यदि श्रीहरि की स्फूर्ति नहीं होती है तो, समस्त साधनानुष्ठान ही व्यर्थ होते हैं । कारण, परमार्थ विचार से आत्मार्थ रूप से ही अर्थात् आत्म सम्बन्ध से ही सब में प्रियत्व है ।

इस में प्रश्न हो सकता है कि-समस्त साधनों का तात्पर्य्य आत्मसाक्षात् कार में है, यह तो मान्य है, किन्तु उस से श्रीह र सेवा प्रसङ्ग की अवतारणा क्यों होती है ? अर्थात् श्रीहरि, क्या आत्मा हैं ? उत्तर में कहते हैं, - आत्मा-श्रीहरि ही हैं, एवं अविद्या निवृत्ति के द्वारा परमानन्द स्वरूप का प्रकाशक भी श्रीहरि ही हैं। ईश्वर रूप में भी आपने बलि प्रभृति को आत्मदान किया है, उस प्रकार से ही भक्ति अनुष्ठान कारी व्यक्ति गण को आत्मदान करते रहते हैं । एवं श्रीहरि ही सब के प्रिय हैं, कारण, आप परमानन्द मूर्ति हैं।

विशुद्ध पिता माता से उत्पत्ति को शुक्र सम्बन्धि जन्म कहते हैं, कारण, धर्मादि अनुष्ठान में धार्मिक पिता माता से उत्पन्न होना परमावश्यक है । उपनयन संस्कार के द्वारा जो जन्म होता है, उस को सावित्र जन्म कहते हैं । दीक्षा के द्वारा जन्म को याज्ञिक जन्म कहते हैं।’ इन्द्रिय राधना " - विषय ग्रहण में इन्द्रिय वृन्द की पटुना । ‘सांख्येन” शब्द का अभिप्राय यह है - देहादि भिन्न आत्म स्वरूप ज्ञानानुसन्धान करना । “श्रेयसामपि सर्वेषाम् " वाक्य का अर्थ ठीका में इस प्रकार प्रकाशित हुआ हैं- यहाँपर प्रश्न हो सकता है कि-विभिन्न साधकों का वैफल्य श्रीहरि सेवा के विना क्यों होगा ? उत्तर में कहते है-निखिल मङ्गल मय फल की अवधि अर्थात् पराकाष्ठा है । अथवा-परिसीमा है, “अर्थतः परमार्थ विचार में आत्म साक्षात् कार तात् पर्य्यं में ही अपर माङ्गलिक फल समूह का प्रियत्व है। प्रश्न हो सकता है कि, - समस्त मङ्गल फल का आत्म साक्षात् कार में तात्पर्य स्वीकृत होने पर भी श्रीहरि की आवश्यकता होगी ? उत्तर में कहते हैं - “सर्वेषामपि " अर्थात् देहाभिमानी जीव के पक्ष में श्रीहरि ही आत्मद हैं, अर्थात् अविद्या निरसन

[[13]]

श्रीभक्ति सन्दर्भः ७० ]

किमायातम् ? तत्राह– सर्वेषामपीति । आत्मा आत्मदश्च, अ विद्यानिरासेन स्वरूपाभिव्यञ्जकः, ऐश्वरेणापि रूपेण बलिप्रभृतिभ्य इव आत्मप्रदः प्रियश्च, परमानन्दरूपत्वात्” इत्येषा । अत्र सर्वेषां भूतानां शुद्धजीवानामपि आत्मा परमात्मेति ज्ञेयम् । रश्मिस्थानीयानां जीवानां सूर्यस्थानीयत्वात्तस्य, तदुक्तम् (भा० १०११४१५४-५५) -

“तस्मात् प्रियतमः स्वात्मा सर्वेषामेव देहिनाम् ।

तदर्थमेव सकलं जगदेतच्चराचरम् ॥८२॥

कृष्ण मेनमवेहि त्वमात्मानमखिलात्मनाम् ।

जगद्धिताय सोऽप्यत्र देहीवाभाति मायया ॥“८३॥ इति ।

पूर्वक निज स्वरूप का प्रकाशक हैं । यहाँपर” सर्वेषामपि भूतानां” शब्द से देहाभिमानी एवं शुद्ध जीवमें भी श्रीहरि ही आत्मा हैं, अर्थात् परमात्मा हैं । इस प्रकार समझना होगा ।

उक्त अभिप्राय से ही भा० १०।१४।५४-५५ में श्रीशुक देव ने श्रीपरीक्षित को कहा है-

“तस्मात् प्रियतमः स्वात्मा सर्वेषामेव देहिनाम् ।

तदर्थमेव सकलं जगदेतच्चराचरम् ॥८२॥

कृष्णमेनमवेहि त्वमात्मानमखिलात्मनाम् ।

जगद्धिताय सोऽप्यत्र देहीवाभाति मायया ।” ८३॥

टोका - तदर्थ मेव सकलं प्रियमित्यर्थः । प्रस्तुतमाह–कृष्णमेनमिति ।

हे राजन् ! देह जीर्ण होने पर भी जब जीवित रहने की आशा बलवती होती है, उस से जान नह होगा कि, - समस्त देहाभिमानी जीवों का निज निज आत्मा प्रियतम है। यह आत्मा सुख के निमित्त ही देह–अपत्य प्रभृति चर वस्तु एवं गेहादि अचर वस्तु, एवं चराचरात्मक जगत् जो कुछ हैं, वे सब ही आत्म सम्बन्धान्बित होकर ही प्रियत्वेन प्रतिभात होते हैं। कारण आत्मा सुख स्वरूप होने के कारण ही आत्मह के सम्पर्क से दुःखात्मक जगत् भी सुखात्मक रूप में प्रतिभात होता है । इस रीति से स्थूल एवं सूक्ष्म देह द्वय से अतिरिक्त विशुद्ध आत्मा का स्वाभाविक प्रियत्व दर्शाकर सम्प्रति अभीप्सित विषय को अवतारण करते हैं । कृष्णमिति - जो सर्वाकर्षक परमानन्द स्वरूप होने के कारण, कृष्ण नाम से अभिहित हैं । श्रीयशोदानन्दन को अखिल आत्मा का आत्मा- अर्थात् परमात्मा जानना । जिस प्रकार वहिश्चर रश्मि परमाणु वृन्द का एवं सूर्य्य मण्डल गत रश्मि परमाणु समूह का सूर्य्य मण्डल ही परमाश्रय हैं, उस प्रकार अशुद्ध एवं विशुद्ध जीवात्मा समूह का श्रीकृष्ण ही परम स्वरूप एवं परमाश्रय हैं । प्रश्न हो सकता है कि- श्रीकृष्ण, - यदि पर मात्मा ही होते हैं, तब दृश्यमान प्राकृत जगत् में दृश्य रूप में क्यों दृष्ट होते हैं ? उत्तर में कहते हैं । " जगद्धिताय” अर्थात् श्रीकृष्ण, सर्व आत्मवृन्द का परमाश्रय एवं परम स्वरूप होकर भी परम कल्याण गुण निधि हेतु परम कारुणिक हैं । एतज्जन्य निज भक्त वृन्द को कृपा करने के निमित्त जगत् में अवतीर्ण होकर भक्त प्रसङ्ग में जगत् गत जीव वृन्द के हितार्थ जगत् में कल्प कल्प में निज स्वरूप शक्ति के द्वारा आविर्भूत होते हैं। राजन् ! इस में संशय हो सकता कि श्रीकृष्ण निखिल जीवों का पराश्रय होकर भी देहिवृन्द के समात् विरुद्ध धर्माक्रान्त होकर जगत् में प्रकाशित क्यों होते हैं ? अर्थात् क्षुधा पिपासादि धर्म देह के हैं, आत्मा के नहीं हैं, आत्मा के उक्त धर्म समूह जब नहीं है, तब परमात्म स्वरूप श्रीकृष्ण में उक्त धर्म समूह का प्रकाश क्यों दृष्ट होता है ? उत्तर में कहते हैं। “माययादेहीव आभाति”

[[७१]]

आत्मानौ जीव- तादात्म्यापन्न - ब्रह्मेश्वराख्यौ, ददाति यथायथं स्फोरयति वशीकारयति च यः स आत्मद इति स्वाम्यभिप्रायः ॥