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श्रीकुमारोपदेशेऽपि ज्ञानोपदेशानन्तरम् (भा० ४।२२।३६–४० ) -
(४८) " यत्पादपङ्कजपलाशविलासभक्तचा, कर्माशयं ग्रथितमुद्ग्रथयन्ति सन्तः । तद्वन रिक्तमतयो यतयो निरुद्ध, स्त्रोतोगणास्तमरणं भज वासुदेवम् ॥ ७१ ॥ कृच्छ्रो महानिह भवार्णवमप्लवेशां, षड् वर्गनक्रमसुखेन तितीरषक्ति ।
तत्त्वं हरेर्भगवतो भजनीयमधि, कृत्वोड़ पं व्यसनमुत्तर दुस्तरार्णम् ॥७२॥
भक्ति के
तुल्य योगिगण के ब्रह्मसिद्धि लाभ हेतु मङ्गल एवं सुखमय पन्था द्वितीय नहीं है । इलोकोक्त ब्रह्मसिद्धि शब्द का अर्थ है - परतत्त्व का आविर्भाव ।
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इस प्रकार ही
(४७)
तृतीय स्कन्ध के २५।४४ में उक्त है ।
“एतावानेव लोकेऽस्मिन् पुंसां निःश्रेयसोदयः
तीव्र ेण भक्तियोगेन मनो मर्थ्यापितं स्थिरम् ।" ७०॥
टीका-उप संहरति एतावानिति । मयि अर्पितं सन्मनः स्थिरं भवतीति, यत् एतावानेवा"
इस जगत् में तीव्र भक्ति योग के द्वारा मेरे प्रति मन अर्पित होने से ही वह मन स्थिर होता है, अर्थात् लय, विक्षेप, से निष्कृति प्राप्त करता है। यह ही जीव की परम मङ्गल प्राप्ति है । ‘तीव्रण’ शब्द का अर्थ दृढ़ भक्ति योग के द्वारा योग कर्मादि भङ्गुर साधन के द्वारा नहीं, किन्तु शुद्ध भक्ति योग के द्वारा मन अर्पित होना चाहिये। उस प्रकार ज्ञान कर्मादि रहित शुद्ध भक्तियोग के द्वारा अर्थात् श्रवण कीर्त्तनादि लक्षण भक्ति योग के द्वारा मन भगवान् में अर्पित होने पर स्थिर होता है, यह हो जीव में परम निःश्रेयस परमपुरुषार्थ का आविर्भाव है। मूल श्लोक में ‘अस्मिन्’ इस लोक में प्रयोग है, उस से ध्वनित होता है । कि भक्ति योगके द्वारा श्रीभगवान् में मन अर्पित होने पर इस जगत् में परम कल्याण लाभ तो होता ही है, मरणोत्तर काल में श्रीभगवान् के परम पार्षदत्व प्राप्त कर जीव परमानन्दित भी होता है ।
श्रीकपिल देवने कहा था । ४७ ॥
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श्रीपृथुमहाराज के प्रति श्रीसनत् कुमार के उपदेश के अनन्तर वर्णित है ( भा० ४।२२।३६-४०) (४८) “यत् पादपङ्कजपलाशविलासभक्तचा, कर्माशयं ग्रथितमुद्ग्रथयन्ति सन्तः ।
तद्वन्न रिक्तमतयो यतयो निरुद्ध, स्रोतोगण स्तमरणं भज वासुदेवम् ॥७६॥
कृच्छ्रो महानिह भवार्णवमप्लवेशां, षड् वर्गनक्रम सुखेन तितीरन्ति ।
तत्त्वं हरेर्भगवतो भजनीयमघ्र, कृत्वोड़ पं व्यसनमुत्तर दुस्तरार्णम् ॥ ७२ ॥
टीका - तमवेहीति ज्ञानमुपदिष्टं, तस्य दुःखकरत्वेन भक्तिमुपदिशति द्वाभ्याम् । यस्य पादपङ्कज्योः पलाशानि अङ्गुलयः, तेषांविलासः कान्तिः, तस्य भक्तयास्मृत्या कर्माशयम् - अहङ्कार रूपं हृदयग्रन्थिं
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टीका च - “तमवेहीति ज्ञानमुपदिष्टम् । तस्य दुष्करत्वेन भक्तिमुपदिशति द्वाभ्याम् ।” यत् पादेत्यादिकमारभ्य " ननु ( तै० २१११२ ) - ‘ब्रह्मविदाप्नोति परम्’ इति श्रुतिः, कथं यतयो नोद्ग्रथयन्तीत्युच्यते ? तत्राह (भा० ४।२२।४० ) - “कृच्छ्रः” इति । अप्लवेशां न प्लवस्तरण- हेतुरीट् ईशो येषां तेषामिह तरणे महान कृच्छ्रः क्लेशस्ते हि असुखेन योगादिनेन्द्रिय- षड्वर्गग्राहं भवार्णवं तितीर्षन्ति, तत् तस्मादुड़ पं प्लवम, दुस्तराणं दुस्तरार्णवम्” इत्येषा । कर्मभिरेव ग्रथितम् । रिक्ता निर्विषयामतिर्येषां रुद्धः प्रत्याहृतं स्रोतोगण इन्द्रियवर्गो यैः । अरणं
शरणम् ॥३६॥
ननु ब्रह्मविदाप्नोति परमिति श्रुतेः कथं यतयो नोद्ग्रन्थन्तीत्यच्यते ? तत्राह कृच्छ्र इति । अप्लवेशां न प्लवस्तरणे हेतु ईट् ईशो येषां तेषां महान् इह तरणे कृच्छ्रः क्लेशः । तेहि असुखेन योगादिना इन्द्रिय षड़, वर्गग्राहं भवार्णवं तितीर्षन्ति । तत् तस्मात् उडुपं प्लवम् । दुस्तरार्णवमित्यर्थः । अर्ण शब्दे वकाराभाव आर्षः । यद्वा दुस्तरोदकरूपं व्यसनमित्यर्थः ॥ ४०॥
हे राजन् ! जिनकी अङ्गलि समूह की कान्ति च्छटा का स्मरण के प्रभाव से भूरि भूरि कर्म द्वारा ग्रथित अहङ्कार रूप हृदय ग्रन्थि का छेदन जिस प्रकार सुख पूर्वक होता है । उस प्रकार हृदय ग्रन्थि का छेदन, भगवद् भक्ति हीन योगिगण भी सुख पूर्वक नहीं कर सकते हैं । अतएव उन शरणागत पालक श्री वासुदेव का भजन करो। हे राजन् ! जिन्होंने भवसिन्धु पार होने की तरणि रूप श्रीभगवान् का आश्रय ग्रहण नहीं किया है, वे सब काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य्य रूप कुम्भीरयुक्त संसार सागर को पार करने की इच्छा करते हैं, वे सब भक्ति व्यतीत कर्म, ज्ञान, योग, मार्गावलम्बन कर अति क्लेश प्राप्त करते रहते अतएव तुम भगवान् श्रीहरि के भजनीय गुण समन्वित चरण को तरणि रूप में अवलम्बन कर यह दुस्तर एवं दुःखमय संसार सागर उत्तीर्ण हो जाओ।
टीका की व्याख्या - पूर्व श्लोक में नित्य मुक्त विशुद्ध तत्त्व को जानने के निमित्त ज्ञानोपदेश किया गया है । किन्तु वह ज्ञान अति दुःखद होने के कारण श्लोकद्वय के द्वारा सुखमय भक्ति मार्ग का उपदेश करते हैं। जिन्होंने, चरण युगल पलाश, अर्थात् अङ्गलि समूह का जो विलास अर्थात् कान्ति है, उस कान्ति सम्बन्धिनी भक्ति, अर्थात् स्मृति के द्वारा कर्माशय - अहङ्कार रूप हृदय ग्रन्थि - जो भूरि भूरि कर्म द्वारा ग्रथित है, उस हृदय ग्रन्थि को छेदन किया है, किन्तु जो लोक रिक्तमति हैं, अर्थात् जिनके सङ्कल्प का विषय श्रीभगवान् नहीं हैं, वे सब यतिगण रुद्धस्रोतोगण होने पर भी अर्थात् इन्द्रिय वर्ण को विषयों से प्रत्याहार करके भी, भक्त वृन्द के समान कर्म ग्रन्थि को च्छेदन करने में सक्षम नहीं होते हैं । अरण-शब्द का अर्थ-करण है । अर्थात् रक्षक रूप में वरण करना है । क्यों नहीं सक्षम होते हैं ? कारण निर्देश करते हैं- “कृच्छ्रो महानिह” श्लोक के द्वारा कहते हैं। “अप्लवेशां” जिनके भवसिन्धु उत्तीर्ण होने के हेतु ईश्वर नहीं हैं । अर्थात् भवसिन्ध पार होने के निमित्त जिन्होंने ईश्वर को अवलम्बन करना उचित नहीं समझना है । उनको संसार समुद्र पार करने के निमित्त क्लेश प्राप्त करना पड़ता है। वे सब दुःख से इन्द्रियषड वर्ग कुम्भीरयुक्त भवार्णव को पार करने के इच्छ ुक हैं । अतएव भगवान् को तरणी साधन करके दुस्तर भवार्णव उत्तीर्ण हो जाओ। यह है टीकाकार की व्याख्या ।
गन्तव्य स्थल में उपनीत होने के निमित्त बुद्धिमान् व्यक्ति के निकट मार्ग का विवरण पूछने पर बुद्धिमान् व्यक्ति कहेंगे, गन्तव्य स्थल में उपस्थित होने के निमित्त दो पथ हैं, एकपथ दुःखविहीन स्वल्प समय साध्य है, अपर पथ अत्यन्त क्लेश बहुल है। प्रथम पथ–अति गोपनीय है । उक्त पथ अति सुगम है,
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समानप्राप्ययोरपि पथोरेकस्य दुर्गमत्व कथनेनान्यस्याभिधेयत्वं स्वत एव सिध्यति । अत्र तितीर्षन्तिमात्रम्, न तु तरन्तीत्यर्थोऽपि ज्ञ ेयः ॥ श्रीसनत्कुमारः श्रीपृयुम् ॥