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श्रीविदुरमैत्रेय-संवादेऽपि, तत्र प्रश्नो यथा ( भा० ३।५।४२ ) -

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३ (४३) “तत् साधुवर्य्यादिश वर्त्म शं नः, संराधितो भगवान् येन पुंसाम् ।

हृदि स्थितो यच्छति भक्तिपूते, ज्ञानं सतत्त्वाधिगमं पुराणम् ॥ " ६५॥ अत्र “शं सुखरूपं वर्त्म” इति टीका च । भक्तिपूते प्रेमविमलेः सतत्त्वं ज्ञानम्, तच्च “यमेवैष वृणुते तेनलश्यः, तस्मै स आत्मा वृणुते तनु ं स्वां " परमात्मा, जिस को वरण करते हैं, अर्थात् जिस को निज स्वरूप शक्ति के द्वारा उद्भासित करते हैं । वही उनको प्राप्त कर सकता है । उक्त स्वरूप शक्ति प्रदान करने की क्षमता, सर्वशेष भगवत् स्वरूप में ही है, निर्विशेष भगवत् स्वरूप में उक्त शक्ति प्रदान करने की क्षमता नहीं है, उक सामर्थ्य का अङ्गीकार ब्रह्म में करने पर ब्रह्म निविशेष नहीं रहेंगे। सविशेष हो जायेंगे । धर्मधर्मो रूप स्वगत भेद भी उपस्थित होगा । इस अभिप्राय से ही अपर श्रुति कहती है । “विज्ञातारमरे केन विजानीयात् " जो सर्व ज्ञाता है, उन को किस साधन के द्वारा कौन जान सकता है ? उनकी कृपा शक्ति से ही वह परिज्ञात होते हैं। इस से प्रतिपन्न हुआ कि - निविशेष ब्रह्म स्वरूप का आविर्भाव भी भगवत् कृपाधीन ही है । भा० ८।२४।३८ में सत्यव्रत के प्रति श्रीमस्यदेवने कहा भी है-

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“मदीयं महिमानञ्च पर ब्रह्म ेति शब्दितम् । (3) वेत्स्यस्यनुगृहोतं में संप्रश्नैविवृतं हृदि ॥ ६४ ॥

टीका - मे मयानुगृहीतं प्रसादीकृतं हृदि अपरोक्षं वेत्स्यसि । त्वया कृतैः सम्प्रश्नर्मया विवृतं प्रकाशितं सन्तम् ॥

हे राजन्

! मेरी जो महिमा, अर्थात् महत्त्व, वह परब्रह्म शब्द से अभिहित है, मत् कत्त ेक अनुगृहीत उस ब्रह्म तत्त्व का साक्षात्कार कर सकोगे । कारण, तुम्हारे प्रश्न समूह के द्वारा मैं प्रसन्न होकर तुम्हारे हृदय में उस तत्त्व को प्रकाशित करूँगा । उक्त श्लोक में " परब्रह्म” एवं “अनुगृहीत पद द्वय की स्थिति एकाधिकरण में होने के कारण, ब्रह्मतत्त्व अनुगृहीत तत्त्व है, एवं भगवान् अनुग्राहक तत्त्व है । प्रस्तुत श्लोक के द्वारा उक्तार्थ सुस्पष्ट हुआ है।

श्रीब्रह्मा - श्रीनारद को कहे थे ॥४२॥

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श्रीविदुर मैत्रेय संवाद में भी भक्ति का अभिधेयत्व वर्णित है, उस प्रकरण में प्रश्न इस प्रकार है - भा० ३।५।४

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(०३) " तत् साधुवर्य्यादिश वर्त्म शं नः, संराधितो भगवान् येन पुंसाम्

हृदि स्थितो यच्छति भक्तिपूते, ज्ञानं सतत्त्वाधिगमं पुराणम् ॥” ६५॥ टीका- “तत् तस्मात्, हे साधुवर्थ्य ! शं- सुखरूपं वर्त्म, नः आदिश- कथया येन वर्त्मना संराधितो हृदि स्थितः सन् तत्त्वाधिगमः - आत्मापरोक्ष्यम्, तत् सहितं पुराणम्–अनादि वेद प्रमाणकम् ॥४॥ "

हे साधुवर्य्यं ! जिस समय मङ्गल मय श्रीभगवान् के भक्त वृन्द वहिर्मुख जीव समूह के प्रति अनुग्रह

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ब्रह्म-भगवत्-परमात्मेत्याद्याविर्भावम् ॥ श्रीविदुरः श्रीमैत्रेयम् ॥