४५

०८१ ४५

अतएव स्वयं तत् श्लाघते (भा० ३।८।१) -

ि

(४५) “सत्सेवनीयो वत पुरुवंशी, यल्लोकपालो भगवत् प्रधानः ।

बभूविथेहा जित-कीर्तिमालां, पदे पदे नूतनयस्यभीक्ष्णम् ॥ ६८ ॥ तस्मात् कथोपलक्षिता भक्तिरेव परमश्रेय इति भावः ॥ श्रीमंत्रेयः ॥

०८२ ४६

श्रीकापिलेयेऽपि यथाह (भा० ३।२५।१६)-

p

(४६) “न युज्यमानया भक्तया भगवर्त्याखिलात्मनि ।

सदृशोऽस्ति शिवः पन्था योगिनां ब्रह्मसिद्धये ॥ ६६ ॥

ब्रह्मसिद्धिः परतत्त्वाविर्भावः ॥

स्वामिपाद की टीका के अनुसार “अकुण्ठधिष्णच” शब्द का अर्थ है वैकुण्ठ लोक । ‘विशदाशय’ का अर्थ मोक्षपर्य्यन्त कामना त्यागी है, अर्थात् सेवक पुरुषार्थी है । अपर शब्द का अर्थ है, उनको मोक्षलाभ हेतु अत्यधिक परिश्रम करना पड़ता है । किन्तु जो लोक केवल भगवत् सेवामात्र पुरुषार्थी हैं, उनको मुक्ति लाभ हेतु कुछ भी परिश्रम नहीं करना पड़ता है, सर्वदा श्रीभगवत् सेवापरमानन्दानुभवकारी जनगण को आनुषङ्गिक रूप से मोक्षलाभ भी होता है ।

अजानज देवगण, श्रीमहत्तत्त्व सृष्टिकर्त्तापुरुष कारणार्णवशायी महाविष्णु को कहे थे ॥४४ ॥

०८३ ४५

अतएव श्रीमंत्रेय ऋषि ने स्वयं भी उसकी प्रशंसा की है । (भा० ३।८।१)

(४५) “सत् सेवनीयो वत पुरुवंशी, यल्लीकपालो भगवत् प्रधानः ।

बभूविथेहाजित - कीर्तिमालां, पदे पदे नूतनयस्यभीक्ष्णम् ॥” ६८॥

श्रोता विदुर को प्रशंसा कर कहते हैं, ‘वत’ आश्चर्य्य सूचक अव्यय है । यह पुरुवंश साधु पुरुण गण के सेव्य है, कारण, इसवंश में लोक पाल धर्मराज तुमने इस कुल में जन्म ग्रहण किया है । केवल लोक पाल होने के कारण ही तुम प्रशंसनीय हो, यह नहीं, किन्तु श्रीभगवान् ही तुम्हारा सर्वस्व हैं, जिस वंश में भगवद् गतप्राण भक्त का जन्म होता है वह वंश साधुवृन्द का सेवनीय है । उस का दृष्टान्त, तुम ही हो, कारण, श्रीभगवान् की कीर्ति श्रेणी को पद पद में प्रतिक्षण में नूतन नूतन करते रहते हो । अतएव श्री हरिकथा उपलक्षिता भक्ति ही परम श्रेय पदार्थ है, प्रकरण का यह सारार्थ है ।

श्रीमत्रेय कहे थे ॥४५॥