४४

०७९ ४४

तत्राजानज देवस्तुतिद्वारेवोत्तरम् (भा० ३।५।४६-४७)

(४४) “पानेन ते देव कथासुधायाः, प्रवृद्धभक्तया विशदाशया ये ।

वैराग्यसारं प्रतिलभ्य बोधं, यथाञ्जसान्वीयुर कुण्ठधिष्णचम् ॥ ६६ ॥ तथापरे चात्मसमाधियोग, - बलेन जित्वा प्रकृति बलिष्ठाम् ।

त्वामेव धीराः पुरुषं विशन्ति, तेषां श्रमः स्यान्न तु सेवया ते ॥ ६७॥ “अकुण्ठ धिष्णंच वैकुण्ठलोकम्” इति टीका, विशदाशयाः प्रोज्झितकैतवाः सेवेक- पुरुषार्थाः, ये तु ज्ञानसङ्गिनस्तेषां साधन-साध्ययोः कनिष्ठत्वमाह– तथेति । अपरे मोक्षमात्र- करने के निमित्त इस मर जगत् में विचरण करते रहते हैं, अतः आप हम सब को उस सुख रूप पथ को कहें, जिस पथ में भगवान् सु प्रसन्न होकर भक्ति पूत हृदय में अनादि वेद प्रसिद्ध परमात्म तत्त्व साक्षात् कार के सहित तत्व ज्ञान उद्भासित करते हैं ।

ि

उक्त श्लोकस्थ “शं” “सुख रूपं वर्त्म” इस प्रकार अर्थ श्रीधर स्वामि पादने किया है । “भक्तिपूत” ‘प्रेम विमल हृदय’ ‘स तत्त्वं’ अर्थात् तत्त्ववस्तु - ब्रह्म, परमात्मा, भगवान् तीन प्रकार आविर्भाव ही तत्त्व शब्द से अभिहित हुआ है, अतएव उक्त त्रिविध प्रकार आविर्भाव के सहित जो तद्विषयक ज्ञान वही तत्त्व ज्ञान है ।

श्रीविदुर- श्रीमंत्रेय को कहे थे ॥ ४३ ॥

०८० ४४

उक्त विदुर मैत्रेयसंवाद में अज एवं अनजदेवगण कृत श्रीविष्णु स्तुति के द्वारा श्रीमंत्रेय ऋषिने

श्रीविदुरकृत प्रश्न का उत्तर प्रदान किया था। ( भा० ३।५।४६-४७)

(४४) " पानेन ते देव कथासुधायाः, प्रवृद्धभक्तया विशदाशया ये ।

वैराग्यसारं प्रतिलभ्य बोधं यथाञ्जसान्वीयुर कुष्ठधियम् ॥६६॥ तथापरे चात्मसमाधियोग, बलेन जित्वा प्रकृति बलिष्ठाम् ।

त्वामेव धीराः पुरुषं विशन्ति, तेषां श्रमः स्यान्न तु सेवया ते ॥ " ६७ ॥

टीका - “एतदेव स्फुटयन्ति–पानेनेति द्वाभ्याम् । वैराग्यं सारोबलं यस्य तं लब्धा, अन्वीयुः प्राप्नुयुः । अकुण्ठधिण्ण्यं वैकुण्ठ लोकम् ॥४६ ॥ आत्मसमाधिर्मनः स्थैय्यं स एव योगः, उपायः, तस्य बलेन । ज्ञान योगतः, श्रमेण-मोक्षः, तत् अङ्गतस्त्वत् कथा श्रवणादिना त्वनायासेनैव । अहं ममतादि विशिष्टानान्तु न कथञ्चिदिति भावः ॥४७॥

यह सब देव वृन्द - महदादि तत्त्वाभिमानी देवता हैं, यह सब श्रीविष्णु के अंश होने के कारण अज हैं, काललिङ्ग-विकृति, मायालिङ्ग–विक्षेप, अंशलिङ्ग - चेतना, ये तीन न होने के कारण वे सब अजानज देव नाम से अभिहित होते हैं । हे देव ! तुम्हारी कथा सुधा का पान करते करते वद्धिष्णु भक्ति के प्रभाव से जिन की चित्त शुद्धि हुई है, वे विषय वैराग्य पुष्ट ज्ञान प्राप्त कर जिस प्रकार सुख से वंकुण्ठ लोक गमन करते हैं, उस प्रकार अपर व्यक्तिगण, आत्मसमाधि योगबल से अर्थात् चित्त वृत्ति निरोध करने के पन्था को अवलम्बन कर बलबती प्रकृति को जयकर धीर पुरुष गण परम पुरुष स्वरूप तुम को प्राप्त करते हैं । अर्थात् मायावृत्ति निवृत्ति के अनन्तर स्वरूपानन्द अनुभव में निमन्न हो जाते हैं । किन्तु ज्ञान एवं योग साधन के द्वारा भूरि परिश्रम से उन सब को मोक्षलाभ होता है । परन्तु भगवद् भक्त सङ्ग में तुम्हारी कथा अत्रण कीर्तनादि प्रसङ्ग से अनायास मुक्ति होती है।

[[६३]]

कामाः । तन्मात्र- पुरुषार्थेऽपि तेषां श्रमः स्यात् । ये तु सेवकपुरुषार्थास्तेषां सेवया श्रमो न स्यात् । सदैव सेवया परमानन्दमनुभवतामानुषङ्गिकतया मोक्षश्च स्यादित्यर्थः ॥ अजानजदेवाः श्रीमहत् स्रष्टृ पुरुषम् ॥