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अतो यच्च ज्ञानमुपदिष्टम्, तदपि तदुपदेशाव्यर्थतासम्पादनेच्छामात्रेणानुष्ठीयमानं
तेन भक्तिसादेव कृतमित्याह (भा० ४।२३॥ १०)
(४६) “सनत्कुमारो भगवान् यमाहाध्यात्मिकं परम् ।
योगं तेनैव पुरुषमभजत् पुरुषर्षभः ॥७३॥
भगवद्धर्मिणः साधोः श्रद्धया यततस्तदा ।
भक्तिर्भगवति ब्रह्मण्यनन्यविषया भवेत् ॥ ७४॥
तेनैव द्वारीकृत ेन ॥ श्रीमैत्रेयः ॥
एवं उसके अवलम्बन से आशु गन्तव्यस्थल में उपस्थित हो सकते हैं। इस प्रकार उपदेश का तात्पर्य्य जिस प्रकार सुगम स्वल्प काल साध्य एवं सुनिश्चित लक्ष्यस्थल प्रापक पथ में है, उस प्रकार ही इस स्थल में जानना होगा । अर्थात् मोक्षराज्य में प्रवेश हेतु मार्गद्वय विद्यमान हैं, एक ज्ञान मार्ग, अपर भक्तिमार्ग, जो लोक ज्ञान पथ से जाना चाहते हैं, उनको अनेक क्लेशप्राप्त करना पड़ता है, सुदीर्घ काल के अनन्तर स्वरूपोपलब्धि होती है । श्रीभगवान् गीता में भी उक्त है–“क्लेशोऽधिकतर स्तेषामव्यक्तासक्त चेतसां” द्वितीय पथ–भक्ति पथ है, जिस का अपर नाम गुह्यविद्या है। इस अभिप्राय से ही श्रीभगवद् गीता में “सर्व गुह्यतमंभूयः " का उल्लेख हुआ है। भक्त सङ्ग के विना इस पथ का अनुसन्धान नहीं मिलता है, संवाद प्राप्त कथञ्चित् होने पर भी उस में विश्वास नहीं होता है । इस पथ में गमनरत व्यक्ति को क्लेल प्राप्त करना नहीं पड़ता है, एवं अति सत्वर सुख पूर्वक श्रीभगवत् सान्निध्य में उपस्थित हो सकते हैं । ज्ञान एवं भक्ति का प्राप्य एक होने पर भी ज्ञान पथ का दुर्गमत्व वर्णित होने पर द्वितीय भक्ति पथ का अभिधेयत्व अर्थात् कर्त्तव्य स्वतः सिद्ध है। श्लोक में ‘तितीर्षन्ति’ पद का उल्लेख होने के कारण उस से प्रतीत होता है कि उत्तीर्ण होने की इच्छा करते हैं, किन्तु उत्तीर्ण नहीं होते हैं । इस प्रकार जानना होगा ।
श्रीसनत् कुमार श्रीपृथकी कहे थे ।४८ ।
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०९० ४३
एतज्जन्य भगवान् सनत् कुमार ने जो ज्ञानोपदेश किया था, उस ज्ञान की एवं उनके उपदेश की सत्यता प्रतिपन्न करने के निमित्त वह अनुष्ठित होने पर भी श्रीपृयु महाराज ने उक्त ज्ञानोपदेश का साधन भक्तिमय करके ही साधन किया था । भगवान् सनत् कुमार ने जो श्रेष्ठ आध्यात्मिक योग का उपदेश किया था, पुरुष श्रेष्ठ पृथुमहाराज ने भी उक्त उपाय के द्वारा ही श्रीभगवान् में भक्ति किया था भा० ४।२३। ६-१० में उक्त है-
“मी
(४६) " सनत् कुमारो भगवान् यमाहाध्यात्मिकं परम् ।
योगं तेनैव पुरुषमभजत् पुरुषर्षभः ॥७३॥ भगवद्धमणः साधोः श्रद्धया यततस्तदा ।
भक्तिर्भगवत ब्रह्मण्यनन्यविषया भवेत् ॥७४॥
भगवद्धम्म साधु पृथुमहाराज, सर्वदा श्रद्धायुक्त हृदय से भजन करते करते विभुचैतन्य श्रीभगवान् में अनन्य विषया अर्थात् अहैतुको भक्ति प्राप्त किये थे ।
श्लोकस्थ (तेनैव) शब्द का अर्थ द्वारीकृतेन है, अर्थात् उक्त उपदेश के माध्यम से ही श्रीपृथुमहाराज